क्या ईश्वर के नाम पर शपथ लेना सही है?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या ईश्वर के नाम पर शपथ लेना सही है या नहीं! सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं’ से पहले ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ आना चाहिए। यानी विकल्पों में ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान’ के ऊपर ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ को प्राथमिकता दिया जाना चाहिए। तभी पूर्वी पंजाब के प्रतिनिधि सरदार भूपेंद्र सिंह मान ने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने का विकल्प दिए जाने पर आपत्ति प्रकट की। उन्होंने अपनी सोच के पक्ष में लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा- श्रीमान मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, ‘संशोधनों पर संशोधनों की सूची (1) पांचवा सप्ताह के संशोधन संख्या 56 से 63 तक में, तृतीय अनुसूची में शपथ अथवा प्रतिज्ञान के प्रपत्र में से प्रस्तावित शब्दों में से, ईश्वर की शपथ लेता हूं, शब्द निकाल दिए जाएं। इस संशोधन को उपस्थित करने में मेरा उद्देश्य यह है कि शपथ लेने में ईश्वर का नाम नहीं लिया जाना चाहिए। सभा के समक्ष ईश्वर का नाम हटा देने का प्रस्ताव रखकर मैं ईश्वरत्व का विरोध नहीं कर रहा हूं। धार्मिक तथा नैतिक दृष्टि से तथा संविधान के महत्व को दृष्टि में रखकर भी मैं शपथ से ईश्वर का नाम हटा देने के लिये सभा से अनुरोध कर रहा हूं।

जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हम प्रायः यह शपथ लेते थे “ईश्वर की शपथ, यह सच है”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह नहीं करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, यह गलत है” इत्यादि, और हमारे अध्यापक तथा बड़े बूढ़े हमसे हमेशा कहते थे कि शपथ लेने की आदत अच्छी आदत नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता कि उस समय जो आदतें बुरी आदतें समझी जाती थीं वे अब हमारे बड़े होने पर अच्छी आदतें कैसे समझी जाने लगी हैं। अन्य प्रकार की शपथ लेना अच्छा नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से उसके घोषणा करने अथवा सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करने पर भी ईश्वर की शपथ लेने को कहा जाए तो वह कहेगा “मैं सच कहूंगा। आपको मेरा विश्वास करना चाहिये। इसकी आवश्यकता नहीं कि मैं ईश्वर की शपथ लूं।” मेरे विचार से किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अपमान करना है । श्रीमान, मेरा यह भी विचार है कि शपथ में ईश्वर का नाम लेकर ईश्वर का निरादर करना है। इसके अतिरिक्त मैं यह कह सकता हूं कि किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अविश्वास करना है।

श्री कामत के संशोधन के अधीन संविधान के खण्डों में कुछ स्थलों पर हम ईश्वर का नाम रख चुके हैं। हम शपथ के लिये भी ईश्वर के नाम को रख रहे हैं। कल आप उसके नाम को प्रस्तावना में भी स्थान देने जा रहे हैं। मुझे सन्देह है कि ईश्वर उसे पसंद करेगा या नहीं। आपके लिये यह उत्कृष्ट संविधान हो सकता है किन्तु सम्भव है कि ईश्वर इसे पसंद न करे। सम्भव है वह इस संविधान में अपना नाम रखवाना ही न चाहे। सम्भव है कि वह साम्यवादी ईश्वर हो अथवा प्रबल समाजवादी प्रवृत्ति का हो। मैं सदस्यों से तथा डॉ. अम्बेडकर से कहता हूं कि यदि बिना उसकी इच्छा जाने हुए आप उसका नाम रख देते हैं और कल वह यह विचार करता है कि वह इस संविधान से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेगा तो इस संविधान का क्या होगा? मैं यह प्रार्थना करता हूं कि उसके नाम का संविधान में विभिन्न प्रकार से उल्लेख करने तथा उसका संविधान से नाता जोड़ने के पूर्व आप यह जान लें कि उसकी क्या इच्छा है।

वहीं, प. बंगाल से मुस्लिम सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने प्रस्ताव रखा कि शपथ में ‘सत्यनिष्ठा से शपथ’ के साथ-साथ ‘सच्चे हृदय से शपथ’ लिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि सदस्य शपथ लेते हुए यह कहें कि सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय से शपथ लेता/लेती हूं। उन्होंने अपना विचार रखते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, “संशोधनों पर संशोधनों की सूची 1 पांचवा सप्ताह के संशोधन संख्या 56 के सम्बन्ध में, तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 1 में,सत्य निष्ठा से’ शब्दों के पश्चात् और सच्चे हृदय से शब्द रखे जाएं।” उन्होंने इस विचार के पीछे लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा- मेरे पहले संशोधन के फलस्वरूप एक बहुत महत्वपूर्ण संविधानिक प्रश्न उठता है और वह यह है कि क्या मंत्रियों को सदस्यों की हैसियत से नहीं बल्कि मंत्रियों की हैसियत से, एच्चे हृदय से काम करना चाहिये या नहीं। सभा कृपा करके यह देखें कि घोषणाओं के आठ प्रपत्र हैं। संघ के मंत्रियों के सम्बन्ध में दो पत्र हैं। प्रपत्र 1 और प्रपत्र 21 पहली शपथ पद- शपथ है और दूसरी शपथ गोपनीयता शपथ है। इसके अतिरिक्त राज्यों के मंत्रियों के सम्बन्ध में भी दो प्रपत्र हैं, अर्थात् प्रपत्र 5 और प्रपत्र 6, जिनमें से एक पद शपथ के सम्बन्ध में और दूसरा गोपनीयता – शपथ के सम्बन्ध में है। इन सभी दशाओं में मंत्रियों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लिये “सत्यनिष्ठा” से शपथ लेनी है अथवा प्रतिज्ञान करना है और यह आवश्यक नहीं है कि वह यह बच्चे हृदय से कर।