Thursday, September 19, 2024
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क्या मोदी सरकार अब संघ की नाराजगी को कर रही है दूर?

वर्तमान में मोदी सरकार अब संघ की नाराजगी को दूर करती जा रही है! 1966 को दिल्ली अभी जगी भी नहीं थी कि बड़ी संख्या में साधु और संन्यासी संसद भवन के सामने जमा होने लगे थे। ज्यादातर लोगों को यह अंदाजा भी नहीं था कि आखिर क्या बात हो गई कि संसद के सामने हजारों की भीड़ जुट गई। शुरुआत में दिल्ली पुलिस भी नहीं समझ पाई कि आखिर ये माजरा क्या है? पुलिस ने भीड़ को हटाने के लिए आंसू गैस छोड़े, लाठियां भी भांजी, मगर भीड़ टस से मस नहीं हुई। संसद भवन गेट के सामने पुलिस और साधुओं का यह संघर्ष तब भड़क उठा, जब प्रदर्शनकारियों के फेंके पत्थरों से एक पुलिसवाले की मौत हो गई। दोपहर करीब 1:30 बजे तक माहौल पूरा गरमा गया और पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलीबारी करनी शुरू कर दी। संसद के समक्ष जमा यह भीड़ गौ हत्या पर राष्ट्रीय कानून बनाने के लिए सरकार पर दबाव बना रही थी। इस प्रदर्शन को तब भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का समर्थन हासिल था। 1966 में इसी आरएसएस को लेकर तब इंदिरा गांधी सरकार ने एक पाबंदी लगा दी थी। उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को इसकी शाखाओं और कार्यक्रमों में जाने पर रोक लगा दी थी। आज 58 साल बाद मोदी सरकार ने यह रोक हटा दी है। इसके बाद से भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं। नवंबर 1966 को तपस्वियों , नागा साधुओं की अगुवाई में हुए प्रदर्शनों में आधिकारिक रूप से 8 लोगों की मौत की बात बताई गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। हालांकि, कई दूसरे गैर सरकारी आंकड़ों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने की बात कही गई। उस वक्त यह अनुमान लगाया गया कि प्रदर्शनों के दौरान वाहनों और दफ्तरों में तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाओं में कुल करीब 100 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। इन प्रदर्शनों के दौरान कांग्रेस के प्रमुख नेता के कामराज का घर और ऑल इंडिया रेडियो का दफ्तर भी निशाना24 जनवरी, 1966 को इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के बाद जेपी यानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण से उनके रिश्ते कई वर्षों तक बहुत मधुर बने रहे यह उनके बीच हुए पत्र व्यवहारों से भी पता चलता है। उन पत्रों में उनके रिश्तों की प्रगाढ़ता तो पता चलती ही है, एक दूसरे पर विश्वास भी झलकता है और देश के मुद्दों को लेकर चिंता भी। जेपी उन्हें सलाह देने से गुरेज नहीं करते थे। मसलन, गोवध पर प्रतिबंध के मुद्दे पर दोनों के बीच हुए पत्र व्यवहार में इसकी झलक दिखती है। इंदिरा के प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीने बाद गोवध पर प्रतिबंध को लेकर चल रहे आंदोलन को लेकर जेपी ने उन्हें 21 सितंबर, 1966 को एक पत्र लिखा और आग्रह किया:

‘मैं आपका ध्यान एक अत्यंत गंभीर होती स्थिति की ओर दिलाने के लिए लिख रहा हूं। आप गोवध पर प्रतिबंध को लेकर लंबे समय से चल रहे आंदोलन के बारे में जानती हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा उठा था। मुझे पता चला है कि जगतगुरु शंकराचार्यों जैसे शीर्ष हिंदू नेताओं ने इस वर्ष 20 नवंबर से आमरण अनशन करने का फैसला किया है। मैं समझ सकता हूं कि इस हताशापूर्ण कदम पर पूरी गंभीरता से विचार किया गया है। आप कल्पना कर सकती हैं कि इसके क्या गंभीर परिणाम हो सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह एक सामान्य बात हो गई है कि सरकार तब तक कोई कार्रवाई नहीं करती, जब तक कि स्थिति गंभीर न हो जाए। ….नतीजतन अक्सर सरकार को दबाव में कुछ ऐसे अस्वस्थकर कदम उठाने पड़ते हैं, जिनसे लोगों की नजर में सरकार की छवि नीचे गिरती है।…मैं समझ नहीं पाता कि हिंदू बहुल भारत जैसे देश में जहां गोवध को लेकर सही हो या गलत तीव्र भावनाएं हैं, वहां कानूनी प्रतिबंध क्यों नहीं लग सकता।

जेपी के इस पत्र का इंदिरा ने 13 अक्टूबर, 1966 को जवाब दिया। छोटे से पत्र में इंदिरा ने देर से जवाब देने के लिए अफसोस जताया और लिखा, ‘सरकार इस समस्या के सारे पहलुओं पर विचार कर रही है।’ इंदिरा ने इस पत्र का समापन इस तरह किया, ‘मुझे यह जानकार दुख हुआ कि हाल ही में आप इफ्लुएंजा से पीड़ित थे। उम्मीद है आप पूरी तरह स्वस्थ होंगे।’

दरअसल, 7 नवंबर की सुबह भारतीय जनसंघ, हिंदू महासभा और आर्य समाज के समर्थन प्राप्त राख से सने, त्रिशूलधारी अघोरी नगा साधु संसद भवन के सामने जमा हो गए। फ्रांसीसी पॉलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्टोफ जैफरलॉट ने इसे आजादी के बाद का सबसे लोकप्रिय जन आंदोलन बताया। द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार उस दिन माहौल ‘सामान्य और करीब-करीब उत्सव जैसा था, जिसमें गायों की अहमियत बताई जा रही थी। पहले वक्ता स्वामी करपात्री जी महाराज थे। हालांकि, जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने करपात्री जी को आंदोलन को वापस लेने की अपील की थी, मगर भीड़ स्वामी रामेश्वरानंद की जय कहते हुए उग्र हो उठी थी। ये भारतीय जनसंघ के करनाल से चुने गए सांसद थे, जिन्होंने भीड़ से संसद में जबरन घुसने और सबक सिखाने की अपील की थी। इसी के बाद पुलिस और भीड़ में संघर्ष शुरू हो गया। बाद में इस आंदोलन में 500 तपस्वियों समेत 1500 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेखक सुदीप ठाकुर इतिहासकार रामचंद्र गुहा के हवाले से बताते हैं कि जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वामी से अपील की कि वह आंदोलन वापस ले लें, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

गौरक्षा को लेकर पहला संगठित गौरक्षा आंदोलन सिख धर्म के कूकाओं द्वारा शुरू किया गया था। यह एक सुधारवादी समूह था, जिन्होंने 1800 के दशक के आखिर में ब्रिटिश राज के दौरान गायों की सुरक्षा के विचार को फैलाया। आर्य समाज ने इस भावना को राष्ट्रीय आंदोलन में बदलने में जबरदस्त भूमिका निभाई। इस संस्था ने बड़े पैमाने पर गौहत्या को अपराध घोषित करने की पैरवी की। देश में पहली गौरक्षिणी सभा (गौरक्षा परिषद) की स्थापना 1882 में पंजाब प्रांत में की गई थी।

4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए। इन नतीजों में भाजपा 400 के पार के नारे को पूरा नहीं कर पाई। उसे बहुमत से 32 कम यानी महज 240 सीटें ही मिलीं। इसके कुछ दिन बाद 10 जून को नागपुर में संघ के एक कार्यक्रम आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि जो मर्यादा का पालन करते हुए कार्य करता है, गर्व करता है, मगर लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों मे सेवक कहलाने का अधिकारी है। भागवत ने मणिपुर के हालात का जिक्र करते हुए भी कहा था कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है। बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां गन कल्चर बढ़ गया। जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए। इसके बाद से यह अटकलें लग रही थीं कि भाजपा और उसके शीर्ष नेतृत्व की कार्यशैली से संघ काफी नाराज है।

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