वर्तमान में उत्तर बनाम दक्षिण बढ़ता ही जा रहा है!आम चुनाव से पहले एक बार फिर देश में उत्तर बनाम दक्षिण का सियासी दंगल शुरू हो गया है। दक्षिण के राज्य बीजेपी की अगुआई वाली केंद्र सरकार पर उनकी उपेक्षा और संसाधनों को छीनने का आरोप लगाकर आंदोलन कर रहे हैं। कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों की सत्तारूढ़ सरकार पिछले कुछ दिनों से संसद से सड़क तक इस मुद्दे पर उतरीं। उनके आरोपों पर केंद्र सरकार और बीजेपी ने भी पलटवार किया। दरअसल, विपक्ष को मुद्दे पर आम चुनाव में सियासी प्रीमियम दिख रहा है। पिछले कुछ दिनों से दक्षिण भारत के अधिकतर राज्य एकजुट होते दिख रहे हैं। इन राज्यों ने जहां एक ओर केंद्र के सामने अपनी मांगें रखने का फैसला किया है, वहीं दूसरी ओर ये सोशल मीडिया पर भी कैंपेन चला रहे हैं। सोशल मीडिया पर ‘माई टैक्स, माई राइट’ नाम से एक कैंपेन भी चल रहा है। इन तमाम राज्यों का आरोप है कि केंद्र सरकार उनके राज्य के साथ वित्तीय अन्याय कर रही है। कर्नाटक की सरकार तो इस मसले पर विरोध करने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर तक आ गई और दूसरे राज्य भी अभी आंदोलन तेज करने की कोशिश कर रहे हैं।
केंद्र सरकार ने वित्तीय भेदभाव से साफ इनकार किया, साथ ही इस विरोध को देशविरोधी करार दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार इस मुद्दे पर संसद के अंदर खुलकर बात भी की। उन्होंने इससे जुड़े तमाम मसलों पर लोगों के बीच अपना पक्ष रखने की कोशिश की। इस बहस पर कहा कि ‘उनके विभाजनकारी अजेंडे से सावधान रहें, 70 साल की आदत इतनी आसानी से नहीं जाएगी।’ आम चुनाव से पहले इस मसले के उठने के पीछे सियासी आकलन है। नरेंद्र मोदी की अगुआई में इस बार मिशन साउथ पर फोकस है। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में विस्तार के लिए बहुत आक्रामक रूप से काम जारी है। साथ ही अगर आम चुनाव में मिशन 400 का टागरेट पूरा करना है तो दक्षिण के इन राज्यों में बीजेपी को बेहतर करना होगा। कर्नाटक में 2019 के प्रदर्शन को भी दोहराना होगा, जहां पार्टी ने राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 27 में जीत हासिल की थी।
बीजेपी की इसी कोशिश को देखते हुए विपक्षी दलों ने पार्टी को दक्षिण विरोधी साबित करने की कोशिश भी इस आंदोलन के माध्यम से की। साथ ही कांग्रेस की अगुआई में विपक्ष को लगता है कि अगर दक्षिण में बीजेपी को रोक दिया गया और उत्तर में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन हुआ तो बीजेपी को कमजोर किया जा सकता है। लेकिन बीजेपी को लगता है कि ऐसे मुद्दे उठाकर नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी को दक्षिण में लोगों से और संवाद करने का मौका मिल रहा है। ऐसा नहीं है कि हाल के सालों में पहली बार उत्तर बनाम दक्षिण का यह मसला उठा है। दो साल बाद होने वाले परिसीमन को लेकर अभी से यह विवाद गर्म है। नए परिसीमन के बाद देश में करीब 900 नए सांसद हो सकते हैं। माना जा रहा है कि 543 सीट से 900 सीटें जो बढ़ेगी, उसमें 80 फीसदी से अधिक बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में बढ़ेगी और दक्षिण का प्रतिनिधित्व उस अनुरूप नहीं बढ़ेगा। इसका बड़ा असर राष्ट्रीय राजनीति पर हो जाएगा और दक्षिण के राज्यों की सियासी अहमियत कम हो जाएगी। तभी दक्षिण के राज्यों के नेताओं ने चेतावनी दी थी कि अगर परिसीमन के बाद दक्षिण के राज्यों को उनका हक नहीं मिला तो पूरे दक्षिण भारत में एक मजबूत जन आंदोलन का जन्म होगा और सभी इस असमानता के खिलाफ एकजुट होकर लड़ेंगे।
पिछले दिनों कहा गया था कि वित्तीय आयोग की अनुशंसा में कहा गया था कि केंद्र और राज्य के बीच टैक्स और कमाई के बीच की हिस्सेदारी का आधार 2011 की जनगणना होगी। इस बंटवारे के लिए कई मानक होते हैं जिनमें सबसे अहम फैक्टर राज्य की आबादी होती है। अब तक 1971 की आबादी का आधार इसके लिए बनाया जाता रहा है। लेकिन आयोग की अनुशंसा के बाद विवाद शुरू हो गया। तब भी दक्षिण के राज्यों का तर्क था कि 2011 की जनगणना का आधार बनाने पर उनका हिस्सा कम हो जाएगा और जनसंख्या वृद्धि को रोकने की दिशा में उठाए प्रभावी कदम की सजा उन्हें मिलेगी।
2011 जनगणना से उत्तर के राज्यों का हिस्सा अचानक बढ़ जाएगा। क्योंकि 1971 से 2011 के बीच इन राज्यों की आबादी तेजी से बढ़ी है जबकि दक्षिण के राज्यों की आबादी बढ़ने का अनुपात उससे कम रहा। इस मुद्दे ने दक्षिण के सभी राज्यों को अभूतपूर्व तरीके से एक कर दिया था। अधिकतर दलों ने इसे दक्षिण की अस्मिता को भी जोड़ दिया था।