यह सवाल उठना लाजिमी है कि पाकिस्तान में नई सरकार बनने से भारत को फायदा होगा या नुकसान! पाकिस्तान में आम चुनाव हुए। पिछली बार हुई स्थिति के उलट इमरान खान जेल में हैं और अदालतें उनके खिलाफ कई मामलों में फैसला सुना चुकी हैं। उधर, निर्वासन से वापस आए नवाज शरीफ को अब पाकिस्तानी सेना का पूरा समर्थन है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह चुनाव लोकतंत्र का एक सुनियोजित नाटक है, जहां रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय सूत्रधार की भूमिका में है। आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर ने अपने पत्ते अच्छे से खेले हैं, अपनी स्थिति और ताकत मजबूत की है और अब उम्मीद कर रहे हैं कि पाकिस्तानी उनका नेतृत्व स्वीकार कर नवाज शरीफ की जीत का मार्ग प्रशस्त करेंगे। मुनीर अब नवाज को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों के तहत पाकिस्तान के आर्थिक सुधार का नेतृत्व करने के लिए समर्थन दे रहे हैं। इमरान को कई कारणों से दरकिनार कर दिया गया है। हालांकि, पूरी संभावना है कि पाकिस्तान के इस उभरते परिदृश्य में नवाज की पीएमएल-एन और जरदारी-भुट्टो की पीपीपी के बीच संभावित गठबंधन की सरकार भी बन सकती है। यह स्थिति मुनीर के लिए बिल्कुल अनुकूल होगी क्योंकि स्पष्ट बहुमत के अभाव में यह नवाज की शक्ति को संतुलित करेगा। पाकिस्तानी सेना इन दो राजनीतिक ताकतों के बीच शक्ति संतुलन के खेल में खूब आनंद उठाएगी।
भारत में कुछ लोग पूछ रहे हैं कि क्या पाकिस्तान में आने वाली नई सरकार के मद्देनजर नई दिल्ली को कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है? क्या हमें एक बार फिर पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने की जरूरत है? हालांकि, हमें भारत और पाकिस्तान के बीच शक्ति संतुलन पर नजर रखनी चाहिए लेकिन आज की अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति पर भी काफी गौर करना पड़ेगा। भारत की शक्ति पाकिस्तान से कहीं अधिक है। राष्ट्रीय शक्ति के त्वरित लेकिन कुशल माप के रूप में जीडीपी के पैमाने पर आंकें तो भारत पाकिस्तान से कम से कम 10 गुना अधिक शक्तिशाली है। इसके अलावा, हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने पत्ते अच्छे से खेले हैं और आज हमें जियो पॉलिटिक्स में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में देखा जाता है, जिसमें ग्लोबल साउथ के नेता की पहचान पाने की हमारी बड़ी उपलब्धि भी शामिल है। उधर, पाकिस्तान की दयनीय आर्थिक स्थिति इसे एक कमजोर खिलाड़ी बनाती है।
क्षेत्रीय स्तर पर हमने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए हैं, जो पाकिस्तान की तुलना में भारत के साथ अपने रिश्ते में कहीं अधिक फायदा देखते हैं। इसके अलावा, हमारे अमेरिका और रूस, दोनों के साथ संबंध अटूट हैं। फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसी अन्य मध्य शक्तियों के साथ हमारी उत्कृष्ट रणनीतिक साझेदारी है। इसलिए, नई दिल्ली को पाकिस्तान के संबंध में पहला कदम उठाने का कोई दायित्व नहीं है। पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य करने की इच्छा का संकेत देने की कोई जरूरत नहीं है। हमें अपनी वर्तमान नीति से पीछे हटने की जरूरत नहीं है जो कहती है कि बातचीत और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। हमें इस्लामाबाद से सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की मांग पर अड़े रहना चाहिए। वास्तव में, नई दिल्ली को क्रिकेट या बॉलीवुड फिल्मों सहित लोगों के बीच आदान-प्रदान को प्रोत्साहित नहीं करने की अपनी नीति जारी रखनी चाहिए। भारत को पाकिस्तान से संकेत का इंतजार करना चाहिए कि क्या वे रिश्ते सुधारना चाहते हैं। अगर इस्लामाबाद ऐसा संकेत देता है तो हमें भी तैयार रहना चाहिए। अगर वह दूतावासों को फिर से स्थापित करने का सुझाव देता है तो हमें सहमत होना चाहिए। पाकिस्तान के इस उभरते परिदृश्य में नवाज की पीएमएल-एन और जरदारी-भुट्टो की पीपीपी के बीच संभावित गठबंधन की सरकार भी बन सकती है। यह स्थिति मुनीर के लिए बिल्कुल अनुकूल होगी क्योंकि स्पष्ट बहुमत के अभाव में यह नवाज की शक्ति को संतुलित करेगा। पाकिस्तानी सेना इन दो राजनीतिक ताकतों के बीच शक्ति संतुलन के खेल में खूब आनंद उठाएगी।यह दोनों सरकारों के बीच संवाद का अहम जरिया है। इसी तरह, अगर पाकिस्तान कुछ चुनिंदा सामानों के व्यापार की इच्छा दिखाता है तो हम इसे भी स्वीकार कर सकते हैं। जिसमें ग्लोबल साउथ के नेता की पहचान पाने की हमारी बड़ी उपलब्धि भी शामिल है। उधर, पाकिस्तान की दयनीय आर्थिक स्थिति इसे एक कमजोर खिलाड़ी बनाती है।दोनों देशों को इससे फायदा होगा। भले ही वे एमएफएन का दर्जा न दें, फिर भी कम मात्रा में सामानों के व्यापार से शुरुआत की जा सकती है।