अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा जिसका आधार मुलायम सिंह यादव थे, वे अब उसके अध्यक्ष नहीं रहे! तीन दशक पुरानी समाजवादी पार्टी के साथ यादव वोट बैंक का रिश्ता जग जाहिर है। भाजपा से लेकर तमाम सियासी दलों की तमाम कोशिशों के बाद भी यादव वोट बैंक सपा की मजबूती बना हुआ है। लेकिन क्या भविष्य में ऐसा रहेगा? ये बड़ा सवाल है क्योंकि उत्तर प्रदेश में समय अब करवट लेने लगा है। हाल ही में हुए आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव के रिजल्ट बता रहे हैं कि सेंधमारी शुरू हो चुकी है। यूपी का चुनावी इतिहास गवाह है कि जब तक समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव के पास रही, तब तक तो ऐसा संभव नहीं हो सका। मुलायम के जमाने में यादवों को लुभाने तक का जतन कोई पार्टी नहीं करती थी। बीजेपी ने तो 2017 के चुनाव में गैर यादव ओबीसी वोट बैंक हासिल करने की रणनीति ही अपनाई थी। लेकिन अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी धीरे-धीरे कई मजबूत किले हारती जा रही है और विरोधियों के हौसले अब बुलंद हैं। इन तमाम चुनौतियों के बीच इसी महीने गुजरात से अखिलेश यादव के लिए बुरी खबर आई। राज्य भले ही दूसरा हो लेकिन ये खबर सपा के एक और किला ढहने की थी। ये वो किला था जो मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन का मजबूत स्तंभ माना जाता रहा। इस पर चढ़कर मुलायम ने यूपी ही नहीं देश की सियासत में अपना लोहा मनवाया। अब इसके ढहने को अब अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के भविष्य की सियासत से जोड़कर देखा जा रहा है।
ये किला और कोई नहीं अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा है। ये वो संगठन है, जो 12 साल बाद अपने 100 वर्ष पूरे कर लेगा। अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा की स्थापना वर्ष 1924 में की गई थी। इस महासभा पर हमेशा से यूपी के नेताओं का ही वर्चस्व रहा। कुल 46 अध्यक्षों में से अधिकतर यूपी से ही रहे। मुलायम सिंह यादव शुरुआत से ही इस महासभा से जुड़े रहे। 90 का दशक आते-आते मुलायम का महासभा में वर्चस्व कायम हो गया। चौधरी राम गोपाल, हरमोहन सिंह और उदय प्रताप सिंह तीनों ही सपा से जुड़े रहे और महासभा में अध्यक्ष रहे।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को यादवों का सबसे बड़ा नेता बनाने में इसी महासभा का योगदान माना जाता रहा है। 60 के दशक से मुलायम सिंह यादव के लिए अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा मजबूत रीढ़ की तरह साथ देती आई। हालांकि ये गैर राजनीतिक संगठन ही रहा लेकिन यूपी में मुलायम के लिए ये सियासी लाभ दिलाने का माध्यम रही। 90 के दशक में जब मुलायम ने समाजवादी पार्टी का गठन किया तो यादव महासभा का आधार उनके काफी काम आया। समाजवादी पार्टी देखते ही देखते सत्ता के पायदान पर पहुंच गई। महासभा की ही देन रही कि मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी से यादव वोट बैंक सीधे तौर पर जुड़ गया। तमाम सियासी आंदोलनों, प्रदर्शनों में मुलायम को इस महासभा का साथ मिला।
लेकिन 2017 में समय बदला और समाजवादी पार्टी की बागडोर अखिलेश यादव के हाथ आई, मुलायम अब सपा संरक्षक बन चुके थे। यही नहीं यादव परिवार में भी फूट पड़ चुकी थी। चाचा शिवपाल अलग राह पकड़ चुके हैं। देखते ही देखते चुनाव दर चुनाव सपा कमजोर होती गई। 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन समाजवादी पार्टी प्रमुख विपक्षी दल ही बन पाई। इसके बाद लोकसभा उपचुनाव में आजमगढ़ की अखिलेश यादव अपनी ही छोड़ी गई सीट जिता न सके, रामपुर भी चला गया।
एक तरफ अखिलेश सपा का गढ़ एक-एक कर गंवा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मुलायम की तुलना में उनकी छवि में अंतर है। मुलायम ने जहां एक तरफ जमीनी नेता की अपनी छवि बनाई, और समर्थकों में ‘धरतीपुत्र’ कहलाए। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने जाति का दामन भी मजबूती से थामे रखा। वह यादवों और मुस्लिमों के नेता भी बने। लेकिन अखिलेश के साथ ऐसा नहीं है। वह यादवों, ओबीसी जातियों, मुस्लिमों की बात जरूर करते हैं लेकिन दूरी भी दिखती है।
बहरहाल, 2022 में एक तरफ सपा अपने कठिन दौर से गुजर रही है, वहीं दूसरी तरफ सियासी दलों ने भी अब यादव वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिशें शुरू कर दी हैं। इस महीने गुजरात से आई एक खबर ने सपा के लिए चिंता और बड़ी कर दी है। यहां पहली बार अखिल भारत वर्षीय यादव महासभा से समाजवादी पार्टी का वर्चस्व टूट गया है। अगस्त में पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। 11 सितंबर को गुजरात के द्वारका में महासभा की कार्यकारिणी बैठक हुई। इसमें बंगाल के स्वप्निल कुमार घोष को महासभा का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। वैसे स्वप्निल कुमार घोष पहले से ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पदाधिकारी थे। उन्हें एक माह पूर्व ही उदय के इस्तीफे के बाद कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया था।
खास बात ये रही कि इस कार्यकारिणी में जौनपुर से बसपा सांसद श्याम सिंह यादव को कार्यकारी अध्यक्ष चुना गया। अब सपा की धुर विरोधी बसपा के नेता की महासभा में बढ़ती पकड़ चर्चा का विषय बनी हुई है। दिलचस्प ये है कि यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा के साफ होने के बाद श्याम सिंह यादव द्वारा गृह मंत्री अमित शाह और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की तारीफ भी चर्चा में रही थी।
एक तरफ भाजपा और बसपा हैं, तो दूसरी तरफ अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव हैं। दोनों के बीच रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। शिवपाल अब अपनी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को खड़ा करने की पूरी तैयारी में हैं और उनका भी पहला टार्गेट यादव वोट बैंक ही है। वर्षों तक मुलायम के साथ यादव महासभा से जुड़े रहे शिवपाल ने अब यूपी में यदुकुल पुनर्जागरण मिशन की शुरुआत की है। उनके साथ डीपी यादव खड़े हैं, जो मुलायम के करीबी माने जाते थे। शिवपाल का कहना है कि मिशन के जरिए यादवों के साथ अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को भी एकजुट कर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी जाएगी।
दिलचस्प बात ये भी है कि बढ़ती उम्र को देखते हुए मुलायम सिंह यादव के 2024 में मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर संशय की स्थिति है और शिवपाल खेमे की तरफ से इस पर दावेदारी शुरू कर दी गई है। जाहिर है यादव वोट बैंक को सपा से जोड़े रखने के लिए अखिलेश के सामने चुनौतियां तेजी से खड़ी हो रही हैं। अब देखना ये होगा कि अखिलेश इन सभी चुनौतियों से कैसे निपटते हैं।