Thursday, September 19, 2024
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आखिर नाम की तख्ती से यूपी में क्यों बढ़ रहा है विवाद?

वर्तमान में यूपी में नाम की तख्ती से विवाद बढ़ता ही जा रहा है! कांवड़ यात्रा के रास्ते पर खान-पान की सामग्री बेचने वाले सभी दुकानदारों को अपने और अपने कर्मचारियों के नाम बताने होंगे। उत्तर प्रदेश प्रशासन के इस आदेश को मुसलमान विरोधी बताया जा रहा है। ये तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात हो गई। जब प्रशासन ने किसी धर्म, समुदाय, जाति विशेष का नाम नहीं लिया, उसने सबके लिए आदेश जारी किया है तो फिर इससे मुसलमानों को नुकसान होगा, यह कैसे पता चला? बिल्कुल आसान जवाब है। ये सब जानते हैं कि मुसलमान किस हद तक अनैतिक और अमानवीय हरकतों में जुटे हैं। आए दिन पेशाब, थूक और पता नहीं किन-किन तरकीबों से अपवित्र करके खाने-पीने के सामान बेचने की इनकी घटिया हरकतों के वीडियोज सामने आते रहते हैं। मुसलमान जहां हैं, वहां बस दो ही मानसिकता के साथ काम कर रहे हैं। पहली- गैर-मुस्लिमों को जैसे भी हो सके, प्रताड़ित करो, उनका धर्म भ्रष्ट करो और दूसरी- तरह-तरह के जिहाद से उनका धर्म परिवर्तन करवाओ। अब तो लगातार मिल रहे प्रमाणों से यह साबित सा हो गया है कि मुसलमान न हिंदुओं के साथ सामंजस्य चाहते हैं और ना हिंदुस्तान को अपना मानते हैं। लेकिन उनकी मांग यह है कि हिंदू समावेशी विचारों से तनिक भी नहीं भटकें, धर्मनिरपेक्षता का दामन न छोड़ें। फिर पारदर्शिता से परहेज क्यों? किसकी दुकान है, यह बताने में क्या हर्ज? क्यों बात-बात में इस्लाम को खतरे में देखने वाला मुसलमान अपने होटलों, ढाबों के नाम हिंदू देवी-देवताओं पर रखेगा? उत्तर प्रदेश और कांवड़ यात्रा के मार्ग ही नहीं, पूरे देश में अगर कोई कुछ छिपाकर कारोबार कर रहा है तो क्या वह गुनाह नहीं है?

अगर, यह सच है कि मुसलमान खाने-पीने के सामानों में थूक रहे हैं, पेशाब कर रहे हैं और यह बीमारी किसी एक इलाके की नहीं, देश के कोने-कोने में देखी जा रही है तो फिर कोई किस मुंह से कहता है कि दुकानदारों को नेम प्लेट लगाने का फरमान हिटलरशाही है। अगर यह हिटलरशाही है तो यही सही, लेकिन हिंदू थूक चाटकर और पेशाब पीकर समावेशी और धर्मनिरपेक्ष भावना का झंडाबरदार नहीं बना रह सकता। जो कोई भी यूपी प्रशासन के आदेश की निंदा कर रहा है, वो इस बात की चर्चा तक नहीं करता कि हां, कुछ मुसलमान अमानवीय हरकतें करते हैं। भला ये क्यों चर्चा करें? इन्हें जिहादी मानसिकता से क्या परेशानी? जिसे पेशाब पीना पड़े, थूका हुआ खाना पड़े, वो जानें। इन्हें तो बस लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरेपक्षता, समावेशिता, सहिष्णुता के नारों से जिहादियों का बचाव करना है, जिहाद की आंच तेज करनी है। दूसरी तरफ, धर्मगुरु के वेष में भी हिंदू हाय हुसैन के नारे के साथ अपने शरीर को जख्मी कर रहा है। एकता प्रदर्शित करने का इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहते हो?

दरअसल, ये लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता आदि का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ युद्ध के औजारों की तरह करते हैं। दुनिया के उस लोतांत्रिक और समावेशी देश का नाम बता दें जहां मुसलमान पलायन करके गए और उस देश का कायाकल्प कर दिया। इसके उलट एक भी देश नहीं जहां पलायन कर गए मुसलमानों की ठीकठाक आबादी होते ही शांति बरकरार रह सकी। इंग्लैंड इसका जीता-जागता उदाहरण है। ये मुसलमान ही हैं जिन्होंने यूरोप के उन देशों की नाक में भी दम करने से परहेज नहीं किया जिन्होंने संकट के वक्त इनके लिए अपनी बाहें पसारीं। ये इतने पतित हैं कि जिन माहौल, जिन हालात से पीछा छुड़ाकर भागे, वही माहौल और हालात उन देशों में भी बना देते हैं जहां इन्होंने शरण ली हुई है। वो तो दूसरे देश हैं, यहां भारत में रहने वाले मुसलमान ही अक्सर ऐसा व्यवहार करते दिख जाते हैं कि मानो किसी दुश्मन देश को युद्ध में हराकर जीत का जश्न मना रहे हों। तिरंगे का अपमान करेंगे और फिलिस्तीनी झंडे को ऐसे लहराएंगे जैसे निजाम-ए-मुस्तफा का ऐलान कर रहे हों। भारत माता की जय कहने से इस्लाम संकट में आ जाता है और संसद में जय फिलिस्तीन का नारा काफी हर्षोल्लास से लेते हैं।

कहते हैं पढ़ाई से, जीवन स्तर ऊंचा होने से कट्टरता कम हो जाती है। लेकिन मुसलमानों पर यह फॉर्म्युला भी काम नहीं आता है। बाकियों को छोड़ दीजिए जो शिक्षा की रोशनी बांटते हैं, वो मुसलमान कट्टरता के किस घुप्प अंधेरों से घिरे हैं इसका प्रमाण अभी-अभी दिल्ली में मिला है। यहां मुस्लिम शिक्षकों ने बच्चों को धर्म परिवर्तन के लिए डराया। जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में एक कर्मचारी का आरोप है कि मुस्लिम उनपर धर्म परिवर्तन करने का दबाव बना रहे हैं। मुसलमान चाहे आईएएस बन जाएं या यूएस चले जाएं, क्रिकेट खेल रहे हों या कोई फिल्म स्टार हो, पत्रकार हो या लेखक, जो जहां है जिहाद में लगा हुआ है। सबका तरीका अलग हो सकता है, लेकिन जिहाद में अपनी भागीदारी जरूर सुनिश्चित कर रहा है। कोई सीधा कत्ल करके तो कोई जिहादी संगठनों की फंडिंग करके, कोई टीवी चैनल पर बैठकर जिहादियों का बचाव करके तो कोई लेख लिखकर। ये बहुरूपिये जिहाद में या तो सीधे शामिल हैं या परोक्ष रूप से।

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