आज हम आपको फणीश्वरनाथ रेणु की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं! विश्व प्रसिद्ध आंचलिक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि। आज के ही दिन 1977 में लंबी बीमारी से लड़ते हुए उनकी मौत हुई थी। चुनाव का समय है और कलम के धनी फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि भी। अपनी कालजई रचनाओं के जरिए हिन्दी साहित्य में अमिट छाप छोड़ने वाले फणीश्वरनाथ रेणु चुनावी समर में भी ताल ठोका था। हालांकि चुनावी समर लोकसभा नहीं बल्कि, विधानसभा का था। लेकिन चुनाव का अनुभव उनका काफी खट्टा रहा। 70 के दशक में बिहार विधानसभा चुनाव में छल-प्रपंच और अपनो से मिले धोखे के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। कहते हैं रेणु ने अपनी लेखनी से कथा के पात्र के माध्यम से तीन कसमें खाए थे, लेकिन अपनी वर्तमान जिंदगी में भी एक कसम खाई थी और वह थी चुनाव न लड़ने की कसम। कहा जाता है चुनाव न लड़ने की कसम रेणु की चौथी कसम थी।
रेणु की एक कहानी थी, मारे गए गुलफाम। जिस पर बनी थी तीसरी कसम फिल्म। फिल्म के पात्र हीरामन के रूप में राज कपूर और हीराबाई के रूप में वहीदा रहमान ने किरदार निभाया था। तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम कहानी का प्रकाशन 1956 में हुआ था। कथा संग्रह ठुमरी में यह कहानी है। करीबन 10 साल बाद 1966 में मारे गए गुलफाम पर फिल्म बनी तीसरी कसम। संवाद लेखन का काम जहां खोद फणीश्वरनाथ रेणु ने किया था। वहीं फिल्म के निदेशक बासु भट्टाचार्य और निर्माता शैलेंद्र थे। फिल्म को 1967 में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इस फिल्म या कथा में पात्र हिरामन तीन कसमें खाता है। वह तीन कसमें थी अपनी बैलगाड़ी पर कभी तस्करी का माल नहीं लादेगा, दूसरी कसम थी अपनी बैलगाड़ी पर बांस की लदनी नहीं करेगा और तीसरी कसम थी वह अपनी बैलगाड़ी पर किसी नौटंकी वाली बाईजी नर्तकी को नहीं बिठायेगा।
फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी लेखनी में ये तीन कसमें तो खाई ही थी। लेकिन जिंदगी खासकर चुनाव में मिले तजुर्बा के आधार पर उन्होंने चौथी कसम खायी थी, कभी चुनाव न लड़ने की। दरअसल, रेणुजी ने अपने मित्रों के कहने पर 1972 में फारबिसगंज विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। रेणु पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़े। चुनाव में उन्हें चुनाव चिह्न मिला था नाव छाप। उस समय उनका चुनावी नारा काफी प्रचलित हुआ था। वह और उनके समर्थक नारे लगाते थे- ‘कह दो गांव-गांव में, अबके इस बार वोट देंगे नाव में।’ चुनाव में उनका मुकाबला कांग्रेस के दिग्गज सरयू मिश्रा से था। चुनाव लड़ने के लिए जिन्होंने उकसाया था। वैसे मित्र और शुभचिंतकों ने अंतिम समय में सियासी पाला बदलने में गुरेज नहीं की। चुनावी कैंपेन के दौरान उनपर हमला भी हुआ। फलस्वरूप बिछाए गए चुनावी बिसात में खट्टे अनुभव के साथ चुनाव हार गए। हालांकि उनके बड़े बेटे पदम पराग राय वेणु ने अपने पिता के सपनों को साकार जरूर किया। वह 2010 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीते और पांच साल तक विधायकी की। लेकिन 2015 में भाजपा ने उनका टिकट काट दिया। इसके बाद भाजपा से वह जदयू में चले गए।
दरअसल, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ रेणु परिवार का मधुर संबंध रहा और कहा जाता है कि 2010 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा और जदयू साथ मिलकर चुनाव लड़े तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कहने पर ही भाजपा ने फारबिसगंज विधानसभा से उनको टिकट दिया था। अररिया में रेणु का गांव औराही हिंगना और उनका परिवार सियासत की एक बड़ी कड़ी मानी जाती है। दरअसल, उनकी जाति की संख्या काफी बड़ी है और हिन्दू वोट बैंक की मजबूत धुरी भी। फलस्वरूप मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पांच बार उनके गांव और घर आ चुके हैं। इतना ही नहीं हरेक दल के शीर्षस्थ नेता औराही हिंगना पहुंचकर रेणु और उसकी लेखनी को नजदीक से देखने और समझने के लिए पहुंचते हैं। कह सकते हैं सभी दलों को वर्तमान परिपेक्ष्य में रेणु से मोह है। लेकिन सियासी मैदान में छले रेणु के परिवार वालों को आज भी सियासी छलावा का मलाल है, जो गाहे बगाहे प्रदर्शित होता रहा है।
मनुष्यता को जीवंत रूप प्रदान करने वाले फणीश्वरनाथ रेणु की पहचान मैला आंचल से मिली। दर्जनों रचनाओं का सृजन करने वाले फणीश्वरनाथ रेणु का मन रिपोर्ताज लेखन में ही था। तभी तो 1950 से लेकर 1975 तक वह लगातार सामाजिक विषयों और कुरीतियों को लेकर अलग-अलग रिपोर्ताज लिखते रहे। चुनावी अखाड़े में विफल रेणु साहित्य जगत में सफल रहे और ऐसे विभूति को उनकी पुण्यतिथि पर शत शत नमन।