आज हम आपको मुलायम यादव परिवार और चौधरी चरण सिंह परिवार के बारे में बताने वाले हैं!उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के बीच कभी दोस्ती तो कभी दुश्मनी का रिश्ता रहा है। करीब पांच दशक से मुलायम सिंह यादव और चौधरी चरण सिंह परिवार के बीच मिलने- बिछड़ने का सिलसिला चलता रहा है। कभी अजित सिंह ने जाल बिछाकर मुलायम सिंह यादव से नेता प्रतिपक्ष का पद छीना था। मुलायम ने अपने चरखा दांव में फंसाकर अजित सिंह के मुख्यमंत्री बनने के सपने को तोड़ दिया। इसी तरह पिछले दो लोकसभा चुनाव में सपा के साथ के बाद भी रालोद खाता खोलने में कामयाब नहीं हुई। जाटलैंड में अजित सिंह का पतन हुआ। हालांकि, एक प्रकार से मानें तो समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोक दल के साथ अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत की थी। दरअसल, मुलायम पहली बार वर्ष 1967 के विधानसभा चुनाव में राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से विधायक बने। कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता तब केवल 19 दिन के लिए सीएम बने थे। इसके बाद चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने। हालांकि, यूपी विधानसभा पहली बार अपना कार्यकाल नहीं पूरा कर पाई। 12 अक्टूबर 1967 को लोहिया के निधन के बाद 1969 में दोबारा चुनाव हुआ। कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता फिर मुख्यमंत्री बने। इस बार भी वे सरकार को स्थिर कर पाने में कामयाब नहीं हुए। चौधरी चौधरी चरण सिंह को दोबारा मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, पांच साल में रिकॉर्ड पांच मुख्यमंत्री बदले गए और दो बार राष्ट्रपति शासन लगा। मुलायम सिंह यादव ने चौधरी चरण सिंह की बनाई पार्टी भारतीय कृषक दल में शामिल हो गए। यूपी चुपाव 1974 में बीकेडी के ही टिकट पर मुलायम चुनावी मैदान में उतरे और जीते। इसी साल सोशलिस्ट पार्टी और कृषक दल का विलय हो गया और नई पार्टी भारतीय लोक दल बनाई गई। इमरजेंसी के बाद वर्ष 1977 में बीएलडी जनता पार्टी का हिस्सा हो गई। सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव पहली बार सहकारिता और पशुपालन मंत्री बने। चौधरी चरण सिंह और जनता पार्टी का साथ केवल दो साल का रहा। चौधरी चरण सिंह ने वर्ष 1979 में लोकदल नाम से नई पार्टी बनाई।
1979 में चौधरी चरण सिंह ने लोक दल का गठन किया। उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा को लोक दल का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया। मार्च 1987 में चौधरी चरण सिंह की तबीयत खराब हुई तो पिता की बनाई गई पार्टी पर चौधरी अजीत सिंह अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास शुरू किया। हालांकि, उनकी परेशानी सीनियर नेताओं की खेमेबाजी थी। पार्टी के अधिकतर बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल और मुलायम सिंह यादव उस समय हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ थे। 29 में 1987 को चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद बड़ा खेल हुआ। अजित सिंह के इशारे पर लोक दल के विधायकों की बैठक हुई। इस बैठक में मुलायम सिंह यादव को विधायक दल के नेता पद से हटा दिया गया। मुलायम जब पार्टी के विधायक दल के नेता के साथ- साथ नेता प्रतिपक्ष पद से भी हटा दिए गए। उनकी जगह अजीत सिंह ने सत्यपाल सिंह यादव को विपक्ष का नेता बना दिया। मुलायम के लिए यह अपमान का घूंट था, जिसका उन्होंने अपने ही अंदाज में बदला लिया।
लोक दल पर अजित सिंह के दावे के बाद टूट हुई। लोक दल दो भागों में बंट गई। लोक दल अजित और लोक दल बहुगुणा के रूप में विभाजन हुआ। चौधरी देवी लाल, कर्पूरी ठाकुर, शरद यादव, नाथूराम मिर्धा और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ रहे। हालांकि, उत्तर प्रदेश के अधिकतर विधायक अजीत सिंह के साथ थे।
11 अक्टूबर 1988 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन के दिन एक नई पार्टी बनाई गई। इसका नाम जनता दल रखा गया। जनता पार्टी, लोक दल अजीत, लोक दल बहुगुणा और सोशलिस्ट कांग्रेस सभी इसके घटक के तौर पर शामिल हुए। कुछ महीने बाद 1989 में यूपी में विधानसभा चुनाव हुआ। यूपी विधानसभा सीट की कुल 425 सीटों पर चुनाव हुए। प्रदेश में सारे कांग्रेस विरोधी एकजुट थे। जनता दल ने यूपी विधानसभा की 356 सीटों पर चुनाव लड़ा और 208 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस 410 सीटों पर चुनाव लड़कर महज 94 पर उसे जीत दर्ज कर पाई। जनता दल सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत से उसके पास पांच सीटें कम थीं। इसके बाद मुलायम ने खेल शुरू किया।
मुलायम को 1987 के अपमान का घाव अब तक साल रहा था। जनता दल बहुमत आराम से जुगाड़ कर सकती थी। लेकिन, लखनऊ से दिल्ली तक इसकी कसरत शुरू हुई। यूपी के सीएम पद पर पुख्ता दावा अजित सिंह का था। लेकिन, मुलायम सिंह यादव भी अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं थे। उस समय चौधरी देवीलाल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी कई बार कह चुके थे कि जो सब चाहेंगे, वही होगा। लेकिन, देवीलाल ने ही बीपी सिंह का नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित कर दिया। पीएम पद की रेस में तब चंद्रशेखर का नाम भी चल रहा था। लेकिन, चौधरी देवीलाल ने उन्हें झटका दे दिया था। अजीत सिंह भी बीपी सिंह के खेमे में थे। मुलायम ने बाजी पलटने के लिए अपने राजनीतिक गुरू चंद्रशेखर को साधा था। हालांकि, ऐन मौके पर पलटी मारकर देवीलाल की तरफ चले गए।
बीपी सिंह के नाम पर मुहर लग गई। बीपी सिंह अजित सिंह को सीएम बनाना चाहते थे, ताकि देश के सबसे प्रदेश पर उनकी पकड़ रहे। लेकिन, मुलायम किसी भी स्थिति में अजित को सीएम नहीं बनने देना चाहते थे। लखनऊ में शक्ति प्रदर्शन हुआ। मुलायम के चरखा दवंव में अजित सिंह फंस गए। बाहुबली डीपी सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा ने मुलायम सिंह यादव के पक्ष में विधायकों का नंबर बढ़ा दिया। सीएम बनाने के लिए अजीत सिंह खेमे के 11 विधायक भी मुलायम को वोट कर गए। दोनों पक्षों की वोटिंग में मुलायम को 115 और अजीत सिंह को 110 वोट मिले। पांच विधायकों के अंतर ने अजीत सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना तोड़ दिया और मुलायम प्रदेश की कुर्सी पर बैठ गए।
जनता दल में मचे घमासान के बाद वीपी सिंह को पीएम पद छोड़ना पड़ा। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। मुलायम सिंह यादव उनकी समाजवादी जनता पार्टी में शामिल हो गए। अजीत सिंह पहले कांग्रेस में गए और उसके बाद 1996 में अलग होकर राष्ट्रीय लोक दल नाम की पार्टी का गठन कर लिया। 1993 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी गठित कर ली। इसके बाद दोनों के बीच हितों का टकराव खत्म हो गया। वर्ष 2002 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव के बाद अजित सिंह ने मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। दरअसल, यूपी चुनाव 2002 में समाजवादी पार्टी ने 143 सीटें जीती थी। बहुजन समाज पार्टी को 98 सीटों पर जीत मिली। भारतीय जनता पार्टी के खाते में 88 सीटें आईं। कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल को 14 सीटों पर जीत मिली।
विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी थी, लेकिन भाजपा और राष्ट्रीय लोक दल ने बसपा को समर्थन दे दिया। मिली जुली सरकार बनाई गई। मुख्यमंत्री मायावती बनीं। लालजी टंडन, ओम प्रकाश सिंह, कलराज मिश्र जैसे नेता सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। मायावती के काम करने का तरीका भाजपा को रास नहीं आया। 26 अगस्त 2003 को हितों के टकराव के बाद मायावती ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसी दिन मुलायम ने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। अजित सिंह ने तब अपने 14 विधायकों का समर्थन मुलायम को दिया था। यह दोस्ती की एक नई शुरुआत थी। बहुजन समाज पार्टी से भी 13 विधायक टूटकर मुलायम के साथ आ गए। बाद में भाजपा ने भी मुलायम को समर्थन दे दिया। मुलायम और अजित सिंह की दोस्ती इसके साथ पक्की होती चली गई। मुलायम सरकार में अजीत सिंह की खास अनुराधा चौधरी को नंबर दो का स्थान मिला था।
2003 में शुरू हुई मुलायम सिंह यादव और अजीत सिंह की दोस्ती लोकसभा चुनाव 2004 में भी बरकरार रही। राष्ट्रीय लोक दल 10 सीटों पर लड़ी और तीन सीटें जीतने में कामयाब हुई। बागपत से एक बार फिर अजित सिंह सांसद चुने गए। उसी दौरान समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का दबदबा बढ़ रहा था। अमर सिंह और अजित सिंह के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। इसका असर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन पर भी पड़ा। 2007 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 206 सीटों पर जीत दर्ज की सपा की सत्ता से विदाई हो गई। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के बीच तनातनी काफी बढ़ गई थी। अजित सिंह ने 254 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। हालांकि, उन्हें महज 10 सीटों पर जीत मिली। लोकसभा चुनाव 2009 में अजित सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया।
चौधरी चरण सिंह, चौधरी अजित सिंह के बाद जयंत चौधरी भी समाजवादी पार्टी के साथ जुड़े दिखाई दिए। 6 मई 2021 को अजित सिंह के निधन के बाद अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की नजदीकी काफी बढ़ती दिखी। सपा- रालोद गठबंधन यूपी चुनाव 2022 में रहा। इस चुनाव में राष्ट्रीय लोक दल और समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने पश्चिमी यूपी में भाजपा को कड़ी टक्कर दी। गठबंधन के तहत रालोद को सपा ने 33 सीटें दी। पार्टी 8 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही। पिछले दिनों अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के साथ लोकसभा चुनाव के गठबंधन की घोषणा की थी। लेकिन, दावा किया जा रहा है कि एक बार फिर रालोद अपनी राह अलग करने की तैयारी में है।