कहते हैं अगर आपको साहित्य और इतिहास साथ-साथ पढ़ना है तो प्रेमचंद को पढिए. पिछले महिने मैंने प्रेमचंद की पांच किताबे खरीदी थी जिसमें 150 से अधिक कहानियां थी. जब मैं प्रेमचंद को पढ़ रहा था तो ऐसा लगा कि जिन मुद्दों पर हम आज लड़ रहे वह आज से सौ साल पहले भी वैसे ही थे. मसलन दलित का मंदिर में प्रवेश, स्त्री का पुरूष से संघर्ष, गांव की गरीबी और हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्यता. मेरे हिसाब से प्रेमचंद अपने समय के सबसे प्रगतिशील उपन्यासकार थे. क्योंकि उनकी कहानियां दलित चेतना को जगाती है जैसे कि एक कहानी है ‘मंदिर’ जिसमें एक दलित बालक को मंदिर में प्रवेश नही मिल पाता है और इसके वजह से वह प्राण त्याग देता है. हिन्दू-मुस्लिम एकता को दिखाते हुए उनकी एक कहानी ‘हिंसा परमो धर्म:’ है. राजा हरदौल और रानी सारन्धा जैसी कहानियों में क्षत्रिय वीरता और स्वाभिमान दिखता है. ‘कफ़न’ में पुरूषों के निर्ममता दिखती है तो ‘लांछन’ में स्त्रीयों को बेसमझी दिखती है.
कितनी ही कहानियां कांग्रेस के सत्याग्रह पर है. जिसमें ‘शराब की दुकान’, ‘जूलूस’ और ‘समर-यात्रा’ शामिल है. मेरी सबसे पंसदीदा कहानी है ‘सोहाग का शव’ इसे आप लोग भी पढियेगा. प्रेमचंद जहाँ भी हो उनको मेरा बहुत धन्यवाद जो वह बिमारी से ग्रसित होने के बाद भी लिखते रहे. जब गाँधीजी जी ने गोरखपुर के एक सभा में लोगों से अपने सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने को कहा तो प्रेमचंद जी ने अपनी नौकरी छोड़ दी. प्रेमचंद कक्षा आठवीं तक गोरखपुर के ही रावत स्कूल में पढ़े थे. चूंकि मैं भी गोरखपुर का ही हूँ तो प्रेमचंद को बहुत करीब पाता हूँ, चाहे व्यक्तित्व हो चाहे कहानियां. प्रेमचंद ने एक बार कहा था कि मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें निराशा होगी गोदान, सेवासदन, गबन, त्रिया चरित्र, सद्गति और शंतरज के खिलाड़ी ऐसी कहानियां है जिन पर फिल्में भी बनी है.
सात साल की उम्र में उनकी माता का देहांत हो गया था और 16 साल की उम्र में उनके पिता का. लेकिन यह किताबे ही थी जिसने प्रेमचंद को भटकने से बचाया. प्रेमचंद की जीवन से हमें सीखना चाहिए किताबे कितनी जरूरी है.
सांप्रदायिकता पर प्रेमचंद ने क्या कहा है
प्रेमचंद ने नब्बे वर्ष पूर्व जो कहा था वह आज भी बहुत प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद हिन्दू-मुस्लिम एकता में बहुत मानते थे. प्रेमचंद ने नवम्बर 1931.’हिन्दू- मुस्लिम एकता’ शीर्षक लेख में लिखते हैं कि, “यह बिलकुल गलत है कि इस्लाम तलवार के बल से फैला. तलवार के बल से कोई धर्म नहीं फैलता, और कुछ दिनों के लिए फैल भी जाए, तो चिरजीवी नहीं हो सकता. भारत में इसलाम के फैलने का कारण, ऊंची जाति वाले हिंदुओं का नीची जातियों पर अत्याचार था. बौद्धों ने ऊंच- नीच का, भेद मिटाकर नीचों के उद्धार का प्रयास किया, और इसमें उन्हें अच्छी सफलता मिली लेकिन जब हिन्दू धर्म ने जोर पकड़ा, तो नीची जातियों पर फिर वही पुराना अत्याचार शुरू हुआ, बल्कि और जोरों के साथ. ऊंचों ने नीचों से उनके विद्रोह का बदला लेने की ठानी. नीचों ने बौद्ध काल में अपना आत्मसम्मान पा लिया था. वह उच्चवर्गीय हिंदुओं से बराबरी का दावा करने लगे थे.उस बराबरी का मज़ा चखने के बाद, अब उन्हें अपने को नीच समझना दुस्सह हो गया. यह खींचतान हो ही रही थी कि इसलाम ने नए सिद्धांतों के साथ पदार्पण किया. वहाँ ऊंच- नीच का भेद न था. छोटे-बड़े, ऊंच-नीच की कैद न थी. इसलाम की दीक्षा लेते ही मनुष्य की सारी अशुद्धियाँ, सारी अयोग्याताएं, मानों धुल जाती थीं. वह मस्जिद में इमाम के पीछे खड़ा होकर नमाज पढ़ सकता था, बड़े बड़े सैयद- जादे के साथ एक दस्तरखान पर बैठकर भोजन कर सकता था. यहाँ तक कि उच्च वर्गीय हिंदुओं की दृष्टि में भी उसका सम्मान बढ़ जाता था. हिंदू अछूत से हाथ नहीं मिला सकता , पर मुसलमानों के साथ मिलने- जुलने में उसे कोई बाधा नहीं होती. वहाँ कोई नहीं पूछता, कि अमुक पुरुष कैसा, किस जाति का मुसलमान है. वहाँ तो सभी मुसलमान हैं. इसलिए नीचों ने इस नए धर्म का बड़े हर्ष से स्वागत किया, और गांव के गाँव मुसलमान हो गये. जहाँ उच्च वर्गीय हिंदुओं का अत्याचार जितना ज्यादा था, वहाँ वह विरोधाग्नि भी उतनी प्रचंड थी और वहीं इसलाम की तबलीग भी खूब हुई. कश्मीर, आसाम, पूर्वी बंगाल आदि इसके उदाहरण है. हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं. यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति, और न कोई अन्य संस्कृति.”