एक समय ऐसा भी था जब इंदिरा गांधी को एक नेता की वजह से इस्तीफा देना पड़ा था! दिग्गज कम्युनिस्ट नेता और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी अब इस दुनिया में नहीं हैं। 12 सितंबर को 72 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। येचुरी राजनीतिक रूप से एक कट्टर कम्युनिस्ट थे, हालांकि, राजनीति में उन्होंने हमेशा व्यावहारिकता को प्राथमिकता दी। यही वजह है कि एक समय उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ ऐसा विरोध मार्च निकाला कि उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा। हालांकि, जब सियासी हालात बदले तो ये दिग्गज कम्युनिस्ट नेता राहुल गांधी के ‘मेंटर’ बनने से भी नहीं हिचके। सीपीएम नेता येचुरी अपनी पीढ़ी के कई व्यावहारिक राजनेताओं की तरह विनम्र और मिलनसार थे, और सभी दलों के नेताओं के साथ अच्छे संबंध रखते थे। बीजेपी का उभार और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के बाद सीताराम येचुरी उन कुछ सीपीएम नेताओं में से थे जिन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन पर वैचारिक बहस करने से परहेज किया। उनकी सोच बस यही थी कि बीजेपी का मजबूती से मुकाबला किया जा सके। हालांकि, कांग्रेस को पहले कम्युनिस्टों का मुख्य विरोधी माना जाता था, लेकिन येचुरी ने बीजेपी को चुनौती देने के लिए उनके साथ गठबंधन को जरूरी समझा। 2024 के आम चुनावों के दौरान भी उन्होंने जोर देकर कहा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी का मुकाबला राज्य-दर-राज्य गठबंधन के जरिए किया जाना चाहिए। चुनावी नतीजों ने उनकी इस सोच को कहीं न कहीं सही साबित भी किया।
दिलचस्प बात यह है कि सीपीएम के कट्टरपंथी नेता आज भी कांग्रेस के साथ पार्टी के गठबंधन को औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं करते हैं। ये हाल तब है जब सीपीएम खुद ‘INDIA’ गठबंधन का हिस्सा है। एक छात्र नेता के रूप में येचुरी ने इंदिरा गांधी को जेएनयू के चांसलर पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था। बाद में उनका व्यावहारिक राजनीति का रुख अपनाना इस घटना को और भी महत्वपूर्ण बना देता है। 1970 के दशक में नक्सलवाद से खुद को अलग रखना भी येचुरी की व्यावहारिक राजनीतिक समझ को दर्शाता है। नक्सलवादी आंदोलन, मार्क्सवादी विचारधारा की एक शाखा थी, जिसने चीन के कम्युनिस्टों के प्रति निष्ठा की घोषणा की थी। 2014 में जब मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तब येचुरी ने कहा था कि परिस्थितियां बदली हैं, इसलिए हमारा विश्लेषण और गठबंधन भी बदलना भी जरूरी है।
कुछ लोग उनकी तुलना एक अन्य व्यावहारिक कम्युनिस्ट नेता, हरकिशन सिंह सुरजीत से करते हैं, जो गठबंधन बनाने में माहिर थे। लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि दोनों नेताओं की सफलता दर में अंतर की एक बड़ी वजह यह है कि सुरजीत के समय में सीपीएम राजनीतिक रूप से अधिक मजबूत स्थिति में थी। येचुरी का मिलनसार और सरल स्वभाव बनावटी नहीं था। एक छात्र कार्यकर्ता के रूप में भी, वह दबंग या बड़े-बड़े बयान देने वाले नेता नहीं थे। वह बहस में शामिल होना पसंद करते थे, और अपनी बात चुटीले अंदाज में रखते थे। कई राजनेता, जिनमें कम्युनिस्ट भी शामिल हैं, भाषण देने के शौकीन होते हैं। येचुरी कभी ऐसे नहीं थे।
एक और खास बात यह थी कि अपने कई मार्क्सवादी साथियों के उलट, वो कठिन भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। साथ ही, सैद्धांतिक मार्क्सवादियों के विपरीत, उनकी रुचि न केवल एक वर्ग बल्कि सामाजिक ग्रुप्स और धर्म में भी थी। वह समझते थे कि भारतीय समाज को समझने के लिए ये दोनों पहलू महत्वपूर्ण हैं। तेलुगु उनकी मातृभाषा थी। पार्टी फोरम और बैठकों में, वह अंग्रेजी पसंद करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि राजनीतिक विचारों को इस भाषा में व्यक्त करना उनके लिए आसान है। लेकिन वे सार्वजनिक रूप से हिंदी में भाषण देते थे। पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में अपने दो कार्यकाल के दौरान, उन्होंने बंगाली पत्रकारों के साथ बातचीत के दौरान बंगाली में बात करने की कोशिश की।
एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में जन्मे सीताराम येचुरी ने जनेऊ पहनने और श्लोक पढ़ने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि वह अपने परिवार में पहले कम्युनिस्ट थे। लेकिन उन्होंने प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में छिपी दार्शनिक बहसों को कभी नकारा नहीं। इस खुले विचारों ने बाद में उन्हें हिंदुत्व विचारधारा पर बहस करने में मदद की। उन्हें जानने वाले लोग कहते हैं कि एक राजनेता के रूप में येचुरी की एक खासियत यह थी कि वे पार्टियों और समूहों के बीच मतभेदों की बजाय समानताओं को तलाशने में ज्यादा रुचि रखते थे।
येचुरी की ये विशेषताएं संसद में उनके काम आईं, जहां उनकी अच्छी बोलचाल ने उन्हें एक अलग पहचान दिलाई। खासकर उस समय जब संसदीय हस्तक्षेप की गुणवत्ता गिरती जा रही थी। जब 2017 में उनका राज्यसभा कार्यकाल समाप्त हुआ, तो समाजवादी पार्टी के सांसद राम गोपाल यादव ने उनकी प्रशंसा की। वह अकेले नहीं थे, कई अन्य सांसदों ने भी महसूस किया कि सदन को येचुरी की कमी खलेगी। जैसे-जैसे वामपंथियों का जनाधार कम होता गया, वैसे-वैसे येचुरी सहित सीपीएम नेताओं का राष्ट्रीय राजनीति में महत्व भी कम होता गया। उनका स्वर्णिम दौर 2004 से 2008 के बीच माना जाता है। पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA-1) सरकार के गठन से लेकर उस समय तक जब तक सीपीएम ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस नहीं ले लिया था।
भारतीय राजनेताओं, जिनमें कम्युनिस्ट भी शामिल हैं, उनके लिए सार्वजनिक रूप से आत्मनिरीक्षण करना कठिन होता है। लेकिन येचुरी उनमें बिल्कुल अलग थे। UPA-2 सरकार बनने के बाद उन्होंने स्वीकार किया था कि उनकी पार्टी मतदाताओं को परमाणु समझौते पर अपना रुख समझाने में सफल नहीं हो पाई थी। इसी वजह से कांग्रेस नीत गठबंधन को जबरदस्त जीत हासिल हुई। ऐसा करने वाले शायद वो पोलित ब्यूरो के अकेले सदस्य थे। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) की जीत ने सीपीएम और उसके नेताओं को ऐसा झटका दिया, जिससे वे अब तक उबर नहीं पाए हैं।
दिल्ली के एम्स में आईसीयू से जनरल वार्ड में शिफ्ट होने के दिन येचुरी का आखिरी सार्वजनिक संदेश आया था। रिकॉर्ड किया गया यह मैसेज एक अन्य कम्युनिस्ट नेता और बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को उनकी श्रद्धांजलि थी, जिनका हाल ही में निधन हो गया था। बीमार पड़ने से पहले येचुरी एक गहरे निजी दुःख से जूझ रहे थे। उन्होंने 2021 में अपने बेटे आशीष को कोविड के कारण खो दिया था। उनके करीबी लोगों के अनुसार, वो उसके बाद से पहले जैसे कभी नहीं रहे। एक पिता के तौर पर वो टूट गए थे। लेकिन यह एक राजनेता के तौर पर उनकी क्षमताओं का ही प्रमाण है कि व्यावहारिक कम्युनिस्ट के रूप में उन्होंने खुद को संभाला और आगे बढ़ते रहे।