सलमान रुश्दी पर हुआ हमला तो आपने देखा ही होगा! देश के अंदर कई राजनीतिक फैसले हुए जिसका खामियाजा सरकार के साथ देशवासियों को भी भुगतना पड़ा। ये बात तो तय है फैसला लेने वाला शख्स जितना ताकतवर होगा उसके फैसले का प्रभाव उतना ज्यादा होगा। अब ये तो फैसले पर डिपेंड करता है कि वो अच्छा है या बुरा। अगर अच्छा फैसला होगा तो उसकी सराहना की जाएगी और फैसला बुरा हुआ तो उसका खामियाजा भुगतना होगा। केरल के राज्यपाल ने कहा है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कुछ फैसले ऐसे हुए, जिनके कारण आज भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। उसमें से सबसे अहम हैं। पहला मामला भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी की किताब ‘द सेटेनिक वर्सेज’ को प्रतिबंधित करना। दूसरा फैसला शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट देना।
रुश्दी से 33 साल बाद बदला
भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी न्यूयॉर्क में जिंदगी मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं। एक कार्यक्रम के दौरान मंच पर पहुंचकर उनपर चाकुओं से कई वार किए गए। रुश्दी खून से लतपथ वहीं पर गिर पड़े। 1988 में सलमान रुश्दी की किताब ‘सटेनिक वर्सेज’का विमोचन हुआ था। लेकिन तभी भारत में इस किताब पर बैन लगा दिया गया था। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने इस किताब पर बैन लगाने का आदेश दिया। इस फैसले ने रुश्दी को बहुत दुख पहुंचाया। दुनिया में भारत पहला देश था जिसने इस किताब पर बैन लगाया था, इसके बाद कई इस्लामिक देशों ने बैन लगाया। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत की। इस दौरान उन्होंने इन सभी फैसलों को देश के खिलाफ और वोटबैंक के लिए किए गए फैसले करार दिया।
मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के कट्टर पैरोकार आरिफ मोहम्मद खान ने शाह बानो के आदेश के बाद राजीव गांधी की सरकार ने जो कार्रवाई की उससे आहत होकर सरकार से इस्तीफा दे दिया था। मोहम्मद आरिफ खान ने कहा, ‘राजीव गांधी सरकार में हुई तीनों घटनाओं के बारे में विस्तार से लिखा और बोला है। यह दिलचस्प है कि भारत दुनिया का पहला देश था जिसने इस किताब पर प्रतिबंध लगाया था। अगले दिन पाकिस्तान में विरोध मार्च निकाला गया और इस आधार पर गुस्सा दिखाया गया कि भारत ने कार्रवाई की, लेकिन पाकिस्तान की मुस्लिम सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। पहले दिन ही 10 से ज्यादा लोगों की जान चली गई और करोड़ों की संपत्ति जल गई। बाद में मुस्लिम देश आपस में प्रतिस्पर्धा करने लगे और ईरान का फतवा आ गया।’
उन्होंने आगे कहा, ‘करीब तीन महीने बाद संसद में मेरे सवाल के जवाब में सरकार ने जवाब दिया कि बैन के बाद किताब की एक भी कॉपी जब्त नहीं हुई है। दरअसल, बैन के बाद किताब की रिकॉर्ड बिक्री हुई थी। यह भी दिलचस्प है कि सैयद शहाबुद्दीन, जिन्होंने शाह बानो के फैसले को उलटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वही व्यक्ति थे जिन्होंने प्रतिबंध की मांग करते हुए राजीव गांधी को पत्र लिखा था और वह तुरंत बाध्य थे। शहाबुद्दीन ने बाद में स्वयं स्वीकार किया कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पुस्तक नहीं पढ़ी थी और कुछ समाचार रिपोर्टों के आधार पर प्रतिबंध की मांग की गई थी।’
इद्दत की मुद्दत एक तरह का वेटिंग पीरियड है ताकि इस दौरान तलाकशुदा महिला चाहे तो दूसरी शादी कर सके। मैजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक शाह बानो के पक्ष में फैसला आया। खान ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। दलील दी गई कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की जिस धारा 125 के तहत गुजारे-भत्ते की मांग की गई है वह मुस्लिमों पर लागू ही नहीं होती क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा मामला है। मामला 5 जजों की संविधान पीठ में पहुंच गया। आखिरकार, 23 अप्रैल 1985 को तत्कालीन सीजेआई वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को आदेश दिया कि वह शाह बानो को हर महीने भरण-पोषण के लिए 179.20 रुपये दिया करेंगे।
शाह बानो मामले में समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तिलमिला गया। तिलमिलाए भी क्यों न, उसका तो पूरा वजूद ही खतरे में था। फिर क्या था, मुस्लिम कट्टरपंथियों ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को इस्लामी मामलों में दखल बता विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। यह विडंबना ही थी कि लेफ्ट दलों को छोड़कर सेकुलर कहे जाने वाली कमोबेश हर पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के एक सेकुलर फैसले का विरोध किया। शुरुआत में लगा कि राजीव गांधी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ है। 23 अगस्त 1985 को लोकसभा में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए दमदार भाषण भी दिया। लेकिन सालभर के भीतर ही मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के आगे राजीव गांधी सरकार ने घुटने टेक दिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 पारित कर दिया। कानून के विरोध में आरिफ मोहम्मद खान ने राजीव गांधी मंत्रिपरिषद के साथ-साथ कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। शाह बानो अदालती लड़ाई जीतने के बाद भी हार गईं। राजनीति ने उन्हें हरा दिया। कट्टरपंथियों के आगे राजीव गांधी सरकार के सरेंडर ने उन्हें हरा दिया। 6 साल बाद 1992 में ब्रेन हेमरेज से उनकी मौत हो गई।