यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बीजेपी यूपी में वापस जीत पाएगी या नहीं! जीवन और आजीविका के रोजमर्रा के संघर्ष – रोटी, कपड़ा और रोजगार – पूर्वी और पश्चिमी यूपी में हर किसी चुनावी चर्चा का अभिन्न अंग हैं। लेकिन चुनावी चर्चा में जाति और समुदाय की केंद्रीयता बनी हुई है। मोटे तौर पर भाजपा के सामाजिक गठबंधन उच्च जातियां + पटेल, निषाद और अन्य जैसे गैर-यादव ओबीसी और समाजवादी पार्टी यादव + मुस्लिम बरकरार हैं। सपा की सहयोगी कांग्रेस शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में इस संयोजन में दूरदर्शिता और एक निश्चित आश्वासन लेकर आती है। बीएसपी अभी भी अधिकांश दलितों के लिए पसंदीदा पार्टी है, लेकिन गैर-जाटव दलितों का एक वर्ग पलायन कर सकता है। इलाहाबाद के बाहरी इलाके में रहते हैं। चार बेटियों के पिता, जिनमें से दो किशोरावस्था में हैं, कहते हैं कि मोदी-योगी शासन के दौरान ‘कानून और व्यवस्था’ में सुधार हुआ है। उनके और उनके जैसे कई लोगों के लिए ‘कानून-व्यवस्था’ उनके दैनिक जीवन में महिलाओं की सुरक्षा का पर्याय है। गाजियाबाद के फल विक्रेता शमीम, नागरिकता पर केंद्र के नए कानून की आलोचना करते हुए और असहज होकर कहते हैं कि हाल के वर्षों में शासन के बारे में एकमात्र सकारात्मक बात यह है कि ‘बेटियां महफूज हैं।’ कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है। जनता प्रदेश में मजूत हुई कानून-व्यवस्था के गुनगान में भेदभाव नहीं करती। पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था को लोग सीधे अनुभव कर रहे हैं।
बहुत समय पहले तक यूपी में छतों पर पार्टी के झंडे लहराना आम बात थी। कस्बों में भाजपा के झंडे हावी थे, लेकिन जैसे-जैसे हम मुफस्सिल, कस्बा और गांवों की ओर बढ़ते गए, वैसे-वैसे यह कम होता गया, जहां सपा और बसपा के झंडे खूब लहराते थे। अब पार्टी के झंडे गायब हो गए हैं। गैर-भाजपा हिंदू मतदाताओं के घरों में भी विभिन्न प्रकार के राम मंदिर और हनुमान के झंडे सबसे अधिक दिखाई देते हैं। अयोध्या राम मंदिर ने भाजपा के लिए बहुत अधिक सद्भावना अर्जित की है, लेकिन धर्म लोगों के बीच चर्चा का मुख्य मुद्दा नहीं है। एनडीए सरकार की सभी योजनाओं में से प्रति व्यक्ति 5 किलो मुफ्त अनाज सबसे प्रभावी और दूरगामी प्रतीत हुआ। जाति या समुदाय से इतर दूरदराज के इलाकों में जितने भी लोगों से बात हुई, उनमें से अधिकांश ने माना कि उन्हें मुफ्त अनाज मिला है। जरूरतमंदों ने इसके लिए सरकार की खूब सराहना की।
अभी भी चुनावी बहसों के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं। कहीं भाजपा या उम्मीदवार की अक्सर चर्चा भी नहीं होती। ऐसा लगता है कि नेता के सामने पार्टी गौण हो गई है। यादव ज्यादातर सपा के प्रति समर्पित हैं। लेकिन वाराणसी के रेलवे कुली मनु यादव कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री को वोट देंगे। वे विपक्षी गठबंधन के बारे में पूछते हैं, ‘घर का मुखिया एक होना चाहिए। उनके घर का मुखिया कौन है।’ यहां तक कि जो लोग मोदी को वोट नहीं दे रहे हैं, वे भी उनकी सराहना करते हैं। चंदौली लोकसभा क्षेत्र के एक मतदाता जय सिंह यादव कहते हैं, ‘मोदी जैसा व्यक्ति मिलना मुश्किल है, लेकिन मैं एक मजबूत विपक्ष बनाने में मदद करने के लिए सपा को वोट दूंगा।’
मतदाताओं और समर्थकों में राहुल और अखिलेश, दोनों के प्रति धारणा में निश्चित रूप से सुधार हुआ है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र के संदेश में बेरोजगारी पर खास फोकस रखा है। इसने शहरी युवाओं के एक वर्ग पर सकारात्मक प्रभाव डाला है। बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है और अधिकांश लोगों के लिए ‘रोजगार’ का मतलब सरकारी नौकरी है। चुनाव कवर करने वाले पत्रकारों के लिए यह कहावत आम बात थी कि ‘और पूछिए’। यह कहावत अब गायब हो गई है। हर समुदाय के लोग अब भी खुलकर बोलते हैं। लेकिन ग्रामीण अक्सर कहते हैं कि उनका नाम गुप्त रखा जाए। उनमें से मजाक में पूछते हैं, ‘आप मेरा नाम क्यों जानना चाहते हैं? क्या आप मेरे पीछे ईडी भेजना चाहते हैं?’ यह दिलचस्प है कि कैसे ‘ईडी’ शब्द भारत के अंदरूनी इलाकों की शब्दावली और मनोविज्ञान में घुस गया है, ठीक वैसे ही जैसे चार दशक पहले बोफोर्स ने किया था।
चुनावों से पहले ईवीएम पर तीखी बहस हुई। सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम में किसी तरह की समस्या से इनकार कर दिया। इसके बाद यह ईवीएम पर लांछन को लेकर शोर-शराबा शांत हो गया। लेकिन, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में गैर-भाजपा मतदाताओं के बीच ईवीएम की ईमानदारी और कमजोरी को लेकर संदेह बना हुआ है। बैलेट पेपर की चाहत बहुत प्रबल है, जबकि उन दिनों की यादें पूरी तरह से गायब हैं जब बैलेट पेपर नियमित रूप से लूटे जाते थे, नालों और नदियों में फेंके जाते थे।