तेजस्वी यादव के लिए मोदी का सामना करना मुश्किल होगा! आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के बेटे और बिहार के पूर्व डेप्युटी सीएम तेजस्वी यादव जन विश्वास यात्रा पर मंगलवार से निकले हैं। 10 दिनों में वे बिहार के सभी जिलों तक पहुंचेंगे। पहले ही दिन वे जहां जहां गए और जिस तरह भारी भीड़ उनकी सभाओं में उमड़ती रही, उससे उनकी बिहार की जनता में लोकप्रियता का पता चलता है। भीड़ का मिजाज वोटों में तब्दील हो गया तो बिहार में परचम लहराने से शायद ही उन्हें कोई रोक पाए। भीड़ जुट रही है। लोग उनकी बात सुन भी रहे हैं। पर, पचा कितने पा रहे हैं, सफलता के लिए इस बैरोमीटर की तकनीक जानना उनके लिए बेहद जरूरी है। तेजस्वी के निशाने पर नीतीश कुमार तो रहेंगे ही। इसलिए कि नीतीश ने उनके सीएम बनने के सपने पर पानी फेर दिया है। आरजेडी की भाषा में नीतीश पलटू राम हैं। धोखा देते रहते हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी का नाम उचार कर तेजस्वी बड़ी भूल कर रहे हैं। नीतीश के साथ नरेंद्र मोदी को घसीटना तेजस्वी की सियासी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। यह ठीक है कि लोकसभा का चुनाव विधानसभा से पहले है तो केंद्र की सरकार के फेल-फ्लॉप पर प्रकाश डालना उनका सियासी फर्ज है, लेकिन तेजस्वी को सबसे पहले बिहार की अपनी लड़ाई लड़नी है। आरजेडी के पांच-दस सांसद बनने न बनने से तेजस्वी की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन बिहार में पिछली बार से आगे निकलने या वर्तमान जैसी स्थिति को बचाए रखने की चुनौती तो है ही उनके सामने।
तेजस्वी को पता होना चाहिए कि नमो के नाम पर लड़े गए लोकसभा चुनाव में भाजपा को कितने प्रतिशत मत मिलते रहे हैं और उनकी पार्टी आरजेडी कहां पर आकर अटक जाती है। पहली बार 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए तो बिहार में भाजपा को 1,05,43,025 वोट मिले थे, जो कुल पड़े वोटों का 29.86 प्रतिशत थे। तब भाजपा 30 सीटों पर लड़ी थी और 22 पर जीत दर्ज की थी। दूसरे नंबर पर आरजेडी रहा, जिसे 20.46 प्रतिशत यानी 72,24,893 वोट तब मिले, जब आरजेडी 30 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले M-Y मुस्लिम-यादव समीकरण के वोटों का अपने पक्ष में दावा करता है। 16.04 प्रतिशत यानी 56,62,444 वोटों के साथ जेडीयू तीसरे नंबर पर था। चौथे नंबर पर 8.56 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस थी। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को 6.50 प्रतिशत यानी 2295929 वोट मिले थे। साल 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने दूसरा लोकसभा का चुनाव लड़ा। सिर्फ 17 सीटों पर लड़ कर पार्टी के सभी उम्मीदवार जीत गए थे। भाजपा को कुल 96.1 लाख वोट मिले थे। वोट प्रतिशत 24.06 प्रतिशत था। साल 2014 में तो आरजेडी को चार सीटें मिल भी गई थी, लेकिन 2019 में नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते आरजेडी को शून्य पर सिमटना पड़ा था। आरजेडी ने भाजपा से दो अधिक यानी 19 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, पर खाता भी नहीं खुला। उसे 15.68 लाख वोट यानी 2014 से भी कम 15.68 प्रतिशत वोट मिले। यह अभी तक सौ फीसद सच है कि नरेंद्र मोदी का विपक्ष ने जितना विरोध किया, उनकी लोकप्रियता का ग्राफ उतना ही ऊंचा होता गया है।
अलबत्ता नीतीश कुमार का विरोध तेजस्वी को सूट करेगा। इसलिए कि बेहतर काम के बावजूद अपने आचरण से नीतीश ने खुद की छवि खराब कर ली है। उन्हें लेकर वोटर भी कन्फ्यूज होते रहे हैं कि उन्हें कमल छाप वाली पार्टी का साथी मानें या लंबे अंतराल के बाद दो मौकों पर भुकभुका उठी लालटेन छाप वाली पार्टी का सहयोगी। जिन्हें पैसे देकर सरकारी काम कराने पड़े, पैसा दिए बिना जिनका राशन कार्ड नहीं बना या थाने में रपट लिखाने के लिए पुलिस वालों की जेब गर्म करनी पड़ी, और तो और जिनको सरकारी योजनाओं में लाभ लेने के लिए उसकी आधी कीमत बतौर रिश्वत अदा करनी पड़ी है; ऐसे लोग नीतीश की नकेल कसने के लिए तो ऐसे ही हर जगह बिखरे-भरे पड़े हैं। इसमें चार चांद लगाने के लिए वे दारूबाज और उनके कुनबे पहले से ही तैयार बैठे हैं, जिन्हें सौ का माल दो सौ में खरीदना पड़ रहा है या पीने के बाद जायज नाजायज ढंग से अर्थदंड का भागी बनना पड़ता है या खट-कमा कर घर-परिवार चलाने वाले थकान मिटाने के लिए दो घूंट दारू पीकर जेल में पड़े हैं। आर्थिक मजबूरी में सस्ती पीकर जिन्होंने जान गंवा दी या अंधे होकर खाट पकड़ ली है, उनके परिवारी जन भी नीतीश की खाट खड़ी करने के लिए मौके के इंतजार में तैयार बैठे हैं।
तेजस्वी को नीतीश के विरोध के लिए ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी, इसलिए कि मंच तैयार है। हां, उस पर चढ़ कर बोलने वाला कौन है या किस घराने का है, यह सवाल जनता जरूर जानना चाहेगी। यह जिज्ञासा मायने भी रखती है। जिस पीढ़ी ने बिहार में नक्सली नरसंहार देखा होगा, जातिवादी मार-काट देखी होगी, दुकान-दरवाजे का बाहर खड़े वाहन उठा-उठवा लेने का दौर जिसने देखा होगा, नौकरी के बदले जमीन देने का दर्द जिसने सहा होगा, अपने बच्चों को अपहर्ताओं के भय से निजात दिलाने के लिए उन्हें लेकर दूसरे राज्यों में जाने की जिसने बेबसी झेली होगी, वे जरूर जानना चाहेंगे या पता कर भी लेंगे कि मंच पर कौन और किस घराने का आदमी बोल रहा है। तब की पीढ़ी या आज की अधुनातन पीढ़ी भी अपने राम और रामायण की आलोचना तो कत्तई सुनने को तैयार नहीं है। नई पीढ़ी कितनी भी आधुनिक हो, मस्जिदों पर पत्थर भले न फेंके, लेकिन मंदिर पर रोड़ेबाजी को सह नहीं पाएगी।
तेजस्वी ने अपनी यात्रा में आजमाया नुस्खा भुला दिया है। याद होगा कि 2020 में विधानसभा के चुनाव में तेजस्वी ने अपने मां-बाप (लालू-राबड़ी) को किनारे कर दिया था। चुनावी पोस्टर-बैनर से तस्वीरें भी नदारद थी। इसका जबरदस्त लाभ भी उन्हें मिला। आरजेडी को विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। अब तेजस्वी की यात्रा की शुभकामना सोशल मीडिया पर लाइव आकर लालू यादव देते हैं। यात्रा को सफल बनाने की अपील लोगों से कर रहे हैं। मां राबड़ी देवी से टीका लगवा कर तेजस्वी यात्रा पर निकले हैं। तेजस्वी ने कभी आरजेडी को माई (M-Y) से निकाल कर A to Z की पार्टी बनाने की घोषणा की थी। अब वे माई (M-Y) के साथ ‘बाप’ (BAAP) की पार्टी आरजेडी को बता रहे हैं। BAAP का अर्थ भी वे बताते हैं- बहुजन, अगड़े, आधी आबादी और पुअर यानी गरीब। Y (यादव) में तो भाजपा सेंध लगा चुकी है। विधानसभा में खुल्लम खुल्ला प्रहलाद यादव का एनडीए खेमे में अपने दो अगड़ी जाति के साथियों संग बैठना, नंद किशोर यादव का स्पीकर बनना, मोहन यादव को मध्य प्रदेश का सीएम बनाना और नित्यानंद राय को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह देना यादव समाज में भाजपा की सेंधमारी ही तो है। रही बात M यानी मुस्लिम तबके की, तो इस जमात के ठेकेदार के रूप में असदुद्दीन ओवैसी का अवतरण भी बिहार में हो गया है। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने पांच सीटें जीत कर और उपचुनाव में गोपालगंज की सीट पर आरजेडी को हराने में मदद कर ट्रेलर भी दिखा दिया है। सवर्णों तो कभी आरजेडी को पसंद ही नहीं करते। दलितों पर दावा तो चिराग पासवान, संतोष सुमन और पशुपति पारस को करना चाहिए, लेकिन दलित-महादलित तबका बना कर नीतीश ने बड़ा गेम पहले ही कर दिया है। इस खेल की काट अभी तेजस्वी के पास नहीं है। कोइरी-कुर्मी तो आरजेडी को आरंभ से ही नापसंद करते हैं। यादवों को छोड़ ओबीसी-ईबीसी की बाकी जातियां आबादी में बड़ी होकर भी आरजेडी में उपेक्षित रही हैं। अब तो सभी के जातीय नेता हैं। इसलिए तेजस्वी की जन विश्वास यात्रा कितनी कारगर साबित होगी, यह वक्त बताएगा। राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का नतीजा तो सामने ही है। वे भारत को जोड़ रहे तो उनके नेता पार्टी छोड़ रहे।