चीन अभी भी भारत से द्वेष रखता है! 2024 के मध्य में जब पांच साल का चुनावी चक्र खत्म होगा, तो भारत सरकार अपनी नई नीतिगत प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करेगी, जिसमें चीन भी शामिल है। चीन हमारी सीमा पर स्थित एक शक्तिशाली देश है। चीन के विशेषज्ञ रिचर्ड मैकग्रेगर ने हाल ही में इस बात पर जोर दिया कि चीन अपनी धीमी अर्थव्यवस्था के बावजूद वैश्विक विनिर्माण में एक प्रमुख खिलाड़ी बना हुआ है और वह आने वाले दशकों तक एक रणनीतिक शक्ति बना रहेगा। चीन पर नई नीति तैयार करने में चार बातों पर गौर करना जरूरी होगा। 1988 से दोनों देशों का स्थापित द्विपक्षीय ढांचा 2019 में चीन की तरफ से बुनियादी समझ के घोर उल्लंघन के कारण टूट गया है। 1988 का समझौता कहता है कि कोई भी पक्ष यथास्थिति को बदलने के लिए बलप्रयोग या धमकियों का सहारा नहीं लेगा। 2013 से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की तरफ से ग्रे-जोन वॉरफेयर में वृद्धि, जून 2020 में गलवान घाटी में दुखद संघर्ष में परिणत हुई, जिससे दोनों देशों को सीमा पर भारी सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ गई। यह स्पष्ट नहीं है कि चीन अपने ग्रे-जोन वॉरफेयर को कम करने और रिश्ते में स्थिरता बहाल करने को तैयार है या नहीं। जब तक चीन विश्वास बहाली के लिए ठोस कदम नहीं उठाता है, तब तक यही स्थिति एक नए द्विपक्षीय ढांचे को आकार देने में न्यू नॉर्मल बन सकती है।
चीन गलवान हिंसा के बाद भी भारत को इतिहास के नजरिए से ही देख रहा है। चीन, भारत के साथ समान शर्तों पर जुड़ने को तैयार नहीं दिख रहा है, विदेश नीति में भारत की स्वतंत्र एजेंसी को कम आंकता है और मानता है कि भारत, चीन के प्रति द्वेष से प्रेरित होकर ही किसी भी देश के साथ कोई भी साझेदारी करता है। भारत को अन्य देशों के साथ गठबंधन करने से रोकने के प्रयास में चीन लगातार दबावपूर्ण रणनीति अपना रहा है। हालांकि, इतिहास ने दिखाया है कि ऐसी रणनीति भारत को वश में करने या अन्य देशों के साथ साझेदारी करने से रोकने में सफल नहीं रही है। यह स्पष्ट नहीं है कि चीन अपना नजरिया बदलकर भारत के साथ समानता के आधार पर एक नया द्विपक्षीय ढांचा स्थापित करने को तैयार है या नहीं।यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि क्या चीन के प्रति बदलती वैश्विक और क्षेत्रीय धारणाएं उसे थोड़ी उदारता अपनाने को मजबूर कर पाएंगी। इस बारे में बहस चल रही है कि क्या चीन अपने चरम पर पहुंच गया है या सिर्फ तात्कालिक मुश्किलों का सामना कर रहा है। कुछ भी हो, महामारी के बाद चीन के प्रति वैश्विक धारणाएं बदली तो हैं। अमेरिका में चीन के प्रति रवैया सख्त होता जा रहा है। पश्चिमी देशों के तकनीकी प्रतिबंध चीन को प्रभावित कर रहे हैं। यूरोपीय देश कम करने के लिए भले ही अमेरिका जितना उत्साहित न हों, लेकिन उनकी कंपनियां भी चीन में नए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एफडीआई को कम कर रही हैं।
मूल रूप से, महामारी के दौरान चीन ने आवश्यक उत्पादों की आपूर्ति को मानवीय सोच की बजाय व्यापारिक लाभ के तौर पर देखा जिससे अंतरराष्ट्रीय जगत में चिंता पैदा हो गई है कि वैश्विक संकट के दौरान चीन पर कितना भरोसा किया जा सकता है। चीन के पड़ोसी देश उसके व्यवहार को लेकर अधिक सतर्क हैं और इसलिए अपने रिश्तों के भविष्य को लेकर कम आशावादी हैं।
चीनी अर्थव्यवस्था कई ढांचागत समस्याओं का सामना कर रही है। जनसंख्या संबंधी लाभ घटने लगा है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लगातार भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के बावजूद, अचानक कोविड नीति में बदलाव और चीन की सेना में उच्चतम स्तरों पर भ्रष्टाचार का सामने आना, राजनीतिक तंत्र पर उनके पूर्ण नियंत्रण पर सवाल खड़ा करता है। हालांकि जैसा कि मैकग्रेगर ने कहा, चीन भले ही बौना नहीं हो गया, लेकिन उसे अब विशालकाय भी नहीं माना जा सकता है। चीनी नेतृत्व अंतरराष्ट्रीय धारणा में बदलाव से अवगत है। उसके लिए स्थितरता कम हो रही है और कमजोरियां बढ़ रही हैं। उनका नेतृत्व उन राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों की जटिलता को स्वीकार करता है जिनका वे सामना कर रहे हैं।
हाल ही में फॉरेन पॉलिसी में प्रकाशित एक लेख में हैल ब्रैंड्स और माइकल बेक्ली कहते हैं कि जब अनुकूल अल्पकालिक सैन्य संभावनाएं, निराशाजनक दीर्घकालिक रणनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से मेल खाती हैं, तो चीन जैसी संशोधनवादी शक्तियां युद्ध का रास्ता अपनाने में भी भलाई समझती हैं। महामारी के बाद चीन दूसरों के प्रति अधिक आक्रामक या सौहार्दपूर्ण बनेगा, इसका सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता है।
अंत में, 2024 में चीन किस रास्ते पर आगे बढ़ेगा, यह नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अनिश्चित परिणाम के बाद ही समझ में आने लगेगा। एक अमेरिकी दृष्टिकोण यह है कि फिलहाल का संबंध एक अस्थायी संतुलन में है, जहां मुद्दों का समाधान नहीं हो पाया है। राष्ट्रपति बाइडेन और ट्रम्प, दोनों ने व्यापक रूप से अमेरिका के लिए चीन की रणनीतिक चुनौती को रेखांकित किया है, लेकिन नीतिगत विवरणों पर कोई द्विदलीय आम सहमति नहीं है। राष्ट्रपति पद की दौड़ में कौन जीतेगा, साथ ही नवंबर के बाद अमेरिकी नीति क्या होगी, इस पर स्पष्टता का अभाव उनकी चिंताओं को बढ़ा रहा है।
बाइडेन और ट्रम्प में से कोई जीतें, नवंबर के बाद भारत-अमेरिका साझेदारी सकारात्मक रास्तों पर चलती रहेगी। सवाल यह है कि क्या चीन इस तथ्य के परे यह देख पा रहा है कि भारत बदल रहा है और इसे अतीत के नजरिए से नहीं देखा जा सकता है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आम चुनाव हो रहे हैं, जिसके लिए हमारी सीमाओं पर सतर्कता जरूरी है। अगले कुछ महीनों में जोखिम प्रबंधन सबसे अहम रहेगा। हालांकि, चुनाव खत्म होने के बाद दोनों देशों के लिए सामान्य संबंधों को फिर से बनाने के तरीकों पर विचार करना समझदारी भरा हो सकता है। दो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं और परमाणु हथियार संपन्न पड़ोसियों के बीच संबंध अनिश्चित काल तक मौजूदा स्थिति में नहीं रह सकते। भारत सरकार ने एलएसी पर चीन के दबावपूर्ण व्यवहार से निपटने में अपना संकल्प सही तरीके से दिखाया है। भविष्य में वह बिना किसी ढिलाई के उचित बातीचत के अवसरों पर विचार कर सकती है। खुली बातचीत और निवारण आगे का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।