क्या है भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी का रहस्य?

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भारतीय जनता पार्टी पूरे देश में ही अपना परचम लहराती जा रही है! कांग्रेस के संकट’ को पार्टी का महज आंतरिक मामला कहना ठीक नहीं है। यह इससे भी ज्यादा है। निश्चित तौर पर राजस्थान में चल रही अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच सियासी वर्चस्व की जंग और गांधी परिवार की नाजुक स्थिति, खासकर तब जब राहुल गांधी भारत यात्रा पर हैं, पूरी तरह कांग्रेस का आंतरिक मसला है। कांग्रेस का सुस्त रवैया और खुद को एक चैलेंजर के तौर पर स्थापित करने में उसकी सांगठनिक अक्षमता निश्चित तौर पर उसकी दुर्गति के लिए जिम्मेदार है।हालांकि, साफ दिख रहे इन राजनीतिक संकेतों से इतर देखने की जरूरत है। दरअसल, कांग्रेस का संकट भारतीय राजनीति की कुछ ढांचागत समस्याओं की झलक देती है। ऐसी समस्याएं जो तमाम राजनीतिक पार्टियों में गहरा घर कर चुकी हैं। मेरी राय में मौजूदा संकट के दो अहम पहलू हैं- खोखला प्रोफेशनलिज्म और व्यक्ति पूजा। इसका गंभीर विश्लेषण किया ही जाना चाहिए।

पिछले तीन दशकों में भारत का राजनीतिक वर्ग धीरे-धीरे और ज्यादा संगठित और प्रोफेशनल हुआ है। 90 के दशक की शुरुआत में आर्थिक उदारीकरण के बाद बदले हालात में भारतीय राजनीति में आए इस अहम बदलाव का नेतृत्व कांग्रेस ने ही किया था।राष्ट्रनिर्माण के नेहरूवादी सिद्धांतो को पार्टी ने तिलांजलि दे दी।

पॉलिटिक्स और इकॉनमी के बीच एक काल्पनिक विभाजन रेखा खींच दी गई। उद्देश्य ये कि एक प्रोफेशनल एंटिटी के तौर पर सरकार की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। सरकार की भूमिका महज मार्केट इकॉनमी को ढंग से काम करने सहूलियत देने वाले एक मध्यस्थ की रह गई।

इस तरह राजनीति सामाजिक जुड़ाव को मजबूत करने और उसे बनाने रखने की एक स्पेशलाइज्ड गतिविधि बनकर उभरी।

इन बदलावों ने राजनीतक अभिजात्य वर्ग के सेल्फ-परसेप्शन को भी प्रभावित किया। उन्होंने ‘सेवा’, ‘त्याग’ और ‘कल्याण’ की ‘आदर्शवादी’ राजनीतिक शब्दावली को नहीं छोड़ा। हालांकि, उन्होंने राजनीति को मुख्य पेशे के तौर पर मानना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ, राजनीतिक दलों ने भी जीत ‘दिलाने वाले फैक्टर’ को प्रोफेशनल मजबूरी के तौर पर स्वीकार कर लिया।

वैसे राजनीतिक का यह पेशेवर अंदाज अबतक पूरी तरह एकतरफा ही रहा है। चुने हुए नुमाइंदों के मतदाताओं के प्रति पेशेवर जिम्मेदारी की कहीं कोई चर्चा नहीं है। किसी सांसद या विधायक के सामने जब पार्टी के किसी खास गुट के समर्थन या पार्टी से बाहर आने जैसे व्यावहारिक मुद्दे आते हैं तो उनके लिए नुमाइंदगी का विचार पूरी तरह गौण हो जाता है। उनके लिए प्रोफेशनलिज्म सिर्फ इतना है कि कैसे राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बने रहें।हालांकि, राजनीति का यह रंग सिर्फ किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं है। इतना जरूर है कि इसने राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस के पतन खासकर यूपीए-2 के आखिर के 2-3 वर्षों के दौरान पार्टी की बदहाली में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पार्टी ने मतदाताओं के साथ किसी तरह के प्रभावशाली संवाद की जहमत तक नहीं उठाई। साथ ही साथ शीर्ष नेतृत्व आंतरिक प्रतिद्वंद्विता और गुटबाजी को हवा देने वाले मसलों को लेकर पूरी तरह आंख मूंदे रहा।

व्यक्तिपूजा 1952 के बाद की भारतीय राजनीति का हमेशा से एक अहम पहलू रही है।हालांकि, वह इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने हर स्तर पर वफादारों का एक कोर ग्रुप तैयार करने के लिए बड़े ही करीने से पार्टी रूपी संस्था को तहस-नहस कर दिया।

ऐसा करते हुए उन्होंने राजनीति का एक मॉडल तैयार किया जिसका बाद में राजीव गांधी समेत कांग्रेस के सभी ताकतवर नेताओं ने पार्टी के संस्थानों पर अपने प्रभावशाली दबदबे के लिए इस्तेमाल किया।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि इंदिरा गांधी ने अपने दबदबे के लिए कभी अपने परिवार की विरासत का सीधा इस्तेमाल नहीं किया।इसके बजाय उन्होंने खुद को जनता और देश के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध एक अलग तरह की नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए कड़ी मेहनत की।

2014 के बाद का कांग्रेस नेतृत्व इंदिरा गांधी मॉडल की जटिलताओं को नहीं समझ पाया। राहुल, प्रियंका और यहां तक कि सोनिया गांधी ने भी कोई टिकाऊ पोलिटिकल नैरेटिव बनाए बिना पारिवारिक विरासत का इस्तेमाल स्वीकार्यता हासिल करने के लिए किया। इसका बहुत ही नुकसान हुआ।गांधी परिवार ने वफादारों पर नियंत्रण खो दिया। पार्टी को मजबूत करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई।

यहां तक कि वे यह तक समझ पाने में नाकाम रहे कि मोदी कीअगुआई में बीजेपी ने 2014 के चुनाव से भी पहले इस मुद्दे को चुन लिया था।

मोदी ने अपनी साधारण पृष्ठभूमि और एक आम इंसान की छवि को स्थापित करने के लिए बड़े ही कलात्मक अंदाज में राहुल गांधी को ‘शहजादे’ की संज्ञा दी।

2014 का चुनाव ऐतिहासिक था। आमूल-चूल बदलाव वाला था। इसने कांग्रेस को स्पष्ट संदेश दे दिया कि चुनावी राजनीति के लिए उसका चलताऊ रवैया काम नहीं करने वाला, खासकर तब जब आप दूर की सोच रहे हों। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया। पार्टी उस काल्पनिक स्थिति पर भरोसा किया कि मोदी की अगुआई वाली सरकार की संभावित गलतियां जनता को मजबूर कर देंगी कि वो कांग्रेस को संभावित विकल्प के रूप में स्वीकार कर ले।

दूसरी तरफ, मोदी की अगुआई वाली बीजेपी अटल-आडवाणी वाली पुरानी बीजेपी से काफी अलग है।इसने पोलिटिकल प्रोफेशनलिज्म को एक नई दिशा दी।

बीजेपी नेतृत्व ने पब्लिक ऑपिनियन के महत्व को पहचाना और मोदी की सकारात्मक छवि बनाने के लिए कड़ी मेहनत की। ऐसी छवि कि मोदी एक प्रतिबद्ध नेता हैं, हमेशा देश और जनता की भलाई के बारे में सोचते रहते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वह अपनी प्रोफेशनल जवाबदेही को अच्छे से समझने वाले राजनेता हैं।

इसका मतलब यह नहीं कि बीजेपी में आंतरिक समस्याएं, प्रतिद्वंद्विता, गुट और विरोधाभास नहीं हैं। इसके बाद भी, बीजेपी के भीतर अहम मुद्दों पर लोगों के बीच पहुंचने और पार्टी के प्रचार-प्रसार को लेकर उत्साह और भूख है।

ऐसा लगता है कि कांग्रेस अब भी ऑटो-पालयट मोड में चल रही है। बावजूद इसके कि 1991 के बाद के कालखंड में भारतीय राजनीति को नया आकार देने में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, पार्टी को सूझ नहीं रहा कि आगे क्या किया जाए। यह किसका दोष है? 2014 के बाद के कालखंड में कांग्रेस नेतृत्व को जनता से सीधे संवाद स्थापित करने के लिए भला रोक कौन रहा है।