यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या आने वाले समय में पाकिस्तान से भारत के रिश्ते सुधरेंगे या नहीं! आपकी जानकारी के लिए बता दे कि एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक घटनाक्रम में, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने आधिकारिक तौर पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस अक्टूबर में इस्लामाबाद आने का निमंत्रण दिया है। यह निमंत्रण आगामी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शासनाध्यक्षों की परिषद की बैठक से जुड़ा है। हालांकि, इन दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रूप से तनावपूर्ण संबंधों को देखते हुए, मोदी के पाकिस्तान आने की संभावना काफी दूर की कौड़ी लगती है। भारत के साथ चल रहे तनाव के कारण पिछले आठ वर्षों में सार्क शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने के इस्लामाबाद के असफल प्रयासों से इसका उदाहरण मिलता है। भारत ने भी पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को 2023 में गोवा में आयोजित विदेश मंत्रियों की बैठक के लिए निमंत्रण भेजा था। मोदी को पाकिस्तान से मिला निमंत्रण भी एससीओ के इसी बहुपक्षीय ढांचे के अनुरूप एक औपचारिकता है। यही वजह है कि पाकिस्तान निमंत्रण भेजने के बावजूद एससीओ मीटिंग में पीएम मोदी की मौजूदगी की उम्मीद नहीं कर रहा है। पाकिस्तान की इस आशंका की वजह सिर्फ भारत से उसका तनावपूर्ण रिश्ता ही नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार प्रमुखों की बैठकों के बजाय एससीओ राष्ट्राध्यक्षों की परिषद के शिखर सम्मेलनों में भाग लेने की अपनी परंपरा बनाई है। सरकार प्रमुखों की बैठकों में विदेश मंत्री एस. जयशंकर भाग लिया करते हैं।
मोदी एससीओ राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मेलनों में नियमित रूप से भाग लेते रहे हैं, हालांकि इस साल की शुरुआत में संसद सत्र चालू होने के कारण वो कजाकिस्तान में आयोजित शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं हो पाए थे। फिर भी, उन्होंने कजाकिस्तान के राष्ट्रपति कासिम-जोमार्ट टोकायेव को शिखर सम्मेलन के लिए भारत के समर्थन का आश्वासन दिया, जो इस सुरक्षा केंद्रित गठबंधन के प्रति भारत के समर्पण को दर्शाता है। इस ब्लॉक में कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों के साथ-साथ चीन, रूस और ईरान शामिल हैं।
भारत ने 2005 में एक पर्यवेक्षक के रूप में एससीओ में शामिल होने और 2017 में पाकिस्तान के साथ पूर्ण सदस्यता प्राप्त करने के बाद से संगठन में सक्रिय भूमिका निभाने का प्रयास किया है। अफगानिस्तान से अमेरिका की तेज वापसी की पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जुड़ाव भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। भारत क्वाड और एससीओ, दोनों में अपनी भागीदारी के माध्यम से अपनी रणनीतिक स्वायत्तता (स्ट्रैटिजिक अटॉनमी) का प्रयोग करना चाहता है। इसके अलावा, एससीओ के चार्टर में जम्मू-कश्मीर जैसे द्विपक्षीय मामलों पर चर्चा पर प्रतिबंध है। इस कारण भी भारत को एससीओ शामिल होने में कोई परेशानी नहीं है।
भारत एससीओ का समर्थन तो करता है, लेकिन बिना शर्त नहीं। जयशंकर ने आतंकवाद से लड़ने के लिए समूह के मूल मिशन को बारीकी से उजागर किया है। भारत कभी पाकिस्तान का स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है, लेकिन इस मुद्दे पर विचार और व्यवहार में दोहरेपन के खिलाफ सतर्क करता रहता है। मोदी ने भी आतंकवाद के संकट का समाधान ढूंढने की आवश्यकता पर जोर दिया है। उन्होंने पाकिस्तान में नामित आतंकवादी संगठनों से जुड़े व्यक्तियों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध पर चीन के प्रभाव पर भी संकेतों में बात की है।
भारत एससीओ के भीतर कनेक्टिविटी के महत्व को पहचानता है। भारत की सोच बिल्कुल स्पष्ट है कि इस तरह की पहलों को सदस्य राज्यों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए। यह विषय विशेष रूप से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर बहुत महत्वपूर्ण है जो पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से होकर गुजरता है। दिलचस्प है कि भारत एससीओ का एकमात्र सदस्य है जो चीन की बेल्ट एंड रोड पहल का समर्थन करने से परहेज करता है क्योंकि उसने कथित चीनी प्रभुत्व के कारण एससीओ ढांचे के तहत प्रस्तावित आर्थिक रणनीतियों में शामिल होने से इनकार कर दिया है।
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त जी. पार्थसारथी का मानना है कि जयशंकर को सरकार प्रमुखों की बैठक में आगे बढ़ना चाहिए, लेकिन द्विपक्षीय चर्चाओं के बारे में कोई भी निर्णय मौजूदा परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए। वर्तमान में, पाकिस्तान गंभीर आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, जिसमें आंतरिक और बाहरी दोनों तरह की वित्तीय स्थिरता का अभाव है। उसे अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी को लेकर निराश उम्मीदों का भी सामना करना पड़ रहा है। यूएई और सऊदी अरब जैसे खाड़ी देशों के साथ इस्लामाबाद के कूटनीतिक संबंध भी भारत की ओर मुड़ गए हैं, जिससे इस क्षेत्र में उसका प्रभाव कम हो गया है। अब जम्मू-कश्मीर के विधानसभाचुनाव होने वाले हैं। भारत सरकार जल्द ही उसके पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर सकती है। पाकिस्तान कहता है कि इन कदमों से जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय का अधिकार खत्म नहीं होता है। हालांकि, इस मोर्चे पर भारत से और अधिक की मांग करना कई लोगों को आधारहीन लगता है। भारत सरकार ने अपना दृढ़ रुख बनाए रखा है। उसका तर्क है कि चर्चा के लिए बचा एकमात्र मामला कश्मीर के एक हिस्से पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है।
2015 में बातचीत की बहाली के असफल प्रयास से भारत और पाकिस्तान के बीच पर्याप्त द्विपक्षीय संपर्क की कमी रही है। हालांकि 2021 में नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम पर सफलत बातचीत हुई थी, लेकिन इसके असर से संबंधों की बहाली नहीं हो सकी। इसका मुख्य कारण कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की वो अपेक्षाएं हैं जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं। उम्मीद की जा रही थी कि शरीफ भाइयों के पाकिस्तान की सत्ता में वापसी से भारत के साथ तनाव कम हो सकता है। हालांकि, इस दिशा में ठोस प्रगति अभी भी मृग मरीचिका ही है। इस कारण, मौजूदा माहौल में आशा की कोई किरण नहीं दिख रही है।