आखिर विवादों में क्यों घिर गई है स्वेज नहर?

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आज हम आपको बताएंगे कि स्वेज नहर विवादों में क्यों घिर गई है! ईरान के एक महान राजा डेरियस का एक शिलालेख है, जिस पर लिखा है-मैं फारसी हूं, फारस से निकलकर मैंने मिस्र पर विजय प्राप्त की। मैंने इस नहर को नील नदी से लेकर फारस के समुद्र तक खोदने का आदेश दिया जो मिस्र में बहती है। यह नहर वैसी ही खोदी गई जैसा कि मैंने आदेश दिया था। इससे जहाज मिस्र से इस नहर के माध्यम से फारस तक गए। जानते हैं इसी स्वेज नहर की वह कहानी, जिसका कनेक्शन भारत, तुर्की, इजरायल और ईरान से भी है। दरअसल, यह कहानी इसलिए भी बतानी जरूरी है कि हाल ही में ईरान से तनातनी के बीच इजरायल के युद्धपोत इसी स्वेज नहर से होकर गुजरे हैं। इसे लेकर मिस्र को काफी आलोचना का सामना करना पड़ा है। बेहिस्तून शिलालेख में कहा गया है कि डेरियस प्रथम ने ईरान के राजा गौमता की हत्या करने के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने गृहयुद्ध लड़ा। आखिरकार वह अखमनी साम्राज्य को फिर से स्थापित कर पाया। यही वही डेरियस था, जिसने कई विदेशी युद्ध लड़े, जो उसे भारत और तुर्की तक ले आए थे। डेरियस के समय में फारस यानी ईरान का साम्राज्य अपने सबसे बड़े विस्तार पर पहुंच चुका था।

डेरियस प्रथम भारत पर आक्रमण करने वाला पहला फारसी राजा था। उसने 516 ईसा पूर्व में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया था। उस वक्त डेरियस प्रथम ने भारत के पंजाब, सिंध, झेलम नदी घाटी के कुछ हिस्से और गांधार पर कब्जा कर लिया था। हालांकि, नहर बनाने का काम इन युद्धों के बाद कब किया गया था, इस बारे में जानकारी स्पष्ट नहीं मिलती है। ईरान में एक स्मारक है, जिसे चालौफ स्टेल के नाम से जाना जाता है। इसमें एक नहर के निर्माण से संबंधित लेख है, जिसके बारे में कहा गया है कि यह नील नदी और लाल सागर को जोड़ती थी। इस नहर को बनाने का काम ईरान के महान राजा डेरियस प्रथम ने पूरा किया था। डेरियस का शासन 522 ईसा पूर्व से लेकर 486 ईसा पूर्व तक था। हालांकि, मिस्र में भी फैरोहों राजाओं के काल में ऐसी ही एक नहर बनाने का जिक्र मिलता है।

मिस्र छोड़ने वाले यहूदियों ने एक नहर बनाई थी। इसी नहर को डेरियस ने बहाल किया था, जो नील नदी, लाल सागर और फारस की खाड़ी के बीच कारोबारी रास्ता था। बाइबिल से जुड़ी दूसरी किताब है। इसमें बताया गया है कि कभी इजरायली यानी यहूदी लोग मिस्र में गुलाम थे। अत्याचारों से तंग आकर यहूदियों ने मिस्र छोड़ दिया, जिसके बाद उन सभी ने अपने लिए एक पवित्र देश बनाने का संकल्प लिया था। प्राचीन काल में बनी इस नहर के आधार पर ही आधुनिक स्वेज नहर की नींव रखी गई।

193.30 किलोमीटर लंबी स्वेज नहर मिस्र में कृत्रिम समुद्रस्तरीय जल मार्ग है। यह नहर स्वेज के इस्तमुस से होकर अफ्रीका और एशिया को बांटते हुए भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है। 1858 में फ्रांसीसी इंजीनियर और राजनयिक फर्डिनांड डी लेसेप्स ने नए सिरे से नहर बनाने के लिए स्वेज नहर कंपनी बनाई। तब नहर का निर्माण तुर्की सरकार ने 1859 से 1869 तक कराया। 17 नवंबर, 1869 को यह नहर खोल दी गई। 1866 में इस नहर के पार होने में 36 घंटे लगते थे। मगर, आल इसे पार करने में 18 घंटे से कम वक्त लगता है। फिलहाल यह नहर अभी मिस्र के नियंत्रण में है।

इस नहर का प्रबंध पहले स्वेज कैनाल कंपनी करती थी, जिसके आधे शेयर फ्रांस और आधे शेयर तुर्की, मिस्र और अन्य अरब देशों के थे। बाद में मिस्र और तुर्की के शेयरों को ब्रिटेन ने खरीद लिया। 1888 में एक समझौता हुआ कि इस नहर पर किसी एक राष्ट्र की सेना नहीं रहेगी। मगर, ब्रिटेन ने वादाखिलाफी करते हुए इस नहर पर अपनी सेनाएं बैठा दीं। 1947 में जब भारत आजाद हो रहा था, तब यह तय हुआ कि कंपनी के साथ 99 वर्ष का पट्टा रद्द हो जाने पर इसका स्वामित्व मिस्र सरकार के हाथ आ जाएगा। 1951 में मिस्र में ग्रेट ब्रिटेन के विरुद्ध आंदोलन छिड़ा और आखिर में 1954 में एक करार हुआ। इसके अनुसार ब्रिटेन नहर से अपनी सेना हटा ली। बाद में मिस्र ने इस नहर का 1956 में राष्ट्रीयकरण कर इसे अपने पूरे अधिकार में कर लिया।

1956 की बात है, जब इजरायल और बाद में ब्रिटेन-फ्रांस ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया था। तब स्वेज नहर से आवागमन रोक दिया गया था। यही स्वेज संकट (Suez Crisis) कहलाता है। यह आक्रमण स्वेज नहर पर पश्चिमी देशों का नियंत्रण पुन कायम करने और मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल नासिर को सत्ता से हटाने के मकसद से किया गया था। युद्ध शुरू होने के बाद अमेरिका, सोवियत संघ और राष्ट्र संघ ने राजनैतिक दखल दिया, तब जाकर कहीं यह संकट खत्म हुआ। यह संकट स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के चलते हुआ था। 1957 में स्वेज नहर को सभी देशों के जहाजों के आवागमन के लिए खोल दिया गया।

स्वेज नहर में आवागमन कॉन्वॉय के रूप में होता है। हर दिन तीन कॉन्वॉय चलते हैं। दो उत्तर से दक्षिण और एक दक्षिण से उत्तर की तरफ। जहाजों की गति 11 से 16 किलोमीटर प्रति घंटे होती है। दरअसल, जहाजों के तेज गति से चलने पर नहर के किनारे टूटने का डर रहता है। इस नहर की यात्रा का समय 12 से 16 घंटों का होता है। इस नहर से एक साथ दो जहाज पार नही हो सकते हैं। जब एक जहाज गुजरता है तो दूसरे को गोदी में बांध दिया जाता है। ऐसे में इस नहर से होकर एक दिन मे अधिकतम 24 जहाज ही गुजर सकते हैं।

स्वेज नहर बन जाने से यूरोप और सुदूर पूर्व के देशों के बीच की दूरी बहुत घटी है। जैसे लिवरपूल से मुंबई आने में 7,250 किमी और हांगकांग पहुंचने मे 4,500 किमी, न्यूयॉर्क से मुंबई पहुंचने में 4,500 किमी की दूरी कम हो जाती है। इस नहर के कारण ही भारत और यूरोपीय देशों के बीच कारोबारी रिश्ते बढ़े हैं।