आने वाले समय में पीएम मोदी को कई बड़े फैसले लेने होंगे !एक लंबे और कठिन चुनाव अभियान के बाद इटली में G-7 के दिग्गजों के साथ मोदी की मुलाकात सिर्फ मोदी 3.0 के लिए नहीं थी। यह वैश्विक संघर्षों पर चर्चा करने का भी अवसर था जो विश्व व्यवस्था को बदल रहे हैं। मोदी ने यहां तो नेताओं से मुलाकात की लेकिन बड़ी समझदारी से स्विस-यूक्रेन शांति शिखर सम्मेलन को छोड़ दिया जो इसके तुरंत बाद हुआ। हालांकि भारत ने शिखर सम्मेलन में सचिव स्तर का प्रतिनिधिमंडल भेजा था। यूक्रेन में शांति को लेकर आयोजित किए गए स्विट्जरलैंड शिखर सम्मेलन के लिए जारी साझा बयान से भारत ने खुद को अलग रखा। भारत ने साझा बयान पर हस्ताक्षर भी नहीं किए। रूस के टेबल पर न होने के कारण शिखर सम्मेलन के प्रयास बहुत आगे नहीं बढ़ पाए। लेकिन भारत के लिए इन शांति प्रयासों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना अच्छा होगा। भारत ने 21वीं सदी की दुनिया में बेहतर तरीके से काम किया है। वो भी तब जब कभी एक, कभी दो तो कभी अलग- अलग पावर सेंटर दिखाई दिए। वर्तमान में एक तरह से अलग-अलग पावर सेंटर दिखाई दे रहे हैं। इनमें भारत भी एक पावर सेंटर बनने की आकांक्षा रखता है। हालांकि एक वैश्विक महामारी, एक आर्थिक मंदी, यूक्रेन और गाजा में युद्ध और ताइवान के आसपास एक और संघर्ष का खतरा। 2047 तक विकसित अर्थव्यवस्था के अपने सपने को साकार करने के लिए भारत को न केवल इन चुनौतियों के अनुकूल ढलना होगा, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए इन चुनौतियों से उत्पन्न होने वाले बढ़ते भू-राजनीतिक जोखिमों को कम करना होगा। भारत की मजबूत विकास दर – 2023-24 में 8% से अधिक और 2024-25 में अपेक्षित 7% युद्ध के विस्फोटों से पटरी से उतर सकती है। इसलिए भारत को वैश्विक संघर्षों के प्रभावों को कम करने में सक्षम विदेश नीति की आवश्यकता होगी और बाहरी झटकों से निपटने के लिए एक सक्रिय रणनीति बनानी होगी।
दो प्रमुख शक्तियां चीन और रूस और एक शक्ति ईरान, अमेरिकी नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। ये राजनीतिक संघर्ष भारत की तरक्की के लिए भी जोखिम पैदा करते हैं। चीन एशिया और उसके बाहर अमेरिका के खिलाफ खुद को मजबूत कर रहा है, जबकि रूस नाटो के विस्तार के खिलाफ दबाव बना रहा है। ईरान सीधे और प्रॉक्सी के माध्यम से अमेरिका को चुनौती दे रहा है, क्योंकि वह इजरायल का सामना कर रहा है। ये कम्पटीशन विभिन्न तरीकों से प्रकट होती हैं। यूरोप में जहां रूस और यूक्रेन लड़ाई को बढ़ाते हैं, लेकिन अपनी-अपनी शर्तों पर शांति की मांग करते हैं। पश्चिम एशिया में जहां नागरिकों की जान जाने के कारण सभी पक्ष इजरायल और हमास को बातचीत की मेज पर लाने के लिए दबाव डाल रहे हैं, लेकिन इसका भी कोई हल नजर नहीं आता।
भारत के लिए सबसे तात्कालिक चिंता उसके दरवाजे पर रणनीतिक चुनौती है। हमारे सैनिक चीनी सैनिकों के साथ आंख से आंख मिलाकर खड़े हैं। चीन की आक्रामक रणनीति भारत के सामने चुनौती पेश कर रही है। इसका मुकाबला करने के लिए, भारत को अपने पूरे कूटनीतिक अस्त्रों का उपयोग करना चाहिए। साझेदारी बनानी चाहिए और चीनी मुखरता को रोकने के लिए क्वाड जैसे संगठन का लाभ उठाना चाहिए। चीनी व्यवहार भारत को बीजिंग के मुख्य रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी अमेरिका और उसके सबसे बड़े सहयोगी रूस के साथ बातचीत करने का अतिरिक्त कारण देता है। भारत संघर्ष के अन्य क्षेत्रों से कुछ हद तक दूर है फिर भी भारत को सजग रहने की जरूरत है।
आज मोदी के अलावा बहुत कम वैश्विक राजनेता इतने प्रभावशाली और विश्वसनीय हैं कि वे एक ही सुबह इजरायल और फिलिस्तीन, यूक्रेन और रूस, अमेरिका और फ्रांस के प्रमुखों के साथ बात कर सकें। लेकिन देश के पास शांति बहाली में सीमित अनुभव और क्षमता है। विदेश मंत्रालय और थिंक टैंक को राजनयिकों, एक्सपर्ट और संघर्ष का अध्ययन करने के लिए समर्पित लोगों को शामिल करते हुए शांति बहाली टीमों के साथ क्षमता और अधिक बढ़ाने की जरूरत है। जो वैश्विक शांति निर्माण के अनुभवों से सीख सकते हैं और संघर्ष समाधान रणनीतियों को तैयार कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, नॉर्वे में लगभग एक दर्जन लोगों की एक छोटी लेकिन प्रभावी शांति इकाई है, जिसका ट्रैक रिकॉर्ड ओस्लो को शांति का पर्याय बनाता है। भारत समान विचारधारा वाली शक्तियों (जैसे दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इंडोनेशिया) और पारंपरिक पश्चिमी शांति निर्माताओं (स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, अमेरिका) के साथ सहयोग कर सकता है। भारत के लिए शांति कूटनीति को आगे बढ़ाने और वैश्विक शांति के लिए कैलकुलेटिव रिस्क उठाने का समय आ गया है।