जब मंदिर में माथा टेकने गयी नुसरत अंसारी!

0
82

हाल ही में चुनावो के बीच नुसरत अंसारी मंदिर में माथा टेकने चली गई है ! गाजीपुर की राजनीति में नुसरत अंसारी चर्चा के केंद्र में आ गई हैं। वह अफजाल अंसारी की सबसे बड़ी बेटी हैं। वह मुख्तार अंसारी की भतीजी हैं। लोकसभा चुनावों को केंद्र में रखकर उनके नाम पर तमाम तरह के राजनीतिक कयास लगाए जा रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि राजनीतिक हालात अगर बने तो नुसरत अपने पिता अफजाल की जगह चुनाव लड़ने को लेकर अटकलें लगाई जा रही है। आइए एक नजर नुसरत अंसारी की प्रोफेशनल लाइफ पर डालते हैं। पिता अफजाल के चुनाव प्रचार में शिवालय में माथा टेकती और मंदिर में कीर्तन में शामिल होती नजर आ रहीं नुसरत ने अपनी ग्रेजुएशन दिल्ली के नामचीन लेडी श्रीराम कॉलेज से किया है। उन्होंने 2014 में अपना ग्रेजुएशन पूरा किया है। नुसरत ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस से डेवलपमेन्ट प्लानिंग में पढ़ाई की है। उन्हें यह पाठ्यक्रम 2017 में पूरा किया है। पिछले 10 सालों से नुसरत एक दास्तानगो के तौर पर भी सक्रिय हैं। इसको लेकर उन्होंने कई संस्थानों और स्कूलों के साथ के साथ कार्यशाला आयोजित किया है। वह नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और अशोक यूनिवर्सिटी के साथ भी जुड़ी हुई हैं। वह सबसे कम उम्र की दास्तानगो दास्तान सुनाने वाले बताई जाती हैं।

गाजीपुर से अपने पिता अफजाल अंसारी के प्रचार में उनकी बेटी भी उतर आई हैं। अफजाल की बेटी नुसरत की एक तस्वीर खासी चर्चा में है, जिसमें वह शिवालय में पूजा करती दिख रही हैं। इन सब के बीच अफजाल के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर नुसरत को देखा जा रहा है। यह भी माना जा रहा है कि चुनाव लड़ने के लिए कोर्ट की तरफ से अयोग्य ठहराए जाने की सूरत में नुसरत मैदान में उतर सकती हैं। दास्तानगोई किस्सा कहानी कहने की एक कला है। इस फन की शुरुआत ईरान से आठवीं-नौवीं शताब्दी से मानी जाती है। एक हजार साल पहले अरबी नायक अमीर हम्जा के शौर्य और साहसिक कार्यों को दास्तान के रूप में सुनाने से शुरू हुई। लेकर फिर से दास्तानगोई शुरू की और इस तरह हिन्दुस्तान में जदीद दास्तानगोई का आगाज हुआ। बाद में बहुत से दूसरे लोग भी इससे जुड़े।दास्तानगो की कही कहानियां सबसे अधिक लोकप्रिय तब हुई जब ये उर्दू भाषा का हिस्सा बनीं।

मुगल काल में दास्तानगोई ने पहली बार हिन्दुस्तान में पैर जमाने शुरू किए। यह कला 19वीं शताब्दी में उत्तर भारत में अपने चरम पर पहुंची। भारत में मुगल काल के दौरान इस कला को नई ऊंचाई मिली। अपने दरबार में दास्तानगो रखने और इस कला को लोकप्रिय बनाने के लिए बादशाह अकबर का कार्यकाल बेहद मशहूर रहा है। दास्तानगोई उर्दू में दास्तान यानी लंबी कहानियां सुनाने की कला है। पिता अफजाल के चुनाव प्रचार में शिवालय में माथा टेकती और मंदिर में कीर्तन में शामिल होती नजर आ रहीं नुसरत ने अपनी ग्रेजुएशन दिल्ली के नामचीन लेडी श्रीराम कॉलेज से किया है। उन्होंने 2014 में अपना ग्रेजुएशन पूरा किया है। नुसरत ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस से डेवलपमेन्ट प्लानिंग में पढ़ाई की है। उन्हें यह पाठ्यक्रम 2017 में पूरा किया है।उर्दू में अलिफ लैला, हातिमताई वगैरह कई दास्तानें सुनाई जाती रहीं मगर इनमें सबसे मशहूर हुई दास्ताने अमीर हमजा, जिसमें हजरत मोहम्मद के चचा अमीर हमजा के साहसिक कारनामों का बयान होता है।

भारत के आखिरी मशहूर पेशेवर दास्तानगो मीर बाकर अली थे, जिनका देहांत 1928 में दिल्ली में हुआ था। इसके बाद हिन्दुस्तान में दास्तान सुनाने की परंपरा एकदम खत्म हो गई। 2005 में महमूद फारूकी ने उर्दू आलोचक शम्सुररहमान फारूकी से प्रेरणा लेकर फिर से दास्तानगोई शुरू की और इस तरह हिन्दुस्तान में जदीद (आधुनिक) दास्तानगोई का आगाज हुआ। बाद में बहुत से दूसरे लोग भी इससे जुड़े।

लखनऊ ने दास्तानगोई की सबसे बड़ी नवाजिश इसे किताब की शक्ल में वजूद में लाकर की। इसी वजह से पूरी दुनिया में आज भी ये दास्तानें कम से कम कागज पर तो सुरक्षित हैं। दास्तानगोई किस्सा कहानी कहने की एक कला है। इस फन की शुरुआत ईरान से आठवीं-नौवीं शताब्दी से मानी जाती है। एक हजार साल पहले अरबी नायक अमीर हम्जा के शौर्य और साहसिक कार्यों को दास्तान के रूप में सुनाने से शुरू हुई। दास्तानगो की कही कहानियां सबसे अधिक लोकप्रिय तब हुई जब ये उर्दू भाषा का हिस्सा बनीं।जब मौखिक तौर पर दास्तान कहने का चलन शबाब पर था तब दुनिया भर में मशहूर मुंशी नवल किशोर ने इसे पहली बार किताब की शक्ल में छपवाने का इरादा किया।