यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वर्तमान में बीजेपी के कार्यकर्ताओं ने हार मान ली है या नहीं! क्या बीजेपी के पतन के दिन आ गए हैं? इसका कोई ठोस जवाब नहीं हो सकता, लेकिन परिस्थितियों, शीर्ष नेताओं के मिजाज, काम-काज के तौर-तरीके, चुनाव नतीजों पर प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण से फिलहाल तो संकेत पतन के ही दिख रहे हैं। जो बीजेपी फटाफट निर्णय लेने के लिए जानी जाती है, उसे क्या हो गया! 4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए, लेकिन क्या बीजेपी ने उम्मीद से कमतर प्रदर्शन पर कोई बड़ा फैसला लिया? यहां तक कि जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल 30 जून को ही खत्म हो गया, लेकिन 15 दिन बाद भी नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन तो दूर, चर्चा तक नहीं हो रही है! बीजेपी पार्टी विद डिफरेंस कहलाती थी, उस बीजेपी में वो सब देखने को मिल रहा है जिसके लिए कांग्रेस बदनाम हुआ करती थी- प्रदर्शन पर चाटुकारिता को तवज्जो। शीर्ष नेताओं की तरफ से पार्टी की हैंडलिंग में इस तरह की मनमर्जी हो रही है कि निराशा का भाव दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। लोकसभा से लेकर उप-चुनावों तक में तमाम नकारात्मक संकेतों के बावजूद दूसरी पार्टियों से नेताओं के बुलाकर अपने वर्षों के कार्यकर्ताओं, नेताओं को ठगा महसूस करवाने का चलन बदस्तूर जारी है। तो पार्टी अब अपने ही नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों की तरफ से भेजे जा रहे अलर्ट मेसेज को भी अनसुना कर रही है? लगता तो ऐसा ही है।
नरेंद्र मोदी को 2014 में देश ने प्रधानमंत्री के रूप में इसीलिए चुना था क्योंकि मनमोहन सिंह की छवि फैसले नहीं ले पाने वाले पीएम की हो गई थी। यह मतदाताओं को पसंद नहीं आया। मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरने के लिए धड़ाधड़ फैसले लिए- नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक। फिर मोदी ने पार्टी के उम्रदराज नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया, भ्रष्टाचार के आरोपी विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की। ये सभी नरेंद्र मोदी के एक मजबूत पीएम होने की छवि मजबूत करने में मददगार साबित हुए। नतीजा हुआ कि जनता ने दूसरी बार 2019 में ज्यादा सीटें देकर सत्ता में वापसी करवा दी। लेकिन अब पार्टी को मतदाता ही नहीं, अपने कार्यकर्ता और नेता भी खुलकर कह रहे हैं- जाग जाओ, वरना देर हो जाएगी।
अभी हुए विभिन्न राज्यों की 13 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणामों की व्याख्या ही कर लें। सात राज्यों की इन कुल 13 में से बीजेपी सिर्फ दो सीटें जीत पाई है। मतलब साफ है कि पार्टी कैडर और वोटरों में मायूसी का माहौल किसी एक इलाके तक सीमित नहीं है। ऐसा लगता है कि दूसरी पार्टियों से नेताओं को लाकर अपने ही कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने में बीजेपी रिकॉर्ड बनाना चाहती है। अब दिखने लगा है कि दशकों से पार्टी के लिए समर्पित नेताओं, कार्यकर्ताओं पर बाहरी नेताओं को प्राथमिकता दिए जाने से बीजेपी बहुत तेजी से गर्त में जा सकती है। लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र तक यही संकेत मिला। अब जब उप-चुनाव हुए तो बीजेपी कैडर और इसके समर्थकों ने साफ बता दिया कि पैराशूट कैंडिडेट्स किसी को रास नहीं आ रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी के टिकट पर उपचुनाव लड़ने वाले छह में से चार कैंडिडेट हार गए। यह पिछले महीने हुआ था। ताजा चुनाव में तीन निर्दलीय उम्मीदवारों ने बीजेपी के टिकट पर उम्मीदवारी हासिल की थी। उनमें दो बुरी तरह हारे और एक किसी तरह जीत सका। 2024 के लोकसभा चुनावों की ही बात करें तो दूसरी पार्टियों से आए उन 26 कैंडिडेट्स में 21 हार गए जिन्हें बीजेपी ने टिकट दिए थे। इन 26 ने 2024 में ही बीजेपी जॉइन की थी। वैसे 2014 से दूसरी पार्टियों से बीजेपी में आए कुल 110 नेताओं को इस बार पार्टी ने टिकट दिया था। इनमें 69 कैंडिडेट हार गए। साफ है कि मोदी को जिताने के लिए जनता आंखें मूंद लेने को अब तैयार नहीं है।
ऐसा नहीं है कि पार्टी नेता ये समझ नहीं रहे हैं। समझ रहे हैं और शीर्ष नेतृत्व को समझाने की कोशिश भी कर रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गोवा बीजेपी की कार्यसमिति की बैठक में साफ कहा कि हम पार्टी विद डिफरेंस हैं। हम भी अगर कांग्रेस की गलतियां करेंगे तो फिर उसे सत्ता से बाहर करके अपनी सरकार बनाने का क्या फायदा? हिमचाल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार खुद-ब-खुद गिरने वाली थी, लेकिन हमारी पार्टी बीजेपी ने हड़बड़ी कर दी और सब चौपट हो गया।
राजस्थान के मंत्री किरोड़ लाल मीणा ने मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा को कई पत्र लिखकर भ्रष्टाचार और सरकार के कामों में हीलाहवाली के प्रति सचेत किया। उचित सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। प. बंगाल के बीजेपी चीफ दिलीप घोष ने इस बात पर नाराजगी जताई कि शीर्ष नेतृत्व ने प्रदेश के नेताओं को आसान जीत वाली सीटों से हटाकर चुनौतीपूर्ण सीटों से टिकट दिए। नतीजा यह हुआ कि पहले से खराब रिजल्ट आए। उत्तर प्रदेश के बदलापुर विधायक रमेश चंद्र मिश्र ने कहा है कि प्रदेश में बीजेपी की हालत काफी गंभीर है और 2027 के विधानसभा चुनावों में जीत की कोई आस नहीं दिख रही है।
सवाल है कि क्या बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अपने ही नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों, मतदाताओं के लगातार भेजे जा रहे संदेशों को अब सुनेगा? संभव है कि नहीं सुने। ऐसा इसलिए क्योंकि वह वोट प्रतिशत के चश्मे से चुनावी नतीजों का विश्लेषण करना ठीक समझ रही है। उसे लगता है कि मतदाता अब भी पार्टी के साथ है, वरना वोट प्रतिशत में भारी गिरावट आती। क्या यह सच है? हां, हो सकता है। मतदाता आज भी बीजेपी से दूर नहीं गया हो, लेकिन उसकी मायूसी कब विरोध में बदल जाए, यह समझना बहुत कठिन नहीं है।