वर्तमान में कांग्रेस हरियाणा की हार नहीं सह पा रही है! हरियाणा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस नेताओं की ओर से इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया जा रहा है कि ऐसा कैसे हो गया। हार के कारणों को भी पार्टी स्वीकार नहीं कर पा रही है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस आलाकमान भी खामोश है लेकिन सवाल यह है कि क्या उसे पता नहीं कि आखिर हरियाणा में हुआ क्या। यह किसी एक राज्य की कहानी नहीं, ऐसा पूर्व में कुछ और राज्यों में भी हो चुका है। इसका खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ा है। गांधी परिवार को भी यह पता है और बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व कोई ओर से कोई बड़ा फैसला नहीं हो सका। हरियाणा के नतीजों को समझने के साथ ही बाकी राज्यों में जो हुआ उसे भी समझना जरूरी है। बता दें कि जनता सब समझती है। यदि किसी को ऐसा लगता है कि पब्लिक नहीं समझ रही तो ऐसा सोचना बेमानी है। हरियाणा चुनाव की घोषणा के साथ ही पूरे राज्य में ऐसी चर्चा थी कि कांग्रेस पार्टी के भीतर गुटबाजी है। पार्टी के भीतर दो गुट बताए गए लेकिन एक तीसरा गुट भी खामोशी से इंतजार कर रहा था। टिकटों के बंटवारे के बाद गुटबाजी और बढ़ गई। इन सबके बीच हरियाणा में यह मैसेज क्लियर चला गया कि पार्टी किस ओर आगे बढ़ रही है। कांग्रेस की ओर से भले ही किसी का नाम सीएम पद के लिए नहीं लिया गया लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा अघोषित दावेदार हो गए। इधर कुमारी शैलजा भी अपनी दावेदारी से पीछे नहीं हट रही थीं।
गांधी परिवार को भी इस बात का एहसास हुआ कि आखिर वहां हो क्या रहा है। इस बीच राहुल गांधी और प्रियंका चुनावी मंच से भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा को साथ दिखाने की कोशिश करते हैं। साथ दिखाने की कोशिश जो की गई वह पब्लिक के बीच वैसे ही गया और जनता भी इस बात को समझ रही थी कि कुछ तो बात है। इतना सब जानते हुए कांग्रेस आलाकमान की ओर से कोशिश जिस मंच से हुई वह काम नहीं आई। नतीजा अब सामने है। कारण कुछ और भी हो सकते हैं लेकिन पहले दिन से जिस बात को लेकर चर्चा थी उसकी चर्चा नतीजों के बाद भी है तो इसको आसानी से समझा जा सकता है।
पंजाब में कांग्रेस पहले ही हाथ जला चुकी थी। जिस नवजोत सिंह सिद्धू के लिए कैप्टन अमरिंदर को किनारे किया आज वह राजनीति में ही नहीं। कैप्टन भी बागी हो गए। यानी कांग्रेस के दोनों नेता साथ नहीं। नवजोत सिंह सिद्धू का राजनीति से ही मोहभंग हो गया वह वापस क्रिक्रेट कमेंट्री की दुनिया में लौट आए हैं। चुनाव से ठीक पहले चरणजीत सिंह चन्नी को आगे किया जाता है लेकिन सीएम के दावेदार को लेकर जंग जारी रही। चुनाव से पहले कभी सिद्धू दिल्ली आकर प्रियंका गांधी से मिलते तो कभी पंजाब में कोई और कुछ कहता। जब नतीजे आए तो कांग्रेस यहां चुनाव बुरी तरह हार जाती है। झगड़े पर कोई बड़ा फैसला पार्टी नहीं ले सकी और इसका खामियाजा उसे उठाना पड़ा।
राजस्थान में क्या हुआ यह पूरे देश ने देखा। अशोक गहलोत और पायलट के बीच झगड़ा इस कदर एक वक्त बढ़ गया कि मध्य प्रदेश की याद पार्टी को राजस्थान में आने लगी। हालांकि मामला तब शांत हो गया लेकिन आखिरी वक्त पार्टी दो खेमों में दिखाई दी। कुछ विधायक और मंत्री सचिन पायलट तो बाकी अशोक गहलोत के साथ दिखाई दिए। दोनों ओर से बयानबाजी होती रही। इस पूरे झगड़े के बीच कांग्रेस आलाकमान केवल पर्यवेक्षक-पर्यवेक्षक खेलते रहे। चुनाव के बाद जब नतीजे सामने आए तो आशंका सच्चाई में बदल चुकी थी। एक और राज्य इस झगड़े की भेंट चढ़ चुका था।
मध्य प्रदेश का झगड़ा किसी से नहीं छिपा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच जो कुछ चल रहा था उस पर गांधी परिवार मौन था। नतीजा यह हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी ही चुप्पी तोड़ दी और अब वह बीजेपी के साथ हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया की गिनती तब राहुल गांधी के बहुत करीबी नेताओं में हुआ करती थी। कांग्रेस पार्टी को इस झगड़े की बहुत बड़ी कीमत मध्य प्रदेश में चुकानी पड़ी। पार्टी टूट गई और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कई विधायक बीजेपी में आ गए। वहां की सरकार भी चली गई। पार्टी आलाकमान देखता रह गया। उसके बाद भी जो चुनाव हुए तब भी दो गुट दिखाई पड़ा। एक बार फिर सबकुछ कमलनाथ के हवाले था और जब नतीजे आए तो पार्टी उम्मीद के विपरीत सत्ता से दूर रह गई।
राजनीति में ऐसा नहीं होगा यह संभव नहीं, दूसरे दलों में भी होता है। पूर्व में भी हुआ है और आगे भी होगा। गुटबाजी कहां नहीं है। बीजेपी के अंदर भी है। लेकिन कांग्रेस को इसकी कीमत हाल के दिनों में अधिक चुकानी पड़ी है। कांग्रेस आलाकमान खासकर राहुल गांधी ऐसे झगड़ों पर कोई बड़ा फैसला क्यों नहीं कर पाते। लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी के पक्ष में जो माहौल बना था आखिर वह कैसे एक झटके में हिल गया। हरियाणा में जिस बात से डरकर किसी का नाम आगे नहीं बढ़ाया उसके बावजूद उसका कोई फायदा नहीं मिला। पार्टी या तो नाम मजबूती से आगे बढ़ाती या फिर मजबूती से इस बात को कहती कि चुनाव के बाद ही तय होगा। कोई तीसरा भी हो सकता है। लेकिन कांग्रेस पूर्व की तरह यहां भी देखती रही।
यह कहानी सिर्फ इन्हीं राज्यों की नहीं हिमाचल और कर्नाटक के अंदर भी क्या चल रहा है यह सबको पता है। बावजूद इसके कांग्रेस नेतृत्व खामोश है। कड़े और बड़े फैसले लेने से पार्टी क्यों हिचकती रही है और वह भी तब जब एक के बाद एक राज्य उसी झगड़े की भेंट चढ़ रहे हैं। हार स्वीकार नहीं करने से क्या बात बनेगी, पार्टी को इस ओर भी सोचने की जरूरत है।