खबरों की माने तो बीजेपी और आरएसएस में विवाद बढ़ चुका है! आरएसएस और बीजेपी के रिश्तों में तनाव है? लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद सबसे पहले संघ से जुड़ी पत्रिका ऑर्गनाइजर में रतन शारदा का लेख आया। इसमें बीजेपी के लिए साफ संदेश हैं। इन संदेशों के संकेतों पर अभी बात हो ही रही थी कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयानों ने स्थिति बहुत हद तक स्पष्ट कर दी। फिर संघ की मुस्लिम शाखा राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के प्रमुख इंद्रेश कुमार ने इस चर्चा को अगले स्तर पर पहुंचा दिया। उन्होंने इतना तगड़ा कटाक्ष किया कि अगले ही दिन सफाई देने पड़ गई। संघ से जुड़े विचारक रतन शारदा हों या फिर संघ प्रमुख मोहन भागवत या राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के मार्गदर्शक इंद्रेश कुमार, सभी की टिप्पणियों में एक कॉमन फीलिंग है- अहंकार। सभी ने येन केन प्रकारेण यही बताने और जताने की कोशिश की है कि लोकसभा चुनाव में लगे झटके के पीछे बेजीपी नेतृत्व का अहंकार सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। बाकी संघ प्रमुख ने कई तरह के सुझाव दिए। उन्होंने यह भी कहा कि राजनीति में विरोधी (दुश्मन) नहीं प्रतिपक्षी (प्रतिस्पर्धी) होते हैं। तो अगला सवाल यह उठता है कि क्या आरएसएस बीजेपी नेतृत्व को लेकर कोई बड़ा फैसला कर सकता है? आरएसएस-बीजेपी के बीच खींचतान की पुष्टि करते हुए बताया है कि इसका मतलब क्या है। वो कहती हैं कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनावों के दौरान ही इंडियन एक्सप्रेस को ही दिए इंटरव्यू में आरएसएस को अखरने वाली बात कही थी। नड्डा ने कहा था कि बीजेपी अपने पांव पर खड़ी है और उसे आरएसएस की जरूरत नहीं है। आरएसएस भी इसका जवाब देने से नहीं चूका। उसने कहा कि बीजेपी कभी आरएसएस को अपना फील्ड फोर्स समझने की भूल नहीं करे। तो इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनाव परिणामों ने आरएसएस-बीजेपी के रिश्ते में थोड़ी खटास तो ला दी है। लेकिन आगे दोनों करें भी तो क्या?
आरएसएस भले ही बीजेपी नेतृत्व के रवैये से नाराज हो, लेकिन उसे यह अच्छे से पता है कि इसी नेतृत्व ने उसके बरसों पुराने एजेंडों को पूरा किया है। उसे यह भी पता है कि यह इंदिरा के दौर की कांग्रेस नहीं है जिसके लिए दांव खेलकर बीजेपी को तात्कालिक तौर पर सबक सिखाया जा सके। यह अलग बात है कि आरएसएस चीफ भागवत ने विपक्ष को प्रतिस्पर्धी बताकर कांग्रेस के लिए एक संदेश दिया है, लेकिन उन्हें यह भी पता है कि राहुल गांधी की कांग्रेस कौन सी दिशा ली हुई है। आरएसएस इंदिरा गांधी को हिंदू लीडर मानता था। इस वजह से आरएसएस ने 1980 के चुनावों में इंदिरा गांधी की जीत सुनिश्चित करने में मदद की। 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद आरएसएस का समर्थन राजीव गांधी को भी मिलता रहा। लेकिन 2024 की कांग्रेस, 1970-80 के दशक से बिल्कुल अलग है। राहुल गांधी धुर वामपंथी विचारधारा अपना रखी है और उनके परोक्ष नेतृत्व में कांग्रेस कभी हिंदू हितों की सोच भी नहीं सकती।
वैसे भी आरएसएस मौजूदी बीजेपी लीडरशिप से इतना भी खफा नहीं है कि वो विकल्प तलाशने पर विचार करे। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की मानें तो वह सिर्फ इतना चाहता है कि बीजेपी नेतृत्व ‘एकला चलो रे’ की नीति से हट जाए और बड़े मुद्दों पर सबको (विपक्ष को भी) साथ लेकर चले। आरएसएस की चाहत है कि अकेले दम पर सरकार बनाने में अक्षम साबित हुई बीजेपी में कद्दावर नेताओं की स्टेक बढ़े जो बीते 10 वर्षों में क्रमिक तौर पर घटता रहा है। आरएसएस यह भी नहीं भूल सकता है कि जम्मू-कश्मीर के लिए लागू आर्टिकल 370 को निरस्त करना हो या अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण से सदियों पुराना विवाद सुझलाने की बात, मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी ने ही संघ के मूल एजेंडों को पूरा किया है। मोदी सरकार ने चुनावों से पहले समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर भी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि अगली सरकार में इसे लागू किए जाने की तरफ गंभीरता से कदम बढ़ाए जाएंगे।
इन सबके बावजूद आरएसएस को बीजेपी से जो एक बड़ी शिकायत है, वो यह कि पार्टी का संगठन सरकार के हां में हां मिलाने वाला ‘यस मैन’ बन गया है। इसलिए आरएसएस के रिफॉर्म एजेंडे में यह बात सबसे ऊपर है कि बीजेपी संगठन को मोदी सरकार से अलग किया जाए। संगठन अपने फैसले खुद करे, सरकार के निर्देशों पर नहीं। हां, सरकार के साथ संगठन का सामंजस्य नितांत आवश्यक है और इसका ख्याल जरूर रखा जाएगा। वैसे भी जेपी नड्डा का कार्यकाल इसी महीने खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ, आरएसएस की मर्जी है कि वह योगी आदित्यनाथ की आभा उत्तर प्रदेश से बाहर भी पहुंचाई जाए। आरएसएस चीफ मोहन भागवत की यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ के साथ बंद कमरे में हुई बैठकें संभवतः इसी दिशा में हुईं। उधर, दत्तात्रेय होसबोले, अरुण कुमार, सुरेश सोनी जैसे आरएसएस नेताओं के साथ बीएल संतोष जेपी नड्डा, अमित शाह और राजनाथ सिंह जैसे बीजेपी लीडर्स के साथ हुई मीटिंग के भी अपने महत्व हैं।
आरएसएस की इन मंशाओं पर बीजेपी और मोदी क्या सोच रहे होंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को लोकसभा चुनाव परिणामों ने बड़ा झटका दिया है। पीएम मोदी को अगले चुनावों में यह साबित करना ही होगा कि करिश्मा कर दिखाने की उनकी ताकत खत्म नहीं हुई है। इस वर्ष महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा और अगले वर्ष दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव पीएम मोदी को अपनी ताकत साबित करने के लिए काफी मुफीद मौका देंगे। इस मकसद में मोदी को आरएसएस का साथ चाहिए होगा। लोकसभा चुनावों में कई राज्यों में और कई क्षेत्रों में आरएसएस ने हाथ खींचे तो बीजेपी 240 तक सिमट गई है। मोदी आगामी विधानसभा चुनाव में ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे जिससे आरएसएस फिर वेट एंड वॉच की मुद्रा ही अपना ले।