यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या न्याय प्रणाली में सुधार देश की आवश्यकता है या नहीं! भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अगले दशकों में इसमें और भी महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलेंगे। इसके लिए पूरी तरह दक्ष कानूनी व्यवस्था की जरूरत है। इसके बजाय हमारे पास ऐसा सिस्टम है जो धीमी और अक्षम है। दिसंबर 2023 तक 25 उच्च न्यायालयों में 61 लाख से अधिक मामले लंबित थे और अधीनस्थ न्यायालयों में 4.4 करोड़ से अधिक। चुनौती यह है कि हमारी बड़ी आबादी एक बड़े केसलोड में तब्दील हो सकती है। इसलिए, केवल कठोर निर्णय और एक क्रांतिकारी सोच ही हमारा उद्देश्य पूरा कर सकता है। किसी लीगल सिस्टम के दो महत्वपूर्ण भाग होते हैं- बार और बेंच। न्यायिक सुधार पर चर्चा अक्सर केवल बेंच पर केंद्रित होती है, वकीलों की उपेक्षा की जाती है। जरूरी है कि दोनों पहलुओं पर ध्यान दिया जाए। सरकार ने प्रशासनिक न्यायाधिकरणों जैसे कि राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण और कर न्यायाधिकरण एवं लोक अदालत जैसे मंचों के जरिए अतिरिक्त क्षमता का निर्माण किया है और अदालती कार्यभार को कम किया है। इसी तरह, बार से अस्थायी आधार पर वकीलों की भर्ती करके और विशेष न्यायाधिकरणों को बढ़ावा देकर अतिरिक्त क्षमता का निर्माण किया जा सकता है।
लंबित मामलों की सबसे बड़ी संख्या सरकार या सरकार समर्थित उद्यमों से संबंधित है। पिछले मामलों में पहले से तय किए गए कानूनी बिंदुओं पर भी मुकदमेबाजी थमती नहीं है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में भी बताया है। इससे संसाधनों की बर्बादी होती है और लागत बढ़ती है। यदि सरकारी विभाग केवल आवश्यक मुकदमे ही करें तो बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। इसके लिए अधिकारियों को जवाबदेह ठहराए जाने और मुकदमेबाजी शुरू होने से पहले उसके गुण-दोष परखने के लिए एक समिति गठित किए जाने की जरूरत होगी।
यूके में कमर्शियल मैटर्स में एक प्रॉसेस हियरिंग भी शामिल होती है, जिसमें प्रत्येक पक्ष प्रत्येक चरण के लिए समय और तारीख बताता है। भारत को भी ऐसी ही प्रक्रिया अपनानी चाहिए। यहां भी किसी मामले की शुरुआत में प्रॉसेस हियरिंग में प्रत्येक चरण के लिए निश्चित समयसीमा तय की जानी चाहिए। तय समयसीमा का पालन न करने से वादी और वकील, दोनों का खर्च बढ़ जाता है। सुनवाई के दौरान कोर्ट/ट्राइब्यूनल को यह भी आकलन करना चाहिए कि क्या मामले में वास्तव में लंबी सुनवाई की आवश्यकता है। यदि नहीं, तो दस्तावेजों या मौखिक तर्कों के आधार पर मामले का फैसला करें।
मुकदमेबाजी की लागतों को पहले से ही निर्धारित किया जाना चाहिए। खर्च कितना होगा, यह उचित और महत्वपूर्ण होनी चाहिए। न्यायालयों और मध्यस्थ न्यायाधिकरणों को ‘खर्चे’ के लिए सिक्यॉरिटी मनी तय करना चाहिए और भुगतान न करने को अवमानना माना जाना चाहिए। मामले की शुरुआती जांच-परख के बाद न्यायालय/न्यायाधिकरण को यह भी तय करना चाहिए कि क्या किसी भी पक्ष को अकेले पूरा खर्च उठाना चाहिए। रिकवरी के मामलों में बैंक दरों की दर से चक्रवृद्धि ब्याज के साथ-साथ कानूनी खर्चे की वसूली भी जरूर होनी चाहिए। उन्हें पारदर्शिता और जवाबदेही की तत्काल आवश्यकता है। चूंकि व्यक्तिगत आधार पर तारीख पर तारीख मांगना आम हो गया है, इसलिए धोखाधड़ी भी सामान्य बात हो गई है। अदालतों में ऐसी दलीलें दी जाती हैं जिसका कोई आधार नहीं होता है, और कोई प्रासंगिक अनुभव न होने के बावजूद मामले उठाए जाते हैं। वकीलों को एक मजबूत अनुशासनात्मक निकाय की आवश्यकता है जो उन्हें किसी भी लापरवाही, अनैतिक प्रथाओं, देरी की रणनीति और सामान्य रूप से बुरे व्यवहार के लिए जवाबदेह ठहराए। इसमें स्वतंत्र और निष्पक्ष सदस्यों को शामिल किया जाना चाहिए।
मामले ठीक से निपटाएं जाएं, इसके लिए जजों के बेहतर प्रशिक्षण की जरूरत है। उन्हें उनके प्रशिक्षण, विषय वस्तु के ज्ञान और अनुभव के आधार पर मामले भी सौंपे जाने चाहिए। अभी बहुत से कमर्शियल मैटर्स की सुनवाई ऐसे जज करते हैं जिनके पास कोई संबंधित अनुभव नहीं होता। मामलों की एक सेंट्रलाइज्ड रजिस्ट्री बनाएं जो प्रतिपक्षियों के साथ व्यवहार में क्रेडिट रिस्क का उचित मूल्यांकन करने में सक्षम बनाती है। यह पारदर्शिता आदतन मुकदमेबाजों को वाहियात मुकदमेबाजी करने से रोक सकती है।
भारत की न्यायिक प्रणाली की अक्सर इसकी लेटलतीफी और अक्षमताओं के लिए आलोचना की जाती है। देश को वैश्विक मंच पर अपनी जगह सुरक्षित रखने के लिए कानून के शासन में समय की प्रतिबद्धता जरूरी है। न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।