Sunday, September 8, 2024
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जब एक बेगुनाह को गुनाह ना करने पर भी मिली सजा!

हाल ही में एक ऐसी घटना सामने आई है जब एक बेगुनाह को गुनाह ना करने पर भी सजा मिली है! छत्तीसगढ़ के एक गरीब घर के व्यक्ति को जिस जुर्म के लिए सजा मिली, वह तो उसने कभी किया ही नहीं था। उसे 11 साल जेल में डाल दिया गया था। उस व्यक्ति को देश की ही अदालतों पहले ट्रायल कोर्ट और फिर हाई कोर्ट ने हत्या का दोषी मान सजा दी थी। जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जैसे सारी तस्वीर ही शाशे की तरह साफ हो गई। सुप्रीम कोर्ट ने उसे बेगुनाह साबित कर दिया और अत: उसे जमानत मिल गई। आइए समझते हैं कि कैसे बिना किसी गुनाह के छत्तीसगढ़ के इस शख्स को इतनी बड़ी सजा मिल गई थी। यह मामला देश की धीमी गति वाली आपराधिक न्याय प्रणाली का उदाहरण है।मुख्य परीक्षा और जिरह में गवाह का बयान पूरी तरह से अलग है। बता दें कि देश की धीमी गति वाली आपराधिक न्याय प्रणाली का उदाहरण है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की बिलासपुर बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखने में पांच साल और सुप्रीम कोर्ट ने उसे हत्या के आरोपों से बरी करने में छह साल लगा दिए,अपीलकर्ता का अपराध उचित संदेह से परे साबित नहीं हुआ है। क्योंकि उसने पाया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे उसके अपराध को साबित करने में विफल रहा। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की बिलासपुर बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखने में पांच साल और सुप्रीम कोर्ट ने उसे हत्या के आरोपों से बरी करने में छह साल लगा दिए, क्योंकि उसने पाया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे उसके अपराध को साबित करने में विफल रहा।

रायपुर के खरोरा गांव में 2 मार्च, 2013 को अपनी सौतेली मां को जबरन डुबोने के आरोप में रत्नू यादव को गिरफ्तार किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने 9 जुलाई, 2013 को फास्ट ट्रैक ट्रायल के जरिए उसे दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। हाई कोर्ट ने 7 अप्रैल, 2018 को ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। इसलिए, हमारे विचार से गवाह की गवाही विश्वसनीय नहीं है।उसके लिए कोई वकील पेश नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष द्वारा रिकॉर्ड पर रखे गए साक्ष्यों की जांच के आधार पर अधिवक्ता श्रीधर वाई चितले को न्याय मित्र नियुक्त किया। चितले ने कहा कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि मौत डूबने से हुई थी, लेकिन अभियोजन पक्ष ने यह साबित करने का भार नहीं उठाया है कि यह हत्या थी।

न्याय मित्र ने यह भी बताया कि गवाह मुकदमे के दौरान अपने बयान से पलट गया, जिससे अभियोजन पक्ष की इस कहानी की विश्वसनीयता खत्म हो गई कि उस व्यक्ति ने अपनी सौतेली मां को जबरन डुबो दिया। जस्टिस एस ओका और जस्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि मानवीय आचरण का सामान्य नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपने द्वारा किए गए अपराध को स्वीकार करना चाहता है, तो वह उस व्यक्ति के समक्ष ऐसा करेगा, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास है। अभियोजन पक्ष का यह मामला नहीं है कि अपीलकर्ता (यादव) का घटना से पहले एक निश्चित अवधि तक इस गवाह से घनिष्ठ परिचय था। इसके अलावा, मुख्य परीक्षा और जिरह में गवाह का बयान पूरी तरह से अलग है। बता दें कि देश की धीमी गति वाली आपराधिक न्याय प्रणाली का उदाहरण है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की बिलासपुर बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखने में पांच साल और सुप्रीम कोर्ट ने उसे हत्या के आरोपों से बरी करने में छह साल लगा दिए, क्योंकि उसने पाया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे उसके अपराध को साबित करने में विफल रहा। इसलिए, हमारे विचार से गवाह की गवाही विश्वसनीय नहीं है।

अभियोजन पक्ष के मामले में कुछ और इसी तरह की विसंगतियां पाए जाने के बाद, पीठ ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के फैसलों को खारिज कर दिया, आरोपी को बरी कर दिया और कहा कि उसने पाया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे उसके अपराध को साबित करने में विफल रहा। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की बिलासपुर बेंच ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखने में पांच साल और सुप्रीम कोर्ट ने उसे हत्या के आरोपों से बरी करने में छह साल लगा दिए, क्योंकि उसने पाया कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे उसके अपराध को साबित करने में विफल रहा।अपीलकर्ता का अपराध उचित संदेह से परे साबित नहीं हुआ है।

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