यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भारत के लिए महत्वपूर्ण बन चुका है! क्या मशीन या कंप्यूटर आधारित कृत्रिम बुद्धिमत्ता या आर्टिफिशल इंटेलिजेंस निकट भविष्य में मानवीय बुद्धिमत्ता के करीब पहुंच जाएगी या उसे पीछे छोड़ देगी? यह सवाल इन दिनों ड्रॉइंग रूम की चर्चाओं से लेकर बड़ी टेक्नॉलजी कंपनियों के बोर्डरूम और नीति-निर्माताओं के बीच बहस का मुद्दा बना हुआ है। स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट फॉर ह्यूमन सेंटर्ड AI की ताजा रिपोर्ट- AI इंडेक्स, 2024 के मुताबिक, पिछले साल AI ने कई तरह के कामों – जैसे तस्वीरों के वर्गीकरण, दृश्य तार्किकता और अंग्रेजी भाषा की समझ – में मनुष्यों के प्रदर्शन के बेंचमार्क को पीछे छोड़ दिया, लेकिन कई ज्यादा जटिल कामों में वह मानवीय बुद्धिमत्ता से काफी पीछे है। ज्यादातर विशेषज्ञों का मानना है कि AI को मानवीय बुद्धिमत्ता के स्तर तक पहुंचने में अभी दशकों लगेंगे। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक, AI मानवीय बुद्धिमत्ता के स्तर पर कभी नहीं पहुंच पाएगी। इस मामले में भविष्यवाणी मुश्किल है। लेकिन AI की कारोबारी और रणनीतिक संभावनाओं के दोहन को लेकर अमीर देशों के साथ चीन और दुनिया की बड़ी टेक्नॉलजी कंपनियों में होड़ मची हुई है। इस होड़ को देखते हुए लगता है कि AI कुछ वर्षों में कई और मामलों में मानवीय बुद्धिमत्ता को टक्कर देने लगेगी।
विकसित देशों की सरकारें और बड़ी टेक कंपनियां AI रिसर्च पर अरबों डॉलर खर्च कर रही हैं। AI इंडेक्स रिपोर्ट के मुताबिक, बीते साल बिगड़ती वैश्विक आर्थिक स्थितियों के कारण AI रिसर्च में निजी निवेश में गिरावट आई। लेकिन जेनरेटिव AI में निजी निवेश 2022 की तुलना में आठ गुणा बढ़कर 2520 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया। बड़ी टेक कंपनियां अपने AI मॉडल को ट्रेनिंग देने पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं। उदाहरण के लिए, OpenAI ने ChatGPT-4 की ट्रेनिंग पर बीते साल 7.8 करोड़ डॉलर और गूगल ने जेमिनाय अल्ट्रा की ट्रेनिंग पर 19.1 करोड़ डॉलर खर्च किए।नतीजा यह कि एक बार फिर अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और चीन और पूर्वी एशिया (दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, जापान आदि) और उनकी बड़ी टेक कंपनियां AI रिसर्च, पेटेंट और नए मॉडल विकसित करने के मामले में बहुत आगे निकल गई हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश इस होड़ में एक बार फिर पिछड़ रहे हैं। AI इंडेक्स रिपोर्ट के अनुसार, 2022 तक AI से जुड़े कुल पेटेंटों में चीन और पूर्वी एशिया का हिस्सा 75.2%, उत्तर अमेरिका 21.2%, यूरोपीय संघ का हिस्सा 2.33% था। भारत के हिस्से कुल पेटेंटों का मात्र 0.23% आया है।
इसका मतलब यह नहीं कि चीन और पूर्वी एशिया के देशों ने AI के मामले में अमेरिका और यूरोपीय संघ का दबदबा तोड़ दिया है। पिछले साल जो महत्वपूर्ण AI मॉडल रिलीज हुए, उनमें 61 अमेरिका से, 21 यूरोपीय संघ के देशों से और 15 चीन से आए। इसी तरह अहम AI मॉडल के विकास में अमीर विकसित देशों की टेक कंपनियां आगे बनी हुई हैं। बीते साल इन कंपनियों ने 51 मशीन लर्निंग मॉडल विकसित किए, जबकि अकादमिक शोध संस्थाओं से 15 मॉडल और दोनों के सहयोग से 21 मॉडल तैयार हुए। भारत और दूसरे बड़े विकासशील देश और उनकी टेक कंपनियां इस दौड़ में पीछे छूट रही हैं। पिछले सप्ताह केंद्र सरकार के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार प्रो. अजय कुमार सूद ने माना कि भारत अगर अपना विज्ञान और अपनी तकनीक विकसित नहीं करता है तो वह अपेक्षित तेज आर्थिक वृद्धि दर हासिल नहीं कर पाएगा। उनके मुताबिक, भारत पहले कई महत्वपूर्ण तकनीकी विकास में पीछे रह गया, लेकिन वह AI, क्वांटम तकनीक और स्वच्छ ऊर्जा तकनीक आदि के मामले में ऐसा नहीं होने दे सकता।
यही नहीं, AI की रणनीतिक भूमिका को देखते हुए भी बड़े विकसित देश इसके शोध में भारी निवेश कर रहे हैं। इसलिए भारत को AI रिसर्च में न सिर्फ सार्वजनिक निवेश बढ़ाने पर जोर देना चाहिए बल्कि AI के रेग्युलेशन के मानक तय करने में भी अगुआई करनी चाहिए। उसे G20 प्लैटफॉर्म और अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर सुरक्षित और विश्वसनीय AI विकसित करने की मुहिम को आगे बढ़ाना चाहिए क्योंकि मुनाफे के लालच में AI के साथ जुड़े जोखिमों पर कम ध्यान दिया जा रहा है या उसे पूरी तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया खासकर जनमत और चुनावों को प्रभावित करने के लिए AI का इस्तेमाल करके डीप फेक ऑडियो और विडियो तैयार किए जा रहे हैं, जो चिंताजनक है। रिपोर्ट AI में निहित पूर्वाग्रहों और राजनीतिक-वैचारिक झुकावों की चर्चा भी करती है। यही नहीं, मतदाताओं की निगरानी की जा रही है और उनके मानसिक-भावनात्मक व्यवहार को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिशें बढ़ रही हैं। AI के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल और उसकी बढ़ती ताकत के मद्देनजर इन सवालों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।