कांग्रेस वर्तमान में 2004 वाली रणनीति पर काम कर रही है! लोकसभा चुनाव में महज कुछ दिनों का वक्त बचा है। लगभग सभी पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। ऐसा पहली बार हो रहा है जब लोकसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सबसे कम सीटों पर लड़ रही है। पुरानी कहावत ‘बीस साल बाद’ को दोहराते हुए कांग्रेस लोकसभा चुनाव में अपनी सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए कमर कस रही है। सोमवार को चुनाव की योजना की घोषणा करते हुए, इस कांग्रेस पार्टी ने 2004 के साथ तुलना की, जब उसने सहयोगियों के पक्ष में चुनाव लड़ने में कम उम्मीदवार उतारे और बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को सत्ता से हटा दिया था। उसे उम्मीद है कि 20 साल बाद कहानी खुद को दोहराएगी। कांग्रेस 2024 के चुनावों में लगभग 330 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। यह 2004 की तुलना में काफी कम है, जब उसने 417 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जो तब तक की सबसे कम संख्या थी। कांग्रेस के प्रवक्ता जयराम रमेश ने कहा कि इस बार महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में I.N.D.I.A गठबंधन के सहयोगियों को शामिल करने के लिए कांग्रेस ने कम उम्मीदवारे उतारे हैं। एनसीपी-शिवसेना, लेफ्ट और समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के कारण पार्टी इन राज्यों में पहले जितनी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही है।
जयराम रमेश ने कहा, ‘मेरे शब्दों पर गौर करें, 2004 में जो स्थिति थी, वही 2024 में भी है। हमने जानबूझकर इन तीन राज्यों में कम सीटें चुनी हैं, क्योंकि हम एक मजबूत और प्रभावी गठबंधन बनाना चाहते थे। कांग्रेस और I.N.D.I.A गठबंधन को इन चुनावों में स्पष्ट जनादेश मिलेगा। हमें किसी नई पार्टी की जरूरत नहीं होगी और एनडीए के उलटफेर करने वालों को फिर से पलटी नहीं खानी पड़ेगी।’ उन्होंने कहा कि इससे पूर्वोत्तर के सभी क्षेत्रीय दलों के लिए भाजपा को छोड़कर कांग्रेस का समर्थन करने का रास्ता भी तैयार हो जाएगा।
कांग्रेस के दावों के अलावा, पार्टी द्वारा चुनाव लड़ी जा रही सीटों की संख्या में भारी गिरावट 2014 के बाद उसके राजनीतिक हाशिए पर चले जाने और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के उदय का सीधा नतीजा है। पिछले 10 सालों में, कांग्रेस ने यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपनी जीत की संभावना में भारी गिरावट देखी है, जो कुल लोकसभा सीटों का 40% से अधिक हिस्सा हैं।
देश में बदले राजनीतिक समीकरणों ने कांग्रेस को सहयोगियों का विकल्प चुनने पर मजबूर कर दिया है। महाराष्ट्र में पार्टी की महत्वपूर्ण जागीरें छोड़ना और बिहार में अपनी पसंद की सीटें हासिल करने में विफलता इसकी कमजोर सौदेबाजी की ताकत के संकेत हैं। इस अवधि में नई क्षेत्रीय पार्टियों का उदय और पुराने स्थानीय संगठनों का मजबूत होना भी देखा गया है, जिससे भाजपा से मुकाबला करने के लिए इसके विकल्प और भी कम हो गए हैं। उदाहरण के लिए कांग्रेस आंध्र प्रदेश में 23 सीटों पर लड़ रही है, जबकि सीपीएम और सीपीआई के लिए एक-एक सीट छोड़ी गई है। लेकिन ये सभी आंकड़े काल्पनिक हैं, क्योंकि कांग्रेस के पास ऐसे राज्य में कोई मौका नहीं है जहां टीडीपी और सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी मुख्य पार्टियां हैं। कांग्रेस को अंदरूनी दबाव के बावजूद कोई सहयोगी नहीं मिल पाया।
कुछ महीने पहले तक कांग्रेस को उम्मीद थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उसने नवंबर 2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले I.N.D.I.A के सहयोगियों के साथ सीट बंटवारे पर बातचीत टाल दी थी। पार्टी के रणनीतिकारों को उम्मीद थी कि राज्य चुनावों में उसके प्रत्याशित अच्छे प्रदर्शन से – जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से था – उसकी टिकट बंटवारे के फॉम्युले की शक्ति बढ़ेगी और वह सहयोगियों के साथ अधिक सीटों के लिए डील कर सकती है। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ। उत्तरी राज्यों में कांग्रेस की हार ने आरजेडी, एनसीपी, शिवसेना (यूबीटी), एसपी, लेफ्ट आदि जैसे सहयोगियों के साथ उसकी स्थिति को कमजोर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप बिहार, महाराष्ट्र, यूपी और बंगाल में उसके लिए चुनाव लड़ने के लिए कम सीटें बचीं। पार्टी को दिल्ली, गुजरात और हरियाणा में आप के साथ भी हाथ मिलाना पड़ा।
हालांकि कांग्रेस का मानना है कि सहयोगी दलों के साथ हाथ मिलाना, जो उसके अनुसार भाजपा के साथ गठबंधन नहीं कर सकते – भगवा आर्मी के खिलाफ उसकी संभावनाओं को अधिकतम करने में सहायक रहा है। एक सीनियर अधिकारी ने कहा, ‘हमने बहुत सोच-समझकर त्याग किया है। क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण चुनाव है, न केवल विपक्ष के लिए बल्कि देश के लिए भी।’