क्या कांग्रेस जीत पाएगी संसद का रण?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कांग्रेस संसद का रण जीत पाएगी या नहीं! लोकसभा चुनाव का जनादेश क्या कहता है? कांग्रेस कहती है कि भाजपा को इस जनादेश पर ध्यान देना चाहिए। उसके इस सुझाव में दम है। हालांकि, यह भी खतरा है कि खुद कांग्रेस जनादेश की गलत व्याख्या कर सकती है। हरियाणा से लेकर यूपी और महाराष्ट्र तक, कांग्रेस की सीटें बढ़ने का मुख्य कारण भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना का गहरना था। इसमें कोई संदेह नहीं कि न कांग्रेस के सपोर्ट बेस में वृद्धि हुई है और ना गांधी परिवार ने करिश्मा किया है। इसलिए, नतीजों के भ्रम में पड़कर कांग्रेस नेतृत्व पिछली गलतियां दोहराता रहा तो बेहतर हुआ प्रदर्शन फिर से खराब हो सकता है। इस बार गरीब दोगुनी हुई सीटों से उत्साहित कांग्रेस के सामने मेन टास्क मोमेंटम बनाए रखकर अपना वोटर बेस बढ़ाना है। उसे अपने प्रदर्शन में सुधार को बरकरार रखने के लिए पार्टी को दो रणनीतिक गलतियों से बचना होगा। सबसे पहले तो यह ध्यान देना होगा कि पार्टी अपने नेतृत्व के करिश्मे पर ज्यादा निर्भर नहीं होकर संगठन को मजबूत करे।

गांधी परिवार का फिर से उभरना कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी हो सकती है। संभव है कि राहुल गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हों और प्रियंका गांधी वायनाड से चुनाव लड़कर संसद पहुंच जाएं। राहुल-प्रियंका का उभार कांग्रेस पार्टी के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकता है। यदि गांधी परिवार की बढ़ी हुई शक्ति का उपयोग केवल सभी सांगठनिक फैसले लेने और राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक नेतृत्व के तौर पर उभारने या विधानसभा चुनावों में गांधी केंद्रित प्रचार अभियान चलाने के लिए किया जाता है, तो यह कांग्रेस की प्रगति रोकने का सबब हो सकता है। 2009 के लोकसभा चुनावों में हिंदी पट्टी में अपने प्रभावशाली प्रदर्शन के बाद कांग्रेस ने यही गलती की थी। राहुल को ‘प्रिंस-इन-वेटिंग’ के रूप में पेश करते हुए कांग्रेस ने यूपी और बिहार में होने वाले चुनावों में लगभग सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया। दोनों ही राज्यों में उसे बुरी हार का सामना करना पड़ा। 2022 में उत्तर प्रदेश में प्रियंका की मेहनत से केवल दो विधानसभा सीटें मिल पाईं। तब कांग्रेस ने एक दर्जन सीटों को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर जमानत खो दी।

गांधी परिवार की मजबूत राजनीतिक पूंजी पार्टी को बढ़ावा देने में तभी सहायक होगी जब इसका उपयोग संगठन मजबूत करने और पार्टी में नई जान फूंकने के लिए काफी सावधानी से किया जाएगा। इस रास्ते पर बढ़ते हुए सबसे पहला कदम गुटबंदी के हो रहे आपसी खींचतान पर रोक लगाना है। तभी तेलंगाना और कर्नाटक में कांग्रेस की सरकारें स्थिर हो पाएंगी जबकि हरियाणा और केरल में सरकार बनाने की संभावनाओं को हकीकत में बदल पाएगी। दूसरा, गांधी परिवार की पकड़ का उपयोग उदयपुर शिविर के संकल्पों के मुताबिक संगठनात्मक बदलावों को आगे बढ़ाने और निर्णय लेने वाले सभी इकायों में युवाओं और विविध विचारों वाले नेताओं को जगह देने में करना होगा।

कर्नाटक में जीत के कुछ महीने बाद पिछले साल कांग्रेस कार्यसमिति का पुनर्गठन इसी तर्ज पर किया गया था, जो अच्छी मिसाल थी। पार्टी को ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी नए नेतृत्व को आगे बढ़ाने की जरूरत है, जहां थके हुए पुराने नेताओं ने पार्टी को तहस-नहस कर दिया है। अशोक गहलोत और कमल नाथ के बेटों और खुद भूपेश बघेल की हार ने इन राज्यों में नई शुरुआत करने का बड़ा अवसर दिया है, जहां पिछले साल इन क्षत्रपों के नेतृत्व में कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा था।

दूसरी गलती जिससे पार्टी को बचना चाहिए, वह है राज्य केंद्रित रणनीति के बजाय राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित रणनीति का अनुसरण करना। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि वह अब इंदिरा गांधी के दौर को नहीं दोहरा सकती, जब करिश्माई नेतृत्व और केंद्र से निर्धारित अभियान कमजोर संगठन और घटते सामाजिक आधार की संरचनात्मक समस्याओं को दूर करने के लिए पर्याप्त थे। पार्टी ने यूपी और बिहार में जो नौ सीटें जीती हैं, वो मुख्य रूप से क्रमशः सपा और राजद से मिले समर्थन के कारण हैं। पार्टी को इसका इस्तेमाल संगठनात्मक ताकत और लंबे समय तक एक कोर वोटर बेस बनाने के लिए पुल के रूप में करना चाहिए।

उदाहरण के लिए, भाजपा ने 1990 के दशक के मध्य से ही बिहार, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों में आगे बढ़ने के लिए स्थिर गठबंधन और सामूहिक नेतृत्व की धैर्यपूर्ण रणनीति अपनाई। इसने महसूस किया कि हार्डकोर हिंदुत्व और नेतृत्व का करिश्मा सीमित सफलता ही दिला सकते हैं। तब से दलित-ओबीसी मतदाता बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की रणनीति पर कदम बढ़ाया, जहां वो पारंपरिक रूप से कमजोर रही थी। दूसरी तरफ, उसने उच्च जाति और मध्य वर्ग के मतदाताओं के बीच एक कोर बेस तैयार कर लिया।