Saturday, December 21, 2024
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क्या जमानत मिलने के बाद भी निगरानी रखना संवैधानिक है ?

यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या जमानत मिलने के बाद भी आरोपी पर निगरानी रखना संवैधानिक है या नहीं! एक शख्स को डकैती के झूठे आरोप में फंसा दिया जाए। सबूत नहीं हैं, फिर भी उसे ‘हिस्ट्रीशीटर’ घोषित कर दिया जाए। पुलिसवाले रात-रात भर उसके घर के दरवाजे पर दस्तक देते रहें। खड़क सिंह के साथ ऐसा ही हुआ था। 1962 में खड़क सिंह ने देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात को दस्तक देने के नियम को तो गलत माना, लेकिन निजता के अधिकार को लेकर कुछ खास नहीं कहा। कई दशक बीत गए। अब तकनीक ने बहुत तरक्की कर ली है। कुछ समय पहले दिल्ली में नाइजीरिया के नागरिक फ्रैंक विटस को जमानत पर छोड़ा गया था, लेकिन शर्त यह थी कि उसे अपनी लोकेशन पुलिस को बतानी होगी। मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने कहा कि यह गलत है। किसी को भी लगातार ट्रैक नहीं किया जा सकता। यह निजता के अधिकार का हनन है।

ये फैसले हमें बताते हैं कि हमारी निजी जिंदगी हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है और सरकार या पुलिस इसे छीन नहीं सकती। आज के दौर में, तकनीक की मदद से हमारी हर गतिविधि पर नजर रखना बहुत आसान हो गया है। इन फैसलों से हमें यह याद दिलाया जाता है कि तकनीक का इस्तेमाल करते हुए भी हमें अपने अधिकारों का ध्यान रखना चाहिए। फ्रैंक विटस मामले में सुप्रीम कोर्ट को चिंता थी कि जमानत आदेशों में ऐसी शर्तें किसी व्यक्ति को निरंतर निगरानी में रहने के लिए मजबूर करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभियुक्तों को निरंतर निगरानी में रखना असंवैधानिक है। ऐसा करने से संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए निजता के अधिकार और जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने तर्क दिया कि किसी व्यक्ति को ‘निरंतर निगरानी’ में रखना, उसे एक तरीके से कारावास में रखने के समान है।

भारत में निजता का अधिकार हमेशा से एक संघर्षपूर्ण विषय रहा है। स्वतंत्रता के बाद से ही इस अधिकार को लेकर कई बहसें होती रही हैं। पहले, हमारे देश के संविधान में निजता के अधिकार को सीधे तौर पर नहीं माना जाता था। लेकिन साल 2017 में एक बड़ा बदलाव आया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि निजता का अधिकार हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आने वाले जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक हिस्सा है। इससे पहले, खड़क सिंह जैसे मामलों में निजता के अधिकार को लेकर उतना महत्व नहीं दिया जाता था। लेकिन अब, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि हर व्यक्ति की निजी जिंदगी का सम्मान किया जाना चाहिए।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह निर्णय संविधान को एक जीवित दस्तावेज के रूप में मानने के स्थायी लाभों की समय पर याद दिलाता है जो वर्तमान चुनौतियों के लिए जीवित है। उस समय, किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि तकनीक का इस्तेमाल लोगों की निगरानी के लिए किया जाएगा। लेकिन हमारे संविधान के निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर इसे बनाया था। उन्होंने ऐसा ढांचा बनाया कि भविष्य में आने वाली किसी भी समस्या का समाधान संविधान के दायरे में ही मिल सके।

निजता का अधिकार, ये अधिकार हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से निकले हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि 1962 में खड़क सिंह ने जो चिंता व्यक्त की थी, वह आज भी काफी हद तक मौजूद है। जो बदलाव आया है, वह यह है कि अब इस चिंता को और अधिक गंभीरता से निपटाया जा सकता है। निजता का अधिकार निस्संदेह नई तकनीक के तरीकों से प्रभावित होता है। लेकिन जैसा कि फ्रैंक विटस के फैसले से हमें याद आता है, संविधान 21वीं सदी में तकनीकी प्रगति के विरोधाभासों से निपटने में सक्षम है। संविधान जीवित है।

बता दे कि सीबीआई की तरफ से गिरफ्तारी के लिए दिए गए आधार पर ही सवाल उठा दिया गया। जस्टिस भुइयां ने साफ कहा कि किसी भी आरोपी से जबरन अपने खिलाफ गवाही नहीं दिलवाई जा सकती है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत मौलिक अधिकार की तरफ इशारा किया और कहा कि यह आरोपी का अधिकार है कि पूछताछ में वो कुछ बोले या नहीं। उसकी चुप्पी का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता है कि आरोपी जांच में सहयोग नहीं कर रहा है या आरोप सही हैं। आइए जानते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 20(3) क्या है जिसका हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के सवालों पर अरविंद केजरीवाल की चुप्पी को जायज ठहराया।

संविधान के भाग तीन के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का वर्णन है। इन्हीं मौलिक अधिकारों में एक ‘अपराधों की दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण का अधिकार’ भी है जिसका वर्णन अनुच्छेद 20 में है। यह अनुच्छेद आपराधिक कार्यवाही में कुछ अधिकारों की रक्षा करता है। यह आत्म दोष, दोहरे खतरे और पूर्वव्यापी दंड के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। अनुच्छेद 20(3) में स्पष्ट कहा गया है, ‘किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को स्वयं के खिलाफ गवाही देने को मजबूर नहीं किया जा सकता है।’

इसका मतलब है कि किसी अपराध के आरोप में पूछताछ के वक्त आरोपी से उसके ऊपर लगे आरोपों को जबर्दस्ती नहीं मनवाया जा सकता है। संविधान के तहत हर नागरिक का यह अधिकार है कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से खारिज कर दे या फिर आंशिक रूप से स्वीकार करे या पूरी तरह स्वीकार कर ले। इतना ही नहीं, आरोपी अगर पूछताछ में कोई जवाब नहीं देना चाहता तो बिल्कुल चुप रह सकता है, उससे आरोप स्वीकार करवाना तो दूर, जबरन चुप्पी भी नहीं तुड़वाई जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के इसी अनुच्छेद का जिक्र कर कहा कि अरविंद केजरीवाल को सीबीआई इस आधार पर गिरफ्तार नहीं कर सकती है कि उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोप नहीं कबूले। जस्टिस उज्जल भुइयां ने कहा, ‘आरोपी की चुप्पी का कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। इस आलोक में याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी का जो आधार दिया गया है वह पूरी तरह अमान्य है। ऐसे आधारों पर ऐसे आधारों पर अपीलकर्ता को सीबीआई मामले में आगे भी हिरासत में रखना न्याय का मखौल होगा, खासकर तब, जब उसे पीएमएलए के अधिक कड़े प्रावधानों के तहत उन्हीं आरोपों पर पहले ही जमानत मिल चुकी है।’

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