Thursday, January 30, 2025
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क्या सुभाष चंद्र बोस की जान के पीछे थे दो जासूस ?

आज हम आपको बताएंगे कि एक समय ऐसा था जब सुभाष चंद्र बोस की जान के पीछे दो जासूस थे! तब की बात है, जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था। उस वक्त भारत पर राज करने वाली ब्रिटिश हुकूमत भी जंग में फंसी थी। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इस मौके को भारत की आजादी के एक अवसर के रूप में देखा। बोस ने अंग्रेजी सरकार की दुश्मन जापान और जर्मनी की सरकारों से देश की आजादी के लिए मदद मांगनी शुरू कर दी। उनके इस कदम से अंग्रेजी सरकार इतना डर गई कि उसने ब्रिटिश खुफिया एजेंटों को सुभाष की हत्या का आदेश दे दिया। यह आदेश 1941 में दिया गया था। पर नेताजी को पकड़ना या उनकी हत्या करना इतना आसान नहीं था। नेताजी के ब्रिटिश एजेंटों और सरकार की आंखों में धूल झोंककर बच निकलने की कहानी जानते हैं। नेताजी ने सिंगापुर में ही आजाद भारत की अस्थायी सरकार बनाई, जहां आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे हैं।  एक आयरिश इतिहासकार यूनन ओ हैल्पिन के अनुसार, जब नेताजी ने जापान और जर्मनी से मदद लेने की कोशिश की तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें खत्म करने का आदेश दिया। ब्रिटिश खुफिया एजेंटों को यह आदेश दिया गया था कि मध्य पूर्व से होकर जर्मनी जाने की कोशिश कर रहे नेताजी को बीच रास्ते में ही ख़त्म कर दिया जाए। हालांकि, ये एजेंट अपने नापाक मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाए।

ओ हैल्पिन ने गुप्त दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताया कि ब्रिटिश एजेंट इस बात को लेकर परेशान थे कि नेताजी कहां गायब हो गए। दरअसल, नेताजी अंग्रेजी सरकार की मंशा भांप गए थे। वह जनवरी 1941 में अचानक लापता हो गए। ओ हैल्पिन का कहना है कि जब ब्रितानी सरकार को पता चल गया कि नेताजी दुश्मन देशों की मदद लेकर ब्रितानी हुकूमत को उखाड़ फेंकना चाहते हैं तो ख़ुफिया अधिकारियों को आदेश दिए गए कि उन्हें मार डाला जाए। हैल्पिन के अनुसार, ब्रिटिश सीक्रेट एजेंटों ने पहले यह सोचा कि नेताजी सुदूर पूर्व की ओर गए हैं। मगर, कुछ समय बाद ही उन्हें इटली के एक मैसेज से यह पता चला कि नेताजी उन्हें चकमा देकर काबुल पहुंच गए हैं और मध्य पूर्व के रास्ते जर्मनी जाने की तैयारी कर रहे हैं। इसके बाद तुर्की में मौजूद दो ब्रिटिश एजेंटों को लंदन स्थित मुख्यालय से निर्देश दिया गया कि वे सुभाष को जर्मनी पहुंचने से पहले ही मार डालें। मगर, यहां भी सुभाष एजेंटों से आगे निकल गए थे। ब्रिटिश जासूसों का प्लान फेल हो गया था। वो नेताजी तक नहीं पहुंच पाए क्योंकि नेताजी मध्य एशिया होते हुए रूस पहुंचे और वहां से फिर वह जर्मनी गए। उसके बाद वह सिंगापुर पहुंच गए, जहां से उन्होंने ब्रिटिश सरकार को चुनौती देनी शुरू की।

सिंगापुर बसाने वाले सर स्टैनफोर्ड रैफल्स जितने अहम हैं, उतने ही नेताजी भी सिंगापुर के इतिहास का हिस्सा हैं। सिंगापुर के लेखक असद लतीफ ने सुभाष पर आयोजित एक सेमिनार ‘सिंगापुर में नेताजी के दिन’ में कहा था कि स्वतंत्र सिंगापुर को बनाने में भारत की भूमिका में नेताजी केंद्रीय भूमिका में हैं। पेनांग, मलक्का और सिंगापुर 1830 से 1867 तक बंगाल प्रेसीडेंसी का एक हिस्सा था। दिलचस्प बात यह है कि 1867 तक सिंगापुर भारत सरकार के बंदरगाहों में कलकत्ता के बाद दूसरे स्थान पर था। दरअसल, सिंगापुर तब औपनिवेशिक भारत का हिस्सा था। असद की सुभाष पर लिखी किताब ‘नेताजी इन द इंडियन मेकिंग ऑफ सिंगापुर’ में कहा गया है कि अंग्रेजी राज ने लंदन के बजाय औपनिवेशिक सिंगापुर को तवज्जो दी। कोलकाता में जन्मी और सिंगापुर स्थित लेखिका नीलांजना सेनगुप्ता की किताब ‘ए जेंटलमैन्स वर्ड’के अनुसार, सिंगापुर में नेताजी ने एक बार दशहरा उत्सव के लिए कारोबारी समुदाय चेट्टियार के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था। वजह यह थी कि इसमें निचली जातियों के लोगों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। बाद में यही चेट्टियार समुदाय ने आजाद हिंद फौज को पैसों से मदद की थी।

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल में सुप्रीम कमांडर के रूप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी ने सेना को संबोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो!’ का नारा दिया। 21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आजाद हिंद फौज का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ था। जिस पर बाद में अंग्रेजों ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया था। 21 अक्टूबर 1943 में सुभाष ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आजाद हिंद सरकार की स्थापना की। उनकी इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली और आयरलैंड जैसे 11 देशों की सरकार ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिए। नेताजी उन द्वीपों में गए और अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप और निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया।

सुभाष ने 30 दिसंबर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी ने सिंगापुर एवं रंगून में आजाद हिंद फौज का मुख्यालय बनाया। 4 फरवरी 1944 को आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण कर कोहिमा, पलेल जैसे भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। इस बीच नेताजी की 18 अगस्त, 1945 को ताइपे जाते हुए हवाई यात्रा के दौरान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। बाद में जापान के हार जाने की वजह से आजाद हिंद फौज के लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

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