बिहार के लोग इस समय सबसे बड़ा सवाल यह पूछ रहे हैं कि क्या नितीश कुमार का कोई और विकल्प नहीं है? 1994 में लालू यादव से बगावत करनेवाले नीतीश कुमार 3 मार्च 2000 को पहली बार मुख्यमंत्री बने। सात दिन बाद सत्ता गंवानी पड़ी। 11 मार्च 2000 को राबड़ी देवी फिर से पाटलिपुत्र की गद्दी पर आसीन हुईं। इसी बीच 15 नवंबर 2000 केंद्र की एनडीए सरकार ने बिहार से झारखंड को अलग कर दिया। मुख्यमंत्री बनने के लिए अब भारी-भरकम विधायक जुटाने की जरूरत नहीं रह गई। राबड़ी राज में सभी मोर्चों पर बिहार की हालत बद से बदतर हो गई। उधर, नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ अपनी गोटी सेट कर ली थी। 2005 विधानसभा चुनाव में 11 साल के संघर्ष के बाद नीतीश कुमार ने लालू का किला उखड़ दिया। 24 नवंबर 2005 को दूसरी बार सीएम पद की शपथ ली। जब नीतीश कुमार को बिहार मिला तो वो बदहाल था। पटना में जो समर्थवान थे, वो बिजली को मेनटेन रखने के लिए इनवर्टर के सहारे थे। जिलों में जेनरेटर माफिया पैदा हो गए थे। जब पटना की सड़कें साइकिल चलाने लायक नहीं थीं तो जिलों की बात करना ही बेकार है। लॉ एंडर ऑर्डर की हालत ऐसी कि हर कोई शाम के छह बजे तक घर में घुस जाना बेहतर समझता था। सत्ता संभालने के बाद नीतीश कुमार ने वैसे तो कई क्षेत्रों में बेहतरीन काम किया मगर सड़क, बिजली और सिक्योरिटी पर खास फोकस रखा। लोगों के मन और दिल में बस गए। यही वजह है कि समाज के हर वर्ग में कुछ ऐसे लोग हैं जो नीतीश कुमार के नाम पर उनकी पार्टी को वोट देते हैं।
बीजेपी के सपोर्ट से पांच बार सीएम पद की शपथ लेनेवाले नीतीश कुमार ने 9 अगस्त 2022 को दूसरी बार गठबंधन तोड़ लिया। नीतीश कुमार के साथ करीब 15 साल तक बीजेपी बिहार की सत्ता में रही। फिर भी उसे आज भी नीतीश कुमार की जरूरत है। दरअसल, वो आजतक ऐसा लीडरशिप पैदा नहीं कर सकी, जो नीतीश कुमार को टेकओवर कर सके। प्रदेश बीजेपी के जो भी खुर्राट नेता थे, उन्हें दिल्ली का रास्ता दिखा दिया गया। अब जब नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ लिया तो अब वही नेता मीडिया में नीतीश को कोसते नजर आ रहे हैं, जिनको प्रदेश की राजनीति से अलग कर दिया गया था। बिहार की राजनीति में जाति की बहुत बात होती है। मगर नीतीश जिस कास्ट (कुर्मी) से आते हैं, उसकी आबादी लगभग तीन फीसदी है। ऐसे में ये कहना सही नहीं है कि सीएम बनने के लिए फलां जाति का होना जरूरी है। बल्कि कैलकुलेशन ज्यादा मायने रखती है। नीतीश कुमार ने ग्राउंड पर जो काम किया, बीजेपी उनके भरोसे ही रह गई। अब नीतीश कुमार खिसक गए तो छाती पीट रहे हैं।
लालू यादव की दूसरी पीढ़ी 10 अगस्त से दूसरी बार सत्ता का सुख भोग रही है। मौजूदा विधानसभा में आंकड़ों को देखें तो तेजस्वी यादव को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए सिर्फ दो विधायक की जरूरत है। इसका मतलब ये नहीं कि उनके पास 120 का आंकड़ा है। मगर सियासी गुणा-गणित 120 तक जरूर ले जा रहा है। मैजिक नंबर 122 का है। आंकड़ों पर नजर डालें तो आरजेडी के 79, कांग्रेस के 19, लेफ्ट पार्टियों के 16 हम के 4, AIMIM के 1 और निर्दलीय 1 मिलाकर ये आंकड़ा 120 तक पहुंचता है। लालू यादव जैसे सियासत के माहिर खिलाड़ी के लिए मैजिक नंबर (122) को हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं है। तो क्या सिर्फ दो विधायकों के लिए लालू ने नीतीश को सीएम बना रखा है? ऐसी बात नहीं है। लालू यादव को पता है कि 1990-2005 वाला बिहार नहीं रह गया है। राजनीति की लंबी पारी खेलनी है तो नीतीश को बर्दाश्त करना ही होगा। चूंकि राजनीति में परसेप्शन बहुत मायने रखता है। लालू यादव क्रेडिबिलिटी क्राइसिस से जूझ चुके हैं, वो नहीं चाहते उनके वारिस (तेजस्वी यादव) का भी वही हाल हो। इसलिए जब तक नीतीश कुमार चाहेंगे, लालू परिवार उन पर प्यार लुटाता रहेगा।
आरजेडी और बीजेपी दोनों से मुकाबला करके नीतीश कुमार देख चुके हैं। दोनों के साथ गठबंधन बनाने के बाद तोड़कर भी आजमा चुके हैं। फिर भी पिछले 17 साल से बिहार की राजनीति को हांक रहे हैं। अपने हिसाब से हवा रूख बदलते रहते हैं। वो 24*7 हार्डकोर पॉलिटिशियन हैं। राजनीति को ही खाते-पीते और ओढ़ते-पहनते हैं। ऐसी भी बात नहीं कि किसी खास वर्ग में उनका बहुत वोट है, जिसके बदौलत को सत्ता की चाबी लिए घूम रहे हैं। दरअसल, नीतीश कुमार ने 17 साल तक जिस बिहार को सींचा है, उसे आगे बढ़ाने के लिए एक अच्छे वारिस की तलाश में हैं। 9 अगस्त 2022 के बाद उनकी नजर ‘दोस्त’ के छोटे बेटे तेजस्वी पर टिक गई है। रिजल्ट और भरोसे का इंतजार नीतीश कुमार जरूर करेंगे। इससे पहले नीतीश कुमार का भरोसा सुशील मोदी पर था। उनके लिए कह चुके हैं कि ‘वो एक प्रिय मित्र रहे हैं। उन्हें मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया? अगर उन्हें इस पद पर नियुक्त किया गया होता तो चीजें इस स्तर पर नहीं पहुंचती। उस समय (2020) विधानसभा चुनावों में पार्टी (जेडीयू) के खराब प्रदर्शनों को देखते हुए सीएम बनना नहीं चाहता था। भाजपा नेताओं के आग्रह पर उन्होंने ऐसा किया।’
1975 में आपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ यानी ‘इंदिरा भारत हैं और भारत इंदिरा है’ का नारा दिया था। ये नारा इंदिरा गांधी की ताकत को दिखाता था। इसके चार साल बाद सात समंदर पार इंग्लैंड में एक और महिला नेता के लिए नारा गढ़ा गया- ‘There is no alternative’ (TINA) मतलब ‘कोई विकल्प नहीं है।’ दोनों की कामयाबियों ने बुलंदियों को छुआ। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कुछ इसी राह पर हैं। 2005 के बाद 17 सालों में न तो बीजेपी और ना ही आरजेडी ने नीतीश का अल्टरनेटिव खोज पाई। नीतीश कुमार जिसके साथ रहे वो सत्ता में भागीदार रहा। चाहे 2015 में आरजेडी हो या फिर 2020 में बीजेपी। इससे पहले भी वो अपने पॉलिटिकल पार्टनर बदलते रहे हैं। 10 अगस्त 2022 के बाद उन्होंने बीजेपी को छोड़कर अपने पुराने दोस्त और सियासी दुश्मन लालू यादव को चुना है। मगर ‘किचेन’ में कुछ नहीं बदला है। स्वाद बिल्कुल खांटी नीतीश वाला ही है। इसे बरकरार रखने की जिम्मेदारी भी ‘सुशासन बाबू’ पर ही है।