यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हथियारों की खरीदारी से देश में गरीबी बढ़ती है या नहीं! 1960 के दशक की बात है, जब अमेरिका वियतनाम युद्ध में अपनी नाक बचाने के लिए लड़ रहा था। सैन्य खर्चों और हथियारों समेत साजोसामान पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा था। उस वक्त अमेरिका में द ग्रेट सोसायटी प्रोग्राम की शुरुआत की गई, जिसका मकसद था देश को गरीबी से निजात दिलाना। दरअसल, जॉन एफ केनेडी के बाद नए नवेले राष्ट्रपति बने लिंडन बी जॉनसन के सामने बड़ी चुनौती यह थी कि देश को गरीबी से कैसे उबारा जाए।उन्होंने 1965 में इसी प्रोग्राम की शुरुआत की। यही नारा उन्होंने चुनाव के वक्त दिया था जो लोगों में काफी पॉपुलर भी रहा और जॉनसन अमेरिकी इतिहास में करीब 1.5 करोड़ के अंतर से चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने। दरअसल, युद्धों ने अमेरिका को तबाह कर दिया था, जिसका नतीजा बाद में 1974 में यह रहा कि वहां पर मंदी आ गई। सैन्य खर्चों ने अमेरिका जैसे पूंजीपति देश को गरीबी में धकेल दिया। इसके बाद इससे उबरने के लिए अमेरिकी सरकारों ने कई प्रोग्राम चलाए। अगर आपसे ये सवाल पूछा जाए कि देश से गरीबी दूर करने की जरूरत है या हथियार खरीदने में पैसे लगाए जाएं। कुछ लोगों का जवाब ये हो सकता है कि देश की ताकत बढ़ाने के लिए हथियारों की खरीद जरूरी है। वहीं कुछ लोग यह कह सकते हैं कि गरीबी जैसी बड़ी चुनौती से पार पाने के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का ज्यादा हिस्सा खर्च होना चाहिए। चलिए-इस बहस को यहीं छोड़ते हैं और एक रिपोर्ट जानते हैं। दरअसल, भारत सैन्य पर पैसे खर्च करने के मामले में अमेरिका, चीन और रूस के बाद दुनिया में चौथा सबसे बड़ा देश बन चुका है। बीते साल भारत का सैन्य बजट पर 83.6 बिलियन डॉलर यानी करीब 6.9 लाख करोड़ रुपए रहा। दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर राजीव रंजन गिरि कहते हैं कि यह बहस अरसे से चली आ रही है। हालांकि, जीडीपी का जितना हिस्सा सैन्य खर्चों में जाता है, उससे काफी कम में गरीब आदमी के रहन-सहन, पढ़ाई-लिखाई पर खर्च किया जा सकता है। सरकार कोई भी हो, उसे लोगों के सामने यह दिखाना होता है कि उसका देश किसी से ताकत में कम नहीं है। यही वजह है कि ऐसे सैन्य खर्चों में बढ़ोतरी होती है। सरकारें गरीबी दूर करने पर भी खर्च करती हैं, मगर वह इतना मामूली होता है कि उससे गरीब भी बने रहते हैं और गरीबी भी कम नहीं होती। बस आंकड़ों में गरीबी कम होती जाती है।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की हाल में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने 2022 के मुकाबले सैन्य खर्चों में 4.2 फीसदी की बढ़ोतरी की। लद्दाख में सीमा पर तनाव के बाद से अपनी रक्षा क्षमताओं को बढ़ाने और सैन्य ढांचे को मजबूत करने के लिए यह बजट दिनोंदिन बढ़ रहा है। 2013 से अब तक भारत ने अपने सैन्य खर्चों में 47 फीसदी की बढ़ोतरी की है। अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू भी देख लेते हैं। भारत ने 2024-25 के लिए डिफेंस बजट को जो पैसे दिए हैं, वो देश के सकल घरेलू विकास यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) का 1.89 फीसदी बैठता है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की 2016 में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि भारत को गरीबी से निपटने के लिए हर साल अपनी कुल जीडीपी का 3.7% यानी 5.2 लाख करोड़ रुपए खर्च करने की जरूरत है। इसका मतलब यह है कि जितना भारत सैन्य खर्च कर रहा है, उससे कहीं कम देश से गरीबी दूर करने में मदद मिल सकती है।
अमेरिका की फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी में एरोल एंथनी हैंडरसन की एक रिसर्च छपी ‘मिलिट्री स्पेंडिंग एंड पॉवर्टी’। इस रिसर्च में कहा गया है कि सेना और साजो-सामान पर जितना ज्यादा खर्च होता है, गरीबी उतनी ही बढ़ती जाती है। हालांकि, युद्ध के समय सैन्य खर्चों में बढ़ोतरी से गरीबी में कमी आती है। शांतिकाल में सैन्य खर्चों में बढ़ोतरी से गरीबी में इजाफा होता है। SIPRI की हालिया रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में 2023 में सैन्य खर्च 2022 के मुकाबले 6.8 फीसदी बढ़कर 24.4 खरब डॉलर पर पहुंच गया। 2022 में यह सैन्य खर्च 22.4 खरब डॉलर था। यानी ये कहा जा सकता है भले ही हम सैन्य साजो-सामान पर बहुत ज्यादा खर्च कर रहे हैं, मगर दुनिया पहले के मुकाबले ज्यादा असुरक्षित महसूस कर रही है।
अगर इनकम से गरीब नापी जाए तो गरीबी रेखा मॉनीटरी इनकम की वह सीमा है, जिसमें कोई व्यक्ति जीवन जीने के लिए बुनियादी सुविधाएं हासिल करता है। विश्व बैंक ने कहा है कि औसतन जो व्यक्ति हर दिन करीब 180 रुपए से कम कमाता है, उसे गरीबी रेखा से नीचे माना जा सकता है। हालांकि, कई देशों में आर्थिक स्थिति के आधार पर बुनियादी जरूरतों के हिसाब से गरीबी रेखा अलग-अलग हो सकती है। भारत में गरीबी रेखा की सीमा शहरी क्षेत्रों के लिए 1,286 रुपए प्रति माह और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 1,059.42 रुपए प्रति माह तय की गई है।
ग्लोबल मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स के मुताबिक, 2006 से लेकर 2016 तक भारत ने गरीबी कम करने काफी सफलता पाई है। इन 10 साल में भारत ने 27 करोड़ से ज्यादा लोगों को गरीबी से उबारने में कामयाब रहा। इसी ग्लोबल MPI के मुताबिक 2020 तक भारत में करीब 26 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रह रहे थे, जो अब भारत जैसे देश के लिए टेंशन वाली बात है। नीति आयोग ने भी कहा है कि देश की करीब 25 फीसदी आबादी गरीबी में जी रही है। उसे रोटी-कपड़ा और मकान के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है।