आने वाले समय में इसरो कुछ नया करने वाला है! भारत का सबसे भारी रॉकेट जियोसिन्क्रोनस सैटलाइट लॉन्च वीइकल-मार्क3 यानी GSLV-Mk3 कॉमर्शियल मार्केट में डेब्यू के लिए पूरी तरह तैयार है। 23 अक्टूबर को इसने ब्रिटेन की कंपनी वनवेब के लिए 36 उपग्रहों को धरती की निचली कक्षा में स्थापित करने की कोशिश की ।
इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (ISRO) अबतक 345 विदेशी सैटलाइट को लॉन्च कर दिया है। इन सभी सैटलाइट को पोलर सैटलाइट लॉन्च वीइकल यानी PSLV से अंतरिक्ष में भेजा गया। इस रॉकेट की विश्वसनीयता और किफायती होने की वजह से दुनियाभर में अपनी एक अलग ही साख है। यहां तक कि इसरो के ज्यादातर मिशन में पीएसएलवी का ही इस्तेमाल होता है।
रॉकेट साइंस टफ होता है और लॉन्च वीइकल नाकामी भी देखते हैं। ऐसे में कॉमर्शियली हिट होने के लिए विश्वसनीयता बहुत अहम है। भारत को अगर प्रतिस्पर्धा में खुद को स्थापित करना है तो उसे रॉकेट पर फोकस करना होगा। भारत थर्ड पार्टी लॉन्च सर्विस मुहैया कराने पर गर्व कर सकता है लेकिन उसे अपनी क्षमताओं को बढ़ाना होगा। रॉकेट टेक्नॉलजी के क्षेत्र में दुनियाभर में बहुत तेजी से काम चल रहा है।
भविष्य में किसी दिन, हो सकता है कि बहुत जल्द Mk3 भी पीएसएलवी की तरह साख हासिल कर लेगा। इसकी वजह भारीभरकम पेलोड ले जाने की इसकी क्षमता है। इस दिशा में चीजें आगे बढ़ रही हैं और इसके लिए अभी से बेहतर वक्त नहीं हो सकता। NSIL ने 5 पीएसएलवी के निर्माण का ऑर्डर दिया है और वह जीएसएलवी-एमके3 की संख्या भी बढ़ाना चाहता है।
इसके अलावा स्माल सैटलाइट लॉन्च वीइकल (SSLV) दूसरी बार लॉन्च के लिए तैयार है। यह अपने पहले प्रयास में नाकाम रहा था। इस तरह भारत के पास ग्लोबल कस्टमर्स के लिए कई लॉन्च वीइकल हैं। तमिलनाडु के कुलाशेखरापत्तनम में 2300 एकड़ के विशाल क्षेत्र में भारत के दूसरे स्पेसपोर्ट का निर्माण भी तेजी से चल रहा है।एमके-3 को भी भविष्य में अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। यह भारत का भले ही हाइएस्ट पेलोड कपैसिटी वाला रॉकेट है वैश्विक मानदंडों के मुताबिक ये सिर्फ मीडियम-लिफ्ट रॉकेट है। उदाहरण के तौर पर स्पेसऐक्स का फॉल्कन-9 ओवर अथ आर्बिट में 23000 किलोग्राम का पेलोड ले जा सकता है जबकि एमके-3 सिर्फ 8000 किलोग्राम।
एक रॉकेट के लिए उसकी विश्वसनीयता और वजन ले जाने की क्षमताएं तो महत्वपूर्ण हैं ही, उसका किफायती होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। फिलहाल लोवर अर्थ ऑर्बिट में पीएसएलवी से 1 किलोग्राम वजन ले जाने का आनुमानित खर्च 14 लाख है। जबकि एमके-3 से यह खर्च करीब 5.7 लाख ही है। वैश्विक स्तर पर भी यह खर्चीला है। नासा के अडवांस्ड स्पेस ट्रांसपोर्टेशन प्रोजेक्ट के मुताबिक अर्थ ऑर्बिट में 1 पाउंड के पेलोड को ले जाने पर 10 हजार डॉलर यानी करीब 8 लाख रुपये का खर्च आएगा जिसे 100 गुना कम करने का लक्ष्य रखा गया है। यही वजह है कि ज्यादातर स्पेस एजेंसी रीयूजेबल रॉकेट पर जोर दे रही हैं।
इसरो के तमाम वैज्ञानिकों के मुतबिक रीयूजेबल रॉकेट यानी दोबारा इस्तेमाल किए जा सकने वाले रॉकेट से लॉन्चिंग का खर्च अभी के मुकाबले 10 गुना कम हो जाएगा।भारत अभी इस तकनीक से बहुत दूर है।इसरो न्यू जनरेशन लॉन्च वीइकल (NGLV) तैयार करने की योजना बना रहा है जो रीयूजेबल है।हालांकि, इस दशक में भारत में रीयूजेबल रॉकेट का सपना पूरा होना नामुमकिन सा है। अगले दशक में भी यह मुश्किल है।
वैसे इसरो सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। जब वह रीयूजेबल रॉकेट विकसित कर लेगा तब उच्च पेलोड क्षमता वाला एमके-3 और विश्वसनीय एसएसएलडी इसरो को हर तरह की मांग के लिए रॉकेट्स की एक कंपलीट रेंज मुहैया कराएंगे।एक रॉकेट के लिए उसकी विश्वसनीयता और वजन ले जाने की क्षमताएं तो महत्वपूर्ण हैं ही, उसका किफायती होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। फिलहाल लोवर अर्थ ऑर्बिट में पीएसएलवी से 1 किलोग्राम वजन ले जाने का आनुमानित खर्च 14 लाख है।
जबकि एमके-3 से यह खर्च करीब 5.7 लाख ही है। वैश्विक स्तर पर भी यह खर्चीला है। नासा के अडवांस्ड स्पेस ट्रांसपोर्टेशन प्रोजेक्ट के मुताबिक अर्थ ऑर्बिट में 1 पाउंड के पेलोड को ले जाने पर 10 हजार डॉलर यानी करीब 8 लाख रुपये का खर्च आएगा जिसे 100 गुना कम करने का लक्ष्य रखा गया है। यही वजह है कि ज्यादातर स्पेस एजेंसी रीयूजेबल रॉकेट पर जोर दे रही हैं। इसरो को गगनयान जैसे महत्वाकांक्षी मिशन के बीच भी लॉन्च वीइकल विकिसत करने की अपनी प्राथमिकताओं को बरकरार रखना होगा। यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब आप एक कम्यूनिकेशन सैटलाइट को अर्थ ऑर्बिट में स्थापित करते हैं तो यह शहरों से लेकर गांवों तक सटीक नेविगेशन की सुविधा देता है। इसके अलावा वह मंगल, शुक्र जैसे ग्रहों की हलचल पर नजर रखने और इंसान को अंतरिक्ष में भेजने में भी मददगार साबित हो सकता है। और यह सबकुछ लॉन्च वीइकल पर निर्भर करता है।