वर्तमान में भारत चीन को जवाब देने का एक अनोखा तरीका अपना रहा है! लद्दाख में चीन यानी ड्रैगन को घेरने के लिए भारत ने बेहद खास प्लान तैयार किया है। डोकलाम गतिरोध के बाद भारतीय सेना लद्दाख में कोई कोताही नहीं बरतना चाहती है। इन इलाकों में ऊंचे-ऊंचे पहाड़, मौसम का कोई भरोसा नहीं होता। ऐसी जगह गश्त करना या सामान पहुंचाना काफी मुश्किल होता है। मशीनों से भी उम्मीद के मुताबिक सहयोग नहीं मिल पाता। ऐसे में सेना को गश्त के लिए और सामान पहुंचाने के लिए नए साथी की तलाश है। इस तलाश में दो कूबड़ वाले ऊंट अहम जरिया बनकर सामने आए हैं। लेह में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) का एक खास संस्थान है, डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई एल्टीट्यूड रिसर्च (DIHAR)। ये संस्थान इन जंगली ऊंटों को अपना साथी बनाकर बोझा ढोने वाले जानवरों के तौर पर तैयार करने में जुटा है। दो कूबड़ वाले इन ऊंटों को बैक्ट्रियन ऊंट भी कहा जाता है। बैक्ट्रियन ऊंट बहुत कठोर होते हैं। ये ऊंचाई पर भी आसानी से रह सकते हैं और लगभग दो हफ्ते तक बिना खाए-पिए भी रह सकते हैं। ये ऊंट 150 किलो से ज्यादा वजन उठा सकते हैं।
मध्य एशिया में इन्हें बोझा ढोने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। ठंडे और सूनसान वातावरण में भी ये 150 किलोग्राम से ज्यादा वजन आसानी से ले जा सकते हैं। लेह, लद्दाख में रिमाउंट वेटरनरी कॉर्प्स के कर्नल रविकांत शर्मा ने बताया कि प्राचीन काल में माल ढुलाई के लिए दो कूबड़ वाले ऊंटों का इस्तेमाल किया जाता था। हालांकि, भारत में इन्हें पालतू बनाने और आज्ञाकारी बनाने का जानकारी लगभग खो गई है। कर्नल शर्मा, जो DRDO के DIHAR का हिस्सा हैं, उन्होंने बताया कि सेना की रसद आपूर्ति, खासकर अंतिम छोर तक सामान पहुंचाने के लिए दो कूबड़ वाले ऊंट एक बेहतरीन विकल्प हैं। DRDO के वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ी इलाकों में रसद आपूर्ति करना किसी बुरे सपने से कम नहीं होता। लद्दाख में सड़कों के निर्माण ने परिवहन के विकल्पों को बढ़ाया है, लेकिन अंतिम छोर तक सामान पहुंचाने के लिए सैनिकों को अभी भी कुली और जानवरों पर निर्भर रहना पड़ता है। उनका कहना है कि पहाड़ी इलाकों में जानवरों ने रसद आपूर्ति में अपनी उपयोगिता साबित की है।
डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के मुताबिक, यहां ड्रोन, क्वाडकॉप्टर और ऑल-टेरेन व्हीकल (ATV) की क्षमता अभी तक पूरी तरह से साबित नहीं हो पाई है। ऊंचाई पर, तकनीकी विकल्पों का इस्तेमाल मौसम, पर्यावरण और भू-भाग पर निर्भर करता है। ऐसे में जानवरों से सहायता मिलने पर परिचालन क्षमता में वृद्धि होगी। 1999 के करगिल युद्ध के बाद से लद्दाख सेक्टर में जंस्कारी टट्टुओं का इस्तेमाल व्यापक रूप से किया जा रहा है। पूर्वी लद्दाख में, इसी उद्देश्य के लिए बैक्ट्रियन ऊंटों पर शुरुआती टेस्टिंग सफल रहे हैं। भारतीय सेना की उत्तरी कमान ने कहा कि दो कूबड़ वाले ऊंट पठारी इलाकों में रेतीले मैदानों में गश्त और सामान ढोने का एक नया और कारगर तरीका प्रदान कर सकते हैं। ऊंटों के इस्तेमाल से स्थानीय आबादी के लिए रोजगार के अवसर पैदा हो रहे। उनके संरक्षण के प्रयासों को भी बढ़ावा मिल रहा है।
कर्नल रविकांत शर्मा ने कहा कि दो कूबड़ वाले ऊंट को एक सैनिक के रूप में प्रशिक्षित करना, उसे पर्यटकों को सैर कराने के लिए प्रशिक्षित करने से बहुत अलग है। युद्ध के समय, जानवर को स्थिर रहना होता है। चारों ओर मशीनों की गड़गड़ाहट के बीच भी सभी आदेशों का पालन करना होता है। अत्यधिक ऊँचाई (15,000 फीट से अधिक) पर बोझा ढोने के लिए याक के इस्तेमाल पर भी परीक्षण किए जा रहे हैं। याक में देसी मवेशियों की तुलना में तीन गुना अधिक लाल रक्त कोशिकाएं होती हैं और उनके फेफड़े भी बड़े होते हैं। वे ऊंचाई पर 100 किलोग्राम तक भार ढोने के लिए पूरी तरह से अनुकूल होते हैं।
याक के घने बाल उन्हें माइनस 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में भी जीवित रहने में मदद करते हैं। वे 15,000 से 17,000 फीट की ऊंचाई पर चर सकते हैं।ऊंचाई पर भी आसानी से रह सकते हैं और लगभग दो हफ्ते तक बिना खाए-पिए भी रह सकते हैं। ये ऊंट 150 किलो से ज्यादा वजन उठा सकते हैं। इन जानवरों का इस्तेमाल आज के समय में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अगर दुश्मन जैमर का इस्तेमाल करता है तो ड्रोन और रोबोट उस समय काम करना बंद कर सकते हैं जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत हो।