गुलाब नबी आजाद लंबे समय से कांग्रेस के वफादार रहे हैं! कांग्रेस ने उन्हें सबकुछ दिया। नाम, शोहरत, ताकत…एक आम कार्यकर्ता से कद्दावर नेता तक। महासचिव, केंद्रीय मंत्री, राज्यसभा में विपक्ष का नेता, संसदीय बोर्ड सदस्य। आज वह जो कुछ भी हैं, कांग्रेस की बदौलत हैं। लेकिन साथ में यह भी उतना ही सच है उन्होंने अपनी पूरी जवानी कांग्रेस के लिए खपा दी। बुढ़ापा खपा दिया। हम बात कर रहे हैं गुलाम नबी आजाद की जिन्होंने शुक्रवार को कांग्रेस को अलविदा कह दिया। 5 दशक तक गांधी परिवार के वफादार रहे गुलाम नबी आजाद का अपने इस्तीफे में उसी परिवार पर बेहद तल्ख हमले पहली नजर में बहुत हैरान करने वाला है। लेकिन आजाद का दर्द बेवजह नहीं है।
सियासत में गुलाम नबी आजाद संजय गांधी की खोज हैं। उन्होंने 1970 के दशक के आखिर में जम्मू-कश्मीर के एक युवा को चुना। उन्हें राष्ट्रीय मंच पर उभारा। 1973 में 24 साल की उम्र में गुलाम नबी आजाद ने जब जूलॉजी में मास्टर्स किया। जीवन के ऐसे मोड़ पर हर युवा इसी सवाल से जूझता है कि आगे किस दिशा में बढ़ें यानी करियर क्या चुने। लेकिन आजाद को इसके लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ा क्योंकि उन्हें संजय गांधी ने चुन लिया था। सबसे पहले उन्हें डोडा जिले के भलेस्सा ब्लॉक का कांग्रेस सेक्रटरी नियुक्त किया गया। उसके बाद तो वह तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते गए। दो साल के भीतर ही जम्मू-कश्मीर यूथ कांग्रेस की कमान उनके हाथ में आ गई। 1980 में वह इंडियन यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। उसी साल केंद्र की चौधरी चरण सिंह सरकार गिर गई। लोकसभा चुनाव में संजय गांधी ने आजाद को आजमाने का फैसला किया। जम्मू-कश्मीर के युवा को महाराष्ट्र के वासिम से लोकसभा उम्मीदवार बनाया गया। आजाद जीत भी गए।
संजय गांधी की मौत के बाद गुलाम नबी आजाद इंदिरा गांधी के भी कृपापात्र और भरोसेमंद बन गए। उनकी सरकार में बतौर जूनियर मंत्री शामिल हुए। 1984 में वह दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए। संसद के निम्न सदन में उनका ये आखिरी कार्यकाल साबित हुआ क्योंकि उसके बाद वह लगातार राज्यसभा के सदस्य रहे। 1980 के दशक में राजीव गांधी ने आजाद को सीताराम केसरी और ऑस्कर फर्नांडीज के साथ संगठन में तमाम अहम जिम्मेदारियां सौंपी। गृह राज्य जम्मू-कश्मीर के चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद भी आजाद पर राजीव गांधी का भरोसा बना रहा। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के जो नेता सोनिया गांधी से पार्टी की कमान संभालने की गुहार लगाने पहुंचे थे उनमें आजाद भी शामिल थे। हालांकि, तब सोनिया गांधी राजनीति में नहीं आईं। केंद्र में जब कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार बनी तब भी आजाद मंत्री बने। नवंबर 2005 में वह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने और जुलाई 2008 तक पद पर रहे। उसके बाद वह फिर राष्ट्रीय राजनीति में लौटे और मनमोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। यूपीए-2 सरकार में भी वह मनमोहन कैबिनेट का हिस्सा रहे। 2014 में वह जम्मू-कश्मीर के ऊधमपुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़े लेकिन मोदी लहर में वह बहुत बुरी तरह पराजित हुए। कांग्रेस ने तब उन्हें राज्यसभा में विपक्ष के नेता की अहम जिम्मेदारी दी।
50 सालों का रिश्ता तोड़ने का दर्द
यह तो बात हुई आजाद की कांग्रेस में सियासी सफर की। लेकिन सवाल है कि आखिर 5 दशकों तक कांग्रेस के ‘प्रथम परिवार’ के वफादार रहे शख्स ने इस्तीफा देते वक्त पार्टी के पतन का ठीकरा राहुल गांधी पर क्यों फोड़ा। सोनिया गांधी को लिखे इस्तीफे में आजाद का ये दर्द भी छलका है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस पार्टी और जिस परिवार ने उन्हें शोहरत, ताकत, पहचान सब कुछ दिया, उसी परिवार के वारिस को कठघरे में खड़ा करना कितना कठिन रहा होगा। आजाद ने कांग्रेस की बदहाली के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने आरोप लगाया कि जब से राहुल गांधी की कांग्रेस में एंट्री हुई तब से पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की अनदेखी की जाने लगी। उन्हें अपमानित किया जाने लगा। राहुल गांधी और उनके ईर्द-गिर्द रहने वाले चाटुकारों की कोटरी पार्टी के कामकाज में हद से ज्यादा दखल देने लगी। यहां तक कि राहुल गांधी के सुरक्षाकर्मी और पीए तक पार्टी के फैसले लेने लगे।
आजाद ने आरोप लगाया है कि उन्होंने 2013 में हुए कांग्रेस के जयपुर महाधिवेशन में पार्टी के कायाकल्प के लिए कई अहम सिफारिशें कीं लेकिन उन पर अमल तो दूर उन्हें गंभीरता से लिया ही नहीं गया। राहुल गांधी और उनकी कोटरी अपने इशारे पर पार्टी को चलाने लगे। वरिष्ठ नेताओं का अपमान होता रहा। यहां तक कि कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेता ने जब पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाए तो कोटरी ने उनके घर पर ‘गुंडे’ भेजकर हमले करवाए। आजाद ने 2014 के बाद चुनाव दर चुनाव कांग्रेस की लगातार हार का भी जिक्र किया और आरोप लगाया कि पार्टी की बेहतरी के लिए अनुभवी नेताओं के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। आजाद कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं के समूह G-23 के अगुआ थे जिसमें ज्यादातर वरिष्ठ और अनुभवी नेता शामिल थे।
उस खत के बाद से ही आजाद के भावी कदम को लेकर समय-समय पर अटकलें लगने लगी थीं। वैसे भी कपिल सिब्बल, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव जैसे G-23 के नेताओं ने अपनी राह कांग्रेस से जुदा कर ली। फरवरी 2021 में जब आजाद की राज्यसभा से विदाई के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में उनकी तारीफों के पुल बांधें, भावुक हुए तब भी आजाद को लेकर अटकलें लगी थीं। बाद में जब मोदी सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा तो उसके भी सियासी निहितार्थ निकाले गए। तब भले ही आजाद ने कांग्रेस नहीं छोड़ी लेकिन आखिरकार उन्होंने भी पार्टी को अलविदा कह ही दिया।