हमेशा से अमेरिका भारत और ईरान के संबंधों के बीच आया ही है! ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी का रविवार को हेलीकॉप्टर हादसे में निधन हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुख प्रकट किया। इसके अलावा भारत में मंगलवार को एक दिनों का राजकीय शोक रहा। ये दोनों देशों के बीच घनिष्ठ संबंधों को दिखाता है। लेकिन ईरान के साथ संबंध हमेशा से इतने अच्छे नहीं रहे हैं। दोनों देशों के बीच के संबंध कई बार पश्चिम के दवाब के कारण भी खराब होते रहे हैं। साल 1950 में भारत और ईरान के राजनयिक संबंध स्थापित हुए। दशकों से दोनों देशों ने तेल पर आधारित घनिष्ठ आर्थिक और राजनीतिक संबंध बनाए हैं, जो आतंकवाद और पाकिस्तान पर साझा दृष्टिकोण है। लेकिन यह समझने के लिए कि आखिर दोनों के संबंधों में गलत क्या हुआ, हमें 2003 में हुए घटनाक्रमों को समझना पड़ेगा। साल 2003 में भारत और ईरान ने राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी की भारत यात्रा के दौरान दिल्ली घोषणा पर हस्ताक्षर हुए। बता दें कि जिसके दौरान तेहरान ने भारत को तेल की बिक्री बंद करने की धमकी दी। साल 2012 में यह समस्या गंभीर हो गई। अमेरिका और यूरोप के प्रतिबंध ईरान पर और भी सख्त हो गए। मई 2012 में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भारत की यात्रा के दौरान ईरान से तेल आयात में कटौती करने को कहा। 2013 में आयात में 15 फीसदी कटौती हुई। इसके मुताबिक दोनों पक्ष व्यापार को बढ़ावा देने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करेंगे। रक्षा सहयोग करेंगे और ईरान में निवेश के जरिए ऊर्जा संबंध गहरे होने पर ध्यान दें। लेकिन यह प्लान पटरी से उतर गया। इसका कारण ईरान का परमाणु हथियार कार्यक्रम था, जो 1990 के दशक के अंत में शुरू हुआ था।
ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने पश्चिमी देशों और अमेरिका का ध्यान अपनी ओर खींचा, जो परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने में लगे थे। साल 2004 में ईरान ने परमाणु गतिविधि को कम करने और पश्चिम के साथ तनाव कम करने के लिए एक समझौता किया। हालांकि 2005 में पश्चिम की ओर से ही बातचीत को खत्म कर दी गई, क्योंकि ईरान को अपनी एक फैसिलिटी में यूरेनियम बनाते हुए पाया गया था। अमेरिका ने प्रतिबंध भी लगाए। इससे साफ था कि ईरान के साथ भारत के संबंध मुश्किल में पड़ गए।
भारत के लिए यह एक संकट का समय था। क्योंकि वह ईरान के साथ संबंधों को गहरा बनाने में लगा था। वहीं दूसरी ओर अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील पर भी बातचीत कर रहा था। सितंबर 2005 में विदेश मंत्री ईरान की यात्रा पर गए। अमेरिकी अधिकारियों ने भारत को चेतावनी दी कि सिविल न्यूक्लियर डील को कांग्रेस अस्वीकार कर सकती है। इसके बाद भारत ने 2005 और 2006 में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) में ईरान के खिलाफ मदतान किया। भारत के लिए सिविल न्यूक्लियर डील ईरान की दोस्ती से ज्यादा महत्वपूर्ण थी। स्ट्रैटेजिक और रक्षा साझेदारी से जुड़ी समस्याओं के बावजूद भारत ने ईरान से अरबों डॉलर का तेल आयात किया।
अमेरिकी दबाव के बाद 2010 में ऊर्जा संबंधों पर असर पड़ा। ईरान को भारत तब तेल की पेमेंट नहीं कर पाया, जिसके दौरान तेहरान ने भारत को तेल की बिक्री बंद करने की धमकी दी। साल 2012 में यह समस्या गंभीर हो गई। अमेरिका और यूरोप के प्रतिबंध ईरान पर और भी सख्त हो गए। मई 2012 में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भारत की यात्रा के दौरान ईरान से तेल आयात में कटौती करने को कहा। हथियारों के प्रसार को रोकने में लगे थे। साल 2004 में ईरान ने परमाणु गतिविधि को कम करने और पश्चिम के साथ तनाव कम करने के लिए एक समझौता किया। हालांकि 2005 में पश्चिम की ओर से ही बातचीत को खत्म कर दी गई, क्योंकि ईरान को अपनी एक फैसिलिटी में यूरेनियम बनाते हुए पाया गया था। अमेरिका ने प्रतिबंध भी लगाए।2013 में आयात में 15 फीसदी कटौती हुई। अगले कई वर्षों तक आई समस्याओं के बाद भी भारत ईरान के संबंध नहीं टूटे। साल 2023 में भारत ने एससीओ में ईरान की एंट्री को मंजूरी दी।इसके विपरीत, नई दिल्ली ने परंपरागत रूप से अपने गुटनिरपेक्ष दृष्टिकोण के माध्यम से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा की है। दृष्टिकोण में यह अंतर खेल की गतिशीलता की अधिक परिष्कृत समझ की आवश्यकता को रेखांकित करता है। भारत और अमेरिका इस बात पर सहमत हुए हैं कि उनका सहयोग ‘वैश्विक भलाई’ के लिए होगा। इतना ही नहीं हाल ही में चाबहार बंदरगाह को लेकर एक बड़ी डील भी की, जिसपर अमेरिका प्रतिबंधों की धमकी दे चुका है।