आज हम आपको बताएंगे कि पानीपत की लड़ाई में मराठा कैसे हारे थे! पानीपत की तीसरी लड़ाई के बारे में इतिहासकार जीएस सरदेसाई ने अपनी किताब ‘न्यू हिस्ट्री ऑफ मराठा’ में लिखा है- इस युद्ध ने यह निश्चित नहीं किया कि भारत पर कौन शासन करेगा, बल्कि यह निश्चित किया कि भारत पर कौन शासन नहीं करेगा। यानी मराठे हिंदुस्तान की सत्ता से बाहर हो गए। दिल्ली की जो गद्दी उन्हें मिली थी, उन्होंने इसे महज 5 घंटे की लड़ाई के बाद गंवा दिया। 14 जनवरी, 1761 को हुए पानीपत के इस तीसरे युद्ध में मराठा सेना का प्रतिनिधित्व सदाशिवराव भाऊ और अफगान सेना का नेतृत्व अहमदशाह अब्दाली ने किया जिसमें मराठा सेना की पराजय हुई। हरियाणा की चौथी किस्त में जानते हैं पानीपत की वो लड़ाई, जिसने एक बार फिर हिंदुस्तान को अंतहीन बर्बादी की राह में झोंक दिया। पानीपत के तीसरा युद्ध दरअसल 18वीं शताब्दी के मध्य में मराठों और अफगानों के बीच चल रहे युद्धों की श्रंखला का अंतिम और निर्णायक युद्ध था। 10 जनवरी 1760 को अहमद शाह अब्दाली ने मराठा सेनापति दत्ताजी की हत्या कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। मराठों की यह हार ही इस युद्ध का कारण बनी। इस हार की खबर सुनकर पेशवा बालाजीराव ने अब्दाली की शक्ति नष्ट करने के लिए अपने चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। इस सेना ने 2 अगस्त 1760 को दिल्ली को अब्दाली के कब्जे से आजाद करा लिया। अब्दाली इस हार से तिलमिला उठा लेकिन वह यमुना पार करने में सक्षम ना था, इसलिए हार स्वीकार करने के लिए विवश हो गया। हालांकि यह विजय मराठों के लिए अशुभ सबित हुई।
मराठों की इस जीत के बाद भरतपुर के जाट राजा सूरजमल मराठा गठबंधन से अलग हो गए, जो पानीपत की हार का बड़ा कारण बना। दरअसल, सूरजमल और उसकी सेना छापामार जंग लड़ती थी, जिससे दुश्मन के पैर उखड़ जाते थे। अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने गद्दारी करते हुए 18 जुलाई, 1760 को अब्दाली से जा मिला। दिल्ली के चारों ओर ऐसी किलेबंदी कर दी गई कि दिल्ली फतह करने के ढाई माह बाद तक मराठे वहां से निकल नहीं पाए। वहां पैसों और खाने-पीने की कमी हो गई। धनाभाव के कारण दिल्ली में ठहरना संभव नहीं था।
मराठों ने रणनीति के तहत दिल्ली से आगे बढ़ते हुए कुंजपुरा की चौकी की ओर चल दिए और 17 अक्टूबर को इस चौकी पर अपना कब्जा जमा लिया। दिल्ली के बाद कुंजपुरा के हाथ से निकल जाने से अब्दाली तिलमिला उठा। कुंजपुरा पर उसने दोबारा हमला किया और इसे जीतने में सफल रहा। इतिहासकारों के अनुसार, पानीपत और उसके आसपास के इलाके में उस दौर में भयंकर अकाल पड़ा। मराठा सेना भूख और धन की कमी से परेशान हो उठी। सेना की हालत खराब होते देख मराठों ने अब्दाली से बातचीत करनी शुरू कर दी। हालांकि, रूहेलखंड के सरदार नजीबउद्दौला की वजह से यह बातचीत सफल नहीं हो पाई।
आखिरकार मराठों को 14 जनवरी, 1761 का पानीपत का युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध में मराठों की कुल सेना 45,000 थी और अब्दाली के पास 65,000 सैनिक थे। मराठे घुड़सवार और तोपखाने में बेहतर थे। वहीं, अब्दाली की पैदल सेना बेहतर थी। दोनों सेनाओं के बीच 14 जनवरी, 1761 को सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक चला। इसमें 2 बजे तक मराठों का पलड़ा भारी रहा क्योंकि इब्राहीम खान गार्दी का तोपखाना दुश्मन पर मौत बनकर टूट पड़ा था।
इतिहासकारों के अनुसार, दोपहर 2 बजे तक ऐसा लग रहा था कि मराठे पानीपत युद्ध को जीत रहे थे। क्योंकि अब्दाली की सेना हर मोर्चे पर हार रही थी। मगर, उसी समय पेशवा के पुत्र विश्वास राव को गोली लग गई। वह मौके पर ही शहीद हो गए। मराठा सेना बिखर पड़ी। पेशवा के पुत्र और सेना के प्रमुख विश्वासराव जंबूरक तोपखाने की चपेट में आ गए थे। लड़ाई के चश्मदीद रहे मोहम्मद शामलू ने बताया था कि किस तरह विश्वास राव को जंबूरक (घूमने वाली बंदूक) की गोली सिर पर लगी।
मराठों का इतिहास लिखने वाले एक और विद्वान काशीराज पंडित ने पानीपत की हार के बाद लिखा है। काशीराज पंडित पानीपत के इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्होंने कूट संदेश के रूप में पेशवा बालाजी बाजीराव को पानीपत के तृतीय युद्ध के विषय में लिखा कि दो मोती विलीन हो गए। 27 सोने की मुहरें लुप्त हो गईं और चांदी-तांबे की तो पूरी गणना ही नहीं की जा सकती। दो मोती का मतलब था सदाशिवराव भाऊ और विश्वासराव भाऊ। 27 सोने की मुहरों का मतलब था कि उच्च पदस्थ सरदार और चांदी-तांबे का मतलब है कि अनगिनत सैनिकों की हत्या कर दी गई। अफगानी जंबूरक तोपें वजन में हल्की थीं और इनका प्रयोग ऊंटों पर रख कर भी किया जा रहा था। ये हल्की तोपें इधर से उधर स्थानांतरित किए जाने के लिए सुविधाजनक थीं। इन्हीं जंबूरक तोपों ने अब्दाली को युद्ध में वापस पहुंचाया। जंबूरक बल ने मराठा केंद्र पर गोलियां चलाईं और कई लोगों को हताहत किया।
दोपहर 3 बजे तक युद्ध समाप्त हो गया था। इसके बाद से रात 11 बजे तक अब्दाली के सैनिकों ने मराठों और उनकी औरतों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया। ढाई लाख मराठों में से 6000 ने शुजा व काशीराज के तंबुओं में शरण ली। होलकर के 15000 सैनिक पश्चिम की ओर भागकर जान बचा पाए। हजारों घायल थके मराठे बंदी बनाकर कड़कती ठंड में मैदान में घेरकर बिठाए गए। सुबह 10 बजे कुंजपुरा में नजावत खां के पुत्र दलेरखां और कुतुबशाह के पुत्र अब्दाली के सामने जा खड़े हुए। 15 जनवरी को कत्लेआम की इजाजत मांगी गई। अब्दाली ने 5 घंटे का समय दिया और अपने सैनिकों के साथ अब्दाली शिविर में कैद मराठों पर टूट पड़े।