क्या धीरे-धीरे अपने बैकफुट पर आ रही है मोदी सरकार?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मोदी सरकार धीरे-धीरे अपने बैकफुट पर आ रही है या नहीं! मोदी सरकार बैकफुट पर आ चुकी है? लगातार रहे उलटफेर या यू-टर्न से तो यही संकेत मिलता है। फिर चाहे वो अनुसूचित जातियों में क्रीमी लेयर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वापस लेना हो या फिर लेटरल एंट्री पर यू-टर्न। सरकार के इस रुख को देखकर तो लगता है यही लगता है जैसे कुछ लोग मजाकिया अंदाज में कहते हैं कि सरकार को’दलित ब्राह्मणों’ को नाराज करने का डर है। सरकार के यू टर्न लेने के बाद यही सवाल उठ रहा है कि अब राष्ट्र प्रथम के बीजेपी के एजेंडे का क्या हुआ? इसके अलावा भी कई ऐसे विवादास्पद मुद्दे भी हैं जो ठंडे बस्ते में पड़े हुए हैं। समान नागरिक संहिता (यूसीसी), वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक 2024, डिजिटल इंडिया अधिनियम और नई औद्योगिक नीति सहित कई आर्थिक सुधारों को टाला जा सकता है। इसके बजाय, सरकार को जाति जनगणना के लिए विपक्ष की मांगों का सामना करना होगा। वहीं दूसरी ओर किसानों ने फिर से आंदोलन और विरोध प्रदर्शन करने की बात कही है। इधर बेरोजगारी और आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे युवा भी सरकार के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति विदेशी मोर्चे पर ध्यान केंद्रित करने की है। ये बात रूस, यूक्रेन की हालिया यात्राओं और सितंबर में होने वाली अमेरिका दौरे से पता चलता है। हालांकि इन उपायों के आंशिक रूप से ही सफल होने की संभावना है।

दरअसल मोदी की असली ताकत उनकी चुनावी जीत और लोगों के समर्थन से आती है। विदेशी नेताओं को गले लगाने और दुनिया में भारत के बढ़ते महत्व के कुछ हद तक बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावों से नहीं। कौन इस बात से इनकार कर सकता है कि चुनावी तौर पर वे बैकफुट पर हैं, उतने मजबूत नहीं हैं, जितने वे होना चाहते थे? तो फिर, इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? क्या बीजेपी को फिर से मजबूत होने के लिए मध्यावधि चुनाव का विकल्प देखना चाहिए। लेकिन ये सफल होगा इसकी क्या गारंटी। बीजेपी ज़बरदस्त जनादेश के साथ सत्ता में वापस आने की कोशिश करेगी। जैसा कि गुजरात के 2002 के दंगों के बाद हुए चुनावों में हुआ था। जहां मोदी ने दोबारा प्रचंड बहुमत हासिल किया था। हमें याद होगा कि मोदी ने उस साल की शुरुआत में हुए गुजरात दंगों के बाद नए जनादेश का आह्वान किया था।

27 फरवरी को अयोध्या से कार सेवकों को ले जा रही एक ट्रेन को गोधरा में आग लगा दी गई। जिस डिब्बे में कार सेवक फंसे थे, उसे जला दिया गया, जिससे लगभग 60 लोग मारे गए। इसके बाद हुए दंगों में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए और कई हजार लोग विस्थापित हुए। राज्य में 12 दिसंबर को फिर से चुनाव हुए। मोदी भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौटे, भारतीय जनता पार्टी ने 182 विधानसभा सीटों में से 127 सीटें जीतीं। वे गुजरात के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले 14वें मुख्यमंत्री बने, उन्होंने दिसंबर 2012 में अभूतपूर्व तीसरा कार्यकाल जीता और मई 2014 में भारत के 14वें प्रधानमंत्री के रूप में केंद्र में आए। इसके अलावा केंद्रीय चुनाव राज्य चुनावों की तुलना में कहीं अधिक जटिल होते हैं। हर राज्य की अलग-अलग प्राथमिकताएं और मजबूरियां हैं। 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों में नैरेटिव मैनेज करना कोई मजाक नहीं है। पार्टी और उसके कैडर भी कुछ महीने पहले हुए आम चुनावों से थक चुके हैं। इसलिए, भले ही मध्यावधि चुनाव हों, हम अभी इसके करीब भी नहीं हैं। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि अभी कोई एक बड़ा मुद्दा नहीं है जिस पर मोदी संसद को भंग कर सकें और नया जनादेश मांग सकें।

इन दिनों सरकार देश के भीतर हो रही अशांति और विरोध से तो जूझ ही रही है, साथ ही देश की सीमाओं के बाहर भी हालात ठीक नहीं है। बांग्लादेश में तेजी से बिगड़ते हालात चिंता का विषय हैं। वहां बढ़ते इस्लामीकरण और भारत विरोधी गतिविधियां बड़ी चुनौती बनती जा रही है। इसी तरह, यूक्रेन और इजरायल में युद्धों के साथ दुनियाभर में अस्थिरता है। सत्ता में वापस आने के लिए मोदी को 2019 में बालाकोट जैसी छोटी सी स्ट्राइक की जरूरत नहीं होगी, बल्कि इंदिरा गांधी द्वारा 1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की मुक्ति के पैमाने पर एक बहुत बड़ा हमला करना होगा।

क्या मोदी और उनके मंत्रिमंडल में इतना बड़ा और दुस्साहसी काम करने की हिम्मत है? निश्चित रूप से, यह भारत की शैली नहीं रही है, न केवल एक गणतंत्र के रूप में, बल्कि पहले भी। हमने शायद ही कभी अपने दुश्मनों पर हमला किया हो। हम हमलों से खुद को बचाने के लिए जरूर खड़े होते हैं। आजादी से पहले भी भारत पर राज करने वाले मुगल और अंग्रेज अपनी ऊर्जा को हमारी सीमाओं की रक्षा करने या आंतरिक विजय पर खर्च करते थे न कि दूसरे देशों पर हमला करने पर। हालांकि अंग्रेजों ने 1885 में बर्मा पर हमला किया और उसे जीत लिया, लेकिन उनके अफगानिस्तान अभियान को बहुत कम सफलता मिली।