उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान का समय क़रीब आ रहा है और चुनाव प्रचार अब तेज़ी पकड़ने लगा है. पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर वोट डाले जाने हैं. मतदान 10 फ़रवरी को होना है.भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी दलों के बड़े नेताओं ने अब अपना पूरा ध्यान पश्चिमी यूपी पर ही लगा दिया है. इसके साथ ही ये समझने की कोशिश हो रही है कि किस पार्टी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए क्या रन रणनीति है । खासकर यह जाट बहुल इलाका है, पश्चिमी यूपी में एक मशहूर कहावत भी है- जिसके जाट, उसी के ठाठ. लोकसभा चुनाव 2019 के लिए महागठबंधन और बीजेपी दोनों के लिए ही पश्चिमी यूपी में जाट चुनौती बने हुए थे . असल में यहां जिसे भी ठाठ चाहिए, उन्हें जाट भी चाहिए. बहरहाल, जाट नेताओं को लेकर मतलब उलट जाता है
यूपी में जाटों की आबादी 6 से 8% बताई जाती है, जबकि पश्चिमी यूपी में वो 17% से ज्यादा हैं. ऐसी 18 लोकसभा सीटें हैं: सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, बिजनौर, गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, बुलंदशहर, हाथरस, अलीगढ़, नगीना, फतेहपुर सीकरी, और फिरोजाबाद जहां जाट वोट बैंक चुनावी नतीजों पर सीधा असर डालता है. विधानसभा की बात करें तो 120 सीटें ऐसी हैं जहां जाट वोटबैंक असर रखते है .राजनीति पंडित के माने तो अबकी बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे जाट समुदाय का वोट उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण मे मायने देगा. .राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि बीजेपी की कामयाबी में जाट वोटरों के समर्थन की बड़ी भूमिका रही है. लेकिन अबकी बार किसान आंदोलन के होने के कारण बीजेपी बैकफुट पर खेलती नजर या रही है . वही कुछ लोगों के मानना है “जब से बीजेपी सरकार आई है तब से क़ानून व्यवस्था बेहतर हुई है लेकिन किसान आंदोलन जो चला, उसकी वजह गठबंधन का समर्थन मजबूत हुआ है.”अब देखना है की पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत कौन सी करवट लेती है ? कई लोग महंगाई, बेरोज़गारी, आमदनी न बढ़ने की शिकायत करते हुए इन्हें भी मुद्दा बताते हैं, लेकिन ज़्यादातर लोगों की राय में किसान आंदोलन और किसानों से जुड़े मुद्दे बहुत अहम हैं |
मसलन, आवारा पशुओं, गन्ना भुगतान और किसान नेताओं को लेकर सरकार के रुख से जुड़े मामले और इनका असर चुनाव नतीजों पर भी दिख सकता है. हालांकि, बीजेपी नेता दावा करते हैं कि उनका ‘किला सुरक्षित’ है.इसके साथ साथ मुस्लिम वोटर पर भी काफी अधिक फोकस है. ” इसे कही तरह से देखा जा रहा है । लोगों का राय है है की .जब किसान, किसान न रहकर हिंदू मुसलमान हो गया तब हमें ही तो नुक़सान होना था. बांटना बहुत आसान है, जोड़ना बहुत मुश्किल काम है. 2013 में एक घटना हुई. लोगों तक 2013 दंगे वाली बात जाती है लेकिन उसके बाद वाली बात नहीं जाती है. 2014, 2017 और 2019 में हमने खामियाजा भुगता.” सपा अपने गठबंधन मुसलमान प्रत्याशी भी उतारे हैं. उनके मुताबिक “सिवालखास (मेरठ) की जाट बहुल सीट पर जाटों का टिकट काटकर मुस्लिम को दिया है.”लोग कही ग्राउन्ड रिपोर्ट मे आरोप लगाते हैं, “भारतीय जनता पार्टी ने मुज़फ़्फ़रनगर को दंगों की प्रयोगशाला बनाकर रख दिया था. खाई पटाने के मक़सद से चौधरी अजित सिंह ने (2019 के लोकसभा चुनाव में) यहां से चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाई. हार के बाद भी उन्होंने लोगों से कहा कि जिस मक़सद से मैं यहां आया था, वो पूरा हो गया कि हिंदू और मुस्लिम ने एक जगह वोट किया है.
सियासत के ‘अजगर’ और ‘मजगर’ फार्मूले से सत्ता में अपनी पकड़ बनाए रखने वाले चरण सिंह यूपी के पहले गैर कांग्रेसी सीएम रहे. अजगर मतलब अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत, मजगर- मतलब मुसलमान, जाट, गुर्जर और राजपूत. ब्रास के मुताबिक इन जातियों को गोलबंद करके गैर कांग्रेसवाद की राजनीति करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का नाम अगर यूपी की जाट पॉलिटिक्स में सबसे पहले न लिया जाए तो अन्याय होगा.
दलित वोट बैंक का बिखराव और जाटव vs गैर-जाटव
बीजेपी के बढ़ते वोट प्रतिशत को आधार बनाकर यूपी की दलित राजनीति में आए बदलाव को समझा जा सकता है. बीजेपी को 2009 के लोकसभा चुनावों में मिले 17.5% वोट और 10 सीटों के मुकाबले 2014 में उसे 42.3% वोट और 71 सीटें मिली थीं. अब सवाल यही है कि ये 25% वोट किसका था जो बीजेपी ने हासिल किया? समाजशास्त्री बद्री नारायण अपनी किताब ‘फैसिनेटिंग हिन्दुत्वः सैफ़रन पॉलिटिक्स और दलित मोबिलाइजेशन’ में बीजेपी की इसी रणनीति को लेकर बात की है. बद्री नारायण इस किताब में दलितों-पिछड़ों के भीतर मौजूद जातीय अंतर्विरोध और जातिवाद के आधार पर अति दलित और अति पिछड़ी जातियों में मौजूद गुस्से और उनके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के विशेष कार्यक्रमों का विवरण देते हैं.
बद्री नारायण लिखते हैं कि दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान के तहत आरएसएस ने उस दलित वोट बैंक पर निशाना साधा जिस पर बीएसपी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. इसी रणनीति का फायदा बीजेपी को सीधे-सीधे देखने को मिला. तक़रीबन 60 गैर-जाटव दलित जातियों को 30 साल पुराने बहुजन आंदोलन में न तो नेतृत्व में जगह मिली, न आवाज़ मिली, न पहचान, न ही लालबत्ती और और न ही सत्ता. बद्री नारायण का मानना है कि दलित वोट बीएसपी के लिए जीत में तभी तब्दील होते हैं जब वे अन्य सामाजिक समूहों के मतों से जुड़ते हैं, जबकि 2014 में तो दलितों का एक हिस्सा मायावती से दूर हो गया.
2022 में जयंत चौधरी की आस?
2022 में जयंत चौधरी की आस मई 2021 में अजीत सिंह के निधन के बाद जयंत चौधरी को रालोद का अध्यक्ष बनाया गया था. मई 2021 में ही हुए पंचायत चुनाव के बाद जीरो रालोद में एक नयी जान आयी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसके प्रदर्शन में सुधार हुआ था.उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत सदस्य की 3050 सीटें हैं.इनमें से रालोद ने 69 सीटें जीत कर भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के बाद पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था. इस चुनाव में किसान आंदोलन और कोरोना भी एक बड़ा फैक्टर था। मेरठ, शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत में रालोद ने बेहतर प्रदर्शन किया था. इस जीत ने उसमें एक नया जोश फूंका था। 2022 के विधानसभा चुनाव में रालोद को जाट किसानों और मुस्लिम समुदाय से बहुत आशा