फरीदकोट के राजा के बारे में तो आपने सुना ही होगा! फरीदकोट एस्टेट को लेकर 30 सालों से भी लंबे समय से चली आ रही लड़ाई पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। यह विवाद लगभग 20,000 करोड़ रुपये की संपत्ति के असली हकदार को लेकर था। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को फैसला सुनाते हुए पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने महाराजा हरिंदर सिंह बराड़ (Maharaja Harinder Singh Brar) की दो बेटियों अमृत कौर और दीपिंदर कौर के पक्ष में फैसला सुनाते हुे कहा कि जो ट्रस्ट, संपत्ति के मामलों का प्रबंधन कर रहा था, वह एक जाली वसीयत के आधार पर बनाया गया था। दरअसल फरीदकोट एस्टेट (Faridkot Estate) के हक के लिए जो याचिकाएं दायर की गई थीं, उन्हें खारिज कर दिया गया। वहीं ट्रस्ट को लेकर कहा गया है कि ‘महरावल खेवाजी ट्रस्ट’ 30 सितंबर तक बकाया मामलों को निपटाने के साथ ही धर्मार्थ अस्पताल चला सकता है। मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने व्यापक रूप से सबूतों की जांच की। न्यायालयों के जरिए लिए गए सभी निष्कर्षों पर सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह से सहमत है।
फरीदकोट एस्टेट पूरे विवाद में सबसे बड़ी हड्डी तीसरी वसीयत थी। इसको लेकर कथित तौर पर यह कहा जाता रहा कि साल 1982 में हरिंदर सिंह ने यह की थी। जिसके अनुसार पूरी संपत्ति “महरवाल खेवाजी ट्रस्ट” नामक एक ट्रस्ट को विरासत में मिलेगी। महाराजा की तीन बेटियां अमृत कौर, दीपिंदर कौर और महीपिंदर कौर हैं। साल 1989 में महाराजा की मृत्यु हो गई। इसके बाद परिवार के सदस्यों को उनकी कथित तीसरी वसीयत के बारे में पता चला। इस वसीयत के मुताबिक यह पहले की वसीयत को खासा बदल देती है।
महाराजा की मृत्यु के बाद, न्यासी मंडल ने निष्पादकों की सहमति से राजा हरिंदर सिंह बराड़ की पूरी संपत्ति पर कब्जा कर नियंत्रण और प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। साथ ही साथ विभिन्न राजस्व सम्पदाओं में स्थित संपत्तियों को ट्रस्ट के नाम पर बदल दिया गया। वहीं शहरी संपत्तियों को भी ट्रस्ट के नाम पर स्थानांतरित कर दिया गया। इसके बाद महाराजा की सबसे बड़ी बेटी अमृत कौर, जिसे कि ट्रस्ट का हिस्सा नहीं बनाया गया था, उसने हक के लिए एक मुकदमा दायर किया। जिसमें कहा गया कि वह संपत्ति के 1/3 हिस्से की मालिक है और पिता की कथित तीसरी वसीयत पूरी तरह से झूठी है। वहीं दूसरा मुकदमा हरिंदर सिंह के छोटे भाई ने दायर किया गया था, जिसमें वंशानुक्रम के नियम के आधार पर पूरी संपत्ति की विरासत की मांग की गई थी।
महीपिंदर कौर महाराजा की सबसे छोटी बेटी थी, जिसकी साल 2001 में मृत्यु हो गई थी। उस वक्त मामला निचली अदालत में लंबित चल रहा था। वह अविवाहित थी, जिसके चलते अपनी दो बहनों के अलावा उसका कोई भी नहीं था जो कि उसकी ओर से संपत्ति पर दावा कर सके। छोटी बेटी ने भी दायर याचिका में दावा किया था कि राजा को संयुक्त हिंदू परिवार के कोष के रखरखाव के अलावा दिवंगत राजा की संयुक्त हिंदू परिवार/पैतृक/सहदायिक संपत्तियों को अलग करने का कोई अधिकार नहीं है। छोटी बेटी की दायर याचिका के मुताबिक एक हिंदू राजा होने के नाते हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार वारिस समान शेयरों में संपत्ति के हकदार हैं।
हाईकोर्ट ने कहा था कि सभी दस्तावेजों और सबूतों की जांच करने के बाद, निचली अदालत और साथ ही हाई कोर्ट खुद इस नतीजी पर पहुंचा था कि तीसरी वसीयत वैध नहीं है, क्योंकि यह जाली थी। इसलिए पहले की अदालतों के फैसले को ध्यान में रखते हुए शीर्ष अदालत ने निष्कर्षों को बरकरार रखा और तीन दशक पुराने शाही विवाद को समाप्त कर दिया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन महाराजा के छोटे भाई की भी इस दलील को भी खारिज कर दिया कि वह वंशानुक्रम के नियम के तहत संपत्ति के वारिस के हकदार थे, जिसके मुताबिक के जरिए छोड़ी गई संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारी के हाथों में ही आनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजा हरिंदर सिंह की दिनांक 01.06.1982 को कथित वसीयत जाली व मनगढ़ंत है। जिससे यह संदिग्ध प्रतीत होती है, इसलिए इसके तहत गठित महरवाल खेवाजी ट्रस्ट कानूनी रूप से गठित ट्रस्ट नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर सहमति जताते हुए कहा कि क्योंकि ट्रस्ट प्रबंधन कर रहा था। इसलिए बकाया मामलों को देखते हुए अदालत ने कहा कि “ट्रस्ट केवल 30.09.2022 तक चैरिटेबल अस्पताल चलाने का हकदार होगा। इसके साथ ही प्रबंधन से लेकर वित्त व संचालन प्रबंधन की नियुक्ति से जुड़ी आवश्यकता को लेकर जो फैसला अदालत ने सुनाया है, वह मान्य होगा।