आज हम आपको बताएंगे कि देश का पहला संसदीय चुनाव कैसा हुआ था! इस साल लोकसभा के 18वें आम चुनाव की तैयारी पूरे देश में जोर-शोर से चल रही है। सभी सियासी पार्टियां इस चुनाव को लेकर प्लानिंग में जुटी हैं। इन सबके बीच क्या आपको पता है देश का पहला संसदीय चुनाव कब हुआ था। कितनी सीटों पर वोटिंग हुई थी। देश का पहला संसदीय चुनाव 1951-52 में हुआ था। नवोदित भारतीय गणतंत्र ने 1951-52 के चुनाव की विभिन्न चुनौतियों को पार करते हुए और कई आलोचकों को गलत साबित किया। इस अभूतपूर्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरा किया गया था। ये चुनाव ऐसे समय हुए जब देश के बंटवारे का जख्म भरा नहीं था। उस समय बड़ी संख्या में मतदाता निरक्षर थे। आजादी के बाद भारत निर्वाचन आयोग ने लोकसभा की 489 सीट के लिए देश का पहला संसदीय चुनाव कराया था। उस समय आयोग बने बमुश्किल एक ही साल हुआ था। पहले लोकसभा चुनाव में 17 करोड़ 30 लाख मतदाताओं ने 1,874 उम्मीदवारों में से अपने प्रतिनिधियों का चयन किया था। इस साल लोकसभा के 18वें आम चुनावों की तैयारी में लगे निर्वाचन आयोग पर 1950 के दशक में जनसांख्यिकीय, भौगोलिक और साजो सामान संबंधी चुनौतियों का सामना करते हुए चुनाव कराने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी ने कहा कि 1951-52 का पहला आम चुनाव उस समय भी दुनिया में हुई सबसे बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी। उन्होंने कहा कि सुकुमार सेन भारत के पहले मुख्य निर्वाचन आयुक्त को सलाम है जिन्होंने पहला आम चुनाव कराया और बेहतरीन प्रदर्शन किया। इतनी व्यापक प्रक्रिया को किसी पूर्व अनुभव के बिना सम्पन्न किया गया जिसके लिए पहले से कोई बुनियादी ढांचा उपलब्ध नहीं था।
एसवाई कुरैशी ने कहा कि भारत ने वास्तव में ‘एक बेहतरीन प्रयोग’ किया था जैसा कि उस समय फिल्म प्रभाग की ओर से चुनाव पर निर्मित एक शॉर्ट वीडियो में दिखाया गया था। इस वीडियो में यह भी उल्लेख किया गया था कि चुनाव की वास्तविक प्रक्रिया से पहले ‘मॉक इलेक्शन’ यानी अभ्यास चुनाव कराए गए थे। आयोग की ओर से प्रकाशित ‘जनरल इलेक्शंस 2019: एन एटलस’ के अनुसार, पहले चुनाव की प्रक्रिया 25 अक्टूबर, 1951 को शुरू हुई और यह चार महीने तक चली। इस दौरान 17 दिन मतदान हुआ था। यह प्रक्रिया शुरू करने से पहले मतदाता सूची तैयार करते समय आयोग को चौंकाने वाली बात पता चली। उन्होंने पाया कि कुछ राज्यों में बड़ी संख्या में महिला वोटरों का रजिस्ट्रेशन ‘उनके अपने नाम से नहीं’ था। बल्कि उनके परिवार के पुरुष सदस्यों के साथ उनके संबंधों के विवरण के आधार पर किया गया था। जैसे अमुक व्यक्ति की मां या पत्नी आदि। स्थानीय प्रचलन के अनुसार, इन इलाकों में महिलाएं अजनबियों को अपना नाम बताने से कतराती थीं।
पहले आम चुनावों पर 1955 में प्रकाशित आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, उस समय निर्देश जारी किए गए थे कि वोटर्स का नाम उसकी पहचान का एक अनिवार्य हिस्सा है। ऐसे में इसे मतदाता सूची में शामिल किया जाना चाहिए। उस समय लोगों में जागरूकता बढ़ाई गई और मतदाताओं का असल नाम जोड़ने के लिए चुनाव कराने की अवधि को विशेष रूप से बढ़ाया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि देश में कुल लगभग आठ करोड़ महिला मतदाताओं में से लगभग 20 से 80 लाख महिलाओं ने अपने असल नाम की जानकारी नहीं दी। इसके कारण उनसे संबंधित प्रविष्टियों को मतदाता सूची से हटाना पड़ा। ऐसे सभी मामले बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, राजस्थान और विंध्य प्रदेश राज्यों में सामने आए थे।
दिल्ली के पूर्व मुख्य निर्वाचन अधिकारी सीईओ चंद्र भूषण कुमार ने कहा कि उस समय महिला मतदाताओं से मतदाता सूची में अपना नाम घोषित करने के लिए कहना आयोग का एक बहुत ही उल्लेखनीय रुख था। उन्होंने कहा कि उस दौरान तय की गई बहुत सी चीजें ‘हमारी पूरी चुनावी प्रक्रिया का अभिन्न अंग’ बन गई हैं। चाहे यह चुनाव चिह्न हों या अमिट स्याही का इस्तेमाल हो।
पूरे देश में 1,96,084 मतदान केंद्र स्थापित किए गए थे। मतदान की प्रक्रिया बर्फबारी के मौसम से पहले हिमाचल प्रदेश से शुरू की गई थी। रिपोर्ट में कहा गया कि आयोग को इस राष्ट्रव्यापी प्रक्रिया के दौरान उन दुर्गम इलाकों तक पहुंचने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। जहां विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र थे, जहां सड़कें नहीं थीं और संचार सुविधाओं का अभाव था और जोधपुर और जैसलमेर जैसे इलाकों में बड़ी संख्या में ऊंटों का इस्तेमाल किया गया था। जहां भी सार्वजनिक भवन अपर्याप्त थे, वहां मतदान के लिए ‘डाक’ बंगलों और निजी भवनों का भी उपयोग किया गया था। एसवाई कुरैशी ने कहा कि मुख्य रूप से पश्चिमी देशों के आलोचकों समेत कई ऐसे कई लोग थे, जिन्हें लगा था कि पहला चुनाव कराना असफल प्रयोग साबित होगा। उन्होंने कहा कि उस समय भारत में लगभग 84 फीसदी लोग निरक्षर थे। आलोचकों का कहना था कि निरक्षर लोग लोकतंत्र की प्रक्रिया में कैसे हिस्सा ले सकते हैं और उनका मानना था कि हम असफल रहेंगे। निरक्षरता के अलावा, गरीबी, सामाजिक विभाजन और बंटवारे के बाद सांप्रदायिक विभाजन की भी दिक्कत थी। लेकिन हमने पहले ही चुनाव में हमारे असफल रहने की आशंकाओं को गलत साबित कर दिया।