भारत में कई वीर पैदा हुए हैं! इस साल हमें अंग्रेजों से आजाद हुए 75 साल हो गए हैं। नरेंद्र मोदी सरकार देश भर में आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है। वह आजादी जिसे पाने के लिए हमारे वीरों ने अपने जान न्योछावर कर दिए। सैकड़ों महान क्रांतिकारियों में एक शहीद खुदीराम बोस भी थे। तारीख 11 अगस्त, साल 1908…यह वही दिन था जब खुदीराम बोस को फांसी पर लटकाया गया था। उनकी फांसी के बाद ‘इम्पायर’ अखबार ने लिखा – ‘फांसी का फंदा गले में डाले जाते समय वह तनकर खड़े थे। प्रसन्न थे। मुस्कुरा रहे थे। श्मशान घाट पर खुदीराम की अस्थियों की राख पाने के लिए जनता व्याकुल थी। डिब्बियों में उसे संजो रहे थे। बाद में ताबीज में भरकर माताओं ने अपने बच्चों को बांधा ताकि वे भी खुदीराम बोस जैसे बहादुर देशभक्त बनें। बोस के बलिदान का संदेश दूर तक फैला और लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा तेज हुआ। क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ने वाले युवकों की तेजी से तादाद बढ़ने लगी।’ फांसी की सजा से एक दिन पहले खुदीराम बोस ने वकीलों से कहा था,’ चिंता मत कीजिए। पुराने दौर में राजपूत महिलाएं बिना किसी भय के आग की लपटों में कूदकर जौहर करती थीं। मुझे मौत का भय नहीं है।’
30 अप्रैल, 1908 का मुजफ्फरपुर बिहार बम कांड 1857 क्रांति के अगले चरण के इतिहास में श्रीगणेश के तौर पर याद किया जाता है। इस दिन खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश किंग्सफोर्ड को बम से उड़ाने की असफल कोशिश की थी। बम दूसरी बग्घी पर फटा जिसमें सवार दो अंग्रेज महिलाएं मारी गई थीं। क्रांतिकारियों को दो निर्दोष महिलाओं की मौत का अफसोस था। पर अंग्रेजों को देश के बाहर निकालने के लिए वे हिंसा को जरूरी मानते थे। इस कांड पर 26 मई, 1908 को प्रसिद्ध राष्ट्रवादी अखबार ‘केसरी ‘ की टिप्पणी थी, ‘भारत में बम का आना अंग्रेजों के लिए 1857 के विद्रोह के बाद की सबसे बड़ी चौंकाने वाली घटना थी।’ इतिहासकारों ने इस घटना को आजादी की लड़ाई के नए अध्याय के तौर पर दर्ज किया। कलकत्ता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट के पद पर तैनाती के दौरान क्रांतिकारियों के प्रति किंग्सफोर्ड की छवि काफी सख्त और निर्मम थी। क्रांतिकारी उससे बदला लेने पर आमादा थे। खुफिया सूचनाओं के बाद किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर ट्रांसफर किया गया। पर क्रांतिकारी बदला लेने के अपने फैसले पर अटल थे और मुजफ्फरपुर जा पहुंचे।
छिना मां-बाप का साया, दीदी बनीं सहारा
3 दिसंबर, 1889 को मिदनापुर पश्चिम बंगाल के पास हबीबपुर गांव में जन्मे खुदीराम के पिता त्रिलोक्यनाथ बसु नाराजोल स्टेट के तहसीलदार थे। मां लक्ष्मीप्रिया देवी ने बेटे के पैदा होने के बाद अकाल मृत्यु टालने के लिए प्रतीकस्वरूप उसे किसी को बेच दिया। उस दौर और इलाके के चलन के मुताबिक बहन अपरूपा ने तीन मुठ्ठी खुदी चावल के छोटे-छोटे टुकड़े देकर अपना भाई वापस ले लिया। चूंकि खुदी के बदले परिवार में वापसी हुई , इसलिए नाम दिया खुदीराम। खुदीराम तो बच गए, लेकिन उनके छह साल का होने तक माता-पिता दोनों का साया सिर से उठ गया। स्नेह-वात्सल्य उड़ेलती दीदी अपरूपा ने मां-बहन दोनों की जिम्मेदारियां निभाईं। अपनी ससुराल हाटगछिया में अपरूपा ने भाई को साथ रखा। तमलुक के हैमिल्टन स्कूल में भर्ती कराया। उन्ही दिनों वहां हैजा फैला। रोगियों के नजदीक जाने की लोग हिम्मत नही जुटा पाते थे। दूसरी तरफ खुदीराम रोगियों की सेवा करते। रोज कई मौतें होतीं। खासतौर पर रात में लोग श्मशान के एक पेड़ पर भूत रहने के खौफ में वहां जाने की हिम्मत नही बटोर पाते थे। खुदीराम इतने बहादुर कि देर रात वहां से उस पेड़ की टहनी तोड़ कर वापस लौटे।
स्कूली पढ़ाई के दौरान अनेक मौकों पर खुदीराम का सेवा भाव और साहस मित्रों को चमत्कृत कर रहा था। वहीं दीदी अपरूपा उनकी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो रही थीं। उन्हें मिदनापुर के नए स्कूल में भर्ती कराया गया। 1905 में बंग भंग विरोधी आंदोलन खुदीराम के जीवन में नया मोड़ लेकर आया। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी खुदीराम विभाजन के विरोध में सक्रिय हो गए। पढ़ाई से उनका मन उचट चुका था। किशोरावस्था में ही मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा उफान पर था। खुदीराम ने तमाम लोगों के साथ जगन्नाथ मंदिर में बंग विभाजन रद्द न होने तक विदेशी वस्तुओं को हाथ न लगाने की शपथ ली। वह शिक्षक सत्येन बोस के सम्पर्क में आए जो उन दिनों मिदनापुर के युवकों को क्रांतिकारी गतिविधियों से जोड़ने में लगे हुए थे।
स्वदेशी वस्तुओं के प्रति खुदीराम का आग्रह बढ़ता ही गया। इस सवाल पर वह कोई समझौता करने को तैयार नही थे। मिदनापुर के दुकानदारों को उन्होंने विदेशी माल के व्यापार से दूर रहने को मजबूर कर दिया। बार बार के अनुरोध और चेतावनियों को नजरअंदाज करने वाले एक दुकानदार के विदेशी वस्तुओं से भरे एक गोदाम को आग के हवाले करने की हद तक चले गए। उनकी शख्सियत का दूसरा पहलू सेवा-सहयोग, करुणा-समर्पण से लबरेज था। कासवंती नदी की बाढ़ ने गोबर्धनपुर और पास-पड़ोस के गांवों की आबादी का सब कुछ छीन लिया। खुदीराम और उनके साथियों ने पीड़ितों को सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाने और राहत उपायों में दिन-रात एक कर दिया। जाड़े की एक सुबह ठिठुरते भिखारी को पिता की निशानी पश्मीने की कीमती शाल खुदीराम ने सौंप दी। दीदी ने कहा वह बेच देगा। खुदीराम का जवाब था कि वह पैसे भी उस गरीब के किसी काम आ जाएंगे।
क्रांति के प्रतीक बनकर उभरे खुदीराम बोस की शहादत का संदेश क्षणिक नहीं था। महान बांग्ला कवि नजरुल इस्लाम ने 18 सालों बाद उन्हें याद करते हुए लिखा, ‘ओ माताओं! क्या तुम उस दुस्साहसी बालक के बारे में सोच सकती हो जो तुम्हारे अपने बेटे से अलग है। क्या तुम एक बिन मां के बच्चे को फांसी पर चढ़ते देख सकती हो? तुम अपने बेटे की मंगलकामना के लिए तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करती हो, किंतु क्या तुमने उन देवताओं से प्रार्थना की कि वे खुदीराम की रक्षा करें? क्या इसके लिए लज्जा अनुभव करती हो? मुझे मालूम है तुम्हारे पास मेरे सवालों का जवाब नहीं है। हम एक मांग लेकर तुम्हारे दरवाजे पर खड़े हैं। हम अपने खुदीराम को वापस चाहते हैं क्योंकि वह उन लोगों का नहीं था जिनकी माताएं हैं। वह उन लोगों का था जो बिन मां के हैं। खुदीराम वापस लौटने के लिए गया था, देश के हर घर में पैदा होने के लिए। उसे अपने घर की सुख-सुविधाओं में कैद न करो। बाहर निकलने दो, क्योंकि वे सिर्फ अपनी मांओं और घरों के लिए नही हैं। वह तुम्हारे लिए नहीं हैं, न मेरे लिए। वे पूरे देश के लिए हैं। देश पर बलिदान होने के लिए, देश की पूजा करने के लिए। खुदीराम तुम कहां हो। मेरे भाई! तुमने वादा किया था कि तुम 18 महीने बाद फिर से पैदा होंगे। लेकिन 18 बरस बीत गए। अपने गीत को याद करो। हमारा नेतृत्व करो ताकि हम देश के लिए फांसी के फंदे को गले लगा सकें।’