Wednesday, January 15, 2025
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आखिर कैसा है सोनिया गांधी का राजनीतिक जीवन?

आज हम आपको सोनिया गांधी का राजनीतिक जीवन बताने जा रहे हैं! कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनावी राजनीति से संन्यास लेकर राज्यसभा के जरिए संसद पहुंचने का फैसला किया है। सोनिया गांधी राजस्थान से राज्यसभा जाएंगी। उन्होंने जयपुर जाकर राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन का पर्चा भर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17वीं लोकसभा के समापन भाषण में किसी का नाम लिए बिना कहा भी- कुछ लोग तो चुनाव लड़ने का माद्दा भी खो चुके हैं। आज जब सोनिया गांधी ने चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया है तो लगता है कि पीएम मोदी का निशाना संभवतः सोनिया ही थीं। सोनिया गांधी का राजनीतिक सफर हमेशा बहस का विषय रहेगा। उन्हें कांग्रेस पार्टी को उबारने का श्रेय मिला तो पुत्र मोह में इसे डूबता छोड़ने का भी आरोप भी। सोनिया पर राजनीतिक शुचिता को भी मलिन करने के आरोप लगे जब सीताराम केसरी के साथ कांग्रेसियों ने ही दुर्व्यवहार किया और जब प्रधानमंत्री रहे पीवी नरिसम्हा राव के 2004 में निधन के बाद शव को कांग्रेस मुख्यालय में नहीं रखने दिया गया। वक्त-वक्त की बात है। एक वक्त था जब सोनिया गांधी पर्दे के पीछे से देश की सरकार चला रही थीं और एक वक्त अब है जब उनका साम्राज्य बिखर चुका है। नौबत यह आ गई है कि अब उन्होंने चुनावी राजनीति से तौबा कर लिया है। 78 वर्षीय सोनिया गांधी ने अपने जीवन में काफी उतार चढ़ाव देखे। इटली में एक सामान्य परिवार में पैदा हुईं सोनिया को 1968 में राजीव गांधी से शादी के बाद भारत आना पड़ा। वो यहां शासक परिवार के घर की बहु बनीं। लेकिन अगले तीन दशक में उन्हें पहले अपनी सास इंदिरा गांधी और फिर पति राजीव गांधी को खोने की भारी विपदाओं का सामना करना पड़ा।

1984 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई तो उनके पुत्र राजीव गांधी को अचानक राजनीति में आना पड़ा। वो देश के प्रधानमंत्री बन गए। सोनिया तब सहमी थीं। वो अपनी सास की दिनदाहड़े हत्या के बाद अपने पति को राजनीति में नहीं आने देना चाहती थीं। लेकिन नियती देखिए, 1991 में सोनिया का डर सही हो गया और राजीव गांधी लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान तमिलनाडु की एक रैली में आत्मघाती हमले के शिकार हो गए। वक्त की सुई फिर वहीं आ टिकी थी जब इंदिरा की हत्या के बाद राजीव के राजनीति को लेकर उहापोह का दौर था। सोनिया ने कभी पति राजीव को जो सलाह दी थी, खुद के लिए वही मौका आया तो अड़ी रहीं।

लेकिन वो कहते हैं ना, कई बार इंसान खुद को सोचा नहीं कर पाता है, परिस्थितियां उससे कुछ और ही करवा लेती हैं। सीताराम केसरी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी कमजोर होने लगी तो सोनिया गांधी पर कमान संभालने का दबाव बढ़ने लगा। आखिरकार छह साल बाद सोनिया को अपने फैसले से डिगना पड़ा। उन्होंने 1997 में कांग्रेस जॉइन करके राजनीति में पदार्पण कर ही लिया। अगले ही वर्ष 1998 में उन्हें कांग्रेस की कमान भी सौंप दी गई। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी पार्टी को संगठित करना जो नेताओं के बीच आंतरिक कलह के कारण लगातार कमजोर पड़ रही थी। सीताराम केसरी के दौर में एक कहावत मशहूर हो गई थी- ना खाता ना बही, केसरी जो कहें वही सही।

सोनिया ने कांग्रेस पद संभाला तो अगले ही वर्ष लोकसभा के चुनाव हो गए। 1999 के आम चुनाव में सोनिया ने उत्तर प्रदेश की अमेठी और कर्नाटक की बेल्लारी सीट से पहली बार चुनावी किस्मत आजमाई। उन्हें दोनों जगहों पर सफलता मिली और 13वीं लोकसभा में वो पहली बार संसद पहुंच गईं। बेल्लारी में उन्होंने बीजेपी की धाकड़ नेता सुषमा स्वराज को हराया था। हालांकि, उन्होंने यह सीट छोड़ दी और अमेठी का प्रतिनिधित्व करती रहीं। बाद में इन्हीं सुषमा स्वराज ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री से रोकने के लिए एक बड़ा संकल्प लिया। इसकी कहानी आगे।

सोनिया की व्यक्ति सफलता के बाद बारी थी कांग्रेस पार्टी की चमक वापस लाने की। 2004 के लोकसभा चुनावों में यह लक्ष्य भी हासिल हो गया। कांग्रेस पार्टी 2004 को लोकसभा चुनावों में 145 सीटें पाकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन गई। सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने पहली बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने का फैसला किया। सोनिया प्रधानमंत्री बनने वाली थीं, लेकिन न केवल विरोधी बीजेपी बल्कि कांग्रेस के अंदर से भी उनके विदेशी मूल के होने का मुद्दा आसमान छू गया। सुषमा स्वराज ने ऐलान कर दिया कि अगर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वो अपना सिर मुंडवा लेंगी। उधर, शरद पवार, पीए संगमा और तारीक अनवर ने 1999 में ही कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली थी। उन्होंने भी सोनिया के विदेशी मूल के होने को ही अपने विरोध का आधार बनाया था। यह अलग बात है कि एनसीपी पिछले कई वर्षों से उसी कांग्रेस के साथ गठबंधन में है।

2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बना तो सोनिया उसकी चेयरपर्सन चुनी गईं। वो इस बार उत्तर प्रदेश की रायबरेली से जीतकर लोकसभा पहुंची थीं। सोनिया ने विरोध को देखते हुए खुद पीएम पद नहीं लेकर मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बना दिया था। तब नीतिगत मामलों में मनमोहन सरकार को निर्देशित करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) का गठन किया गया और इसकी अध्यक्ष बनीं सोनिया गांधी। आज भी दावा किया जाता है कि दरअसल 2004 से 2014 तक के मनमोहन सिंह सरकार के दो कार्यकाल की असली प्रधानमंत्री तो सोनिया गांधी ही थीं। दावा किया जाता है कि सोनिया ने पर्दे के पीछे से देश का शासन चलाया और सारी जिम्मेदारियों से मुक्त रहीं। यूपीए सरकार में जो भी घपले-घोटाले हुए, उन सबके लिए मनमोहन सिंह के नेृत्व को अक्षम बताया गया और सोनिया सारे फैसले लेकर भी पाक साफ रहीं।

एनएसी चेयरमैन के बतौर सोनिया गांधी पर पर्दे के पीछे से शासन चलाने के आरोप तो लगे ही, एक जबर्दस्त विवाद एनएसी की तरफ से तैयार एक कानूनी मसौदे पर हुआ। सोनिया ने दूसरी बार एनएसी चेयरमैन का पद संभाला तो सांप्रदायिक हिंसा विधेयक, 2011 का ड्राफ्ट तैयार हुआ। आरोप है कि इस मसौदे में दंगों का प्राथमिक दोषी हिंदुओं को मानने का प्रावधान किया गया था। हालांकि, एनएसी ने सूचना का अधिकार कानून, शिक्षा का अधिकार कानून, मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून जैसे कई अच्छे फैसले भी लिए। कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई, लेकिन सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव जीतती रहीं। सोनिया ने गांधी परिवार के इस गढ़ से 2009, 20014 और 2019 का चुनाव जीता। उनका आखिरी लोकसभा चुनाव इस मायने में बहुत खास रहा कि वो उत्तर प्रदेश से चुनकर आने वाली कांग्रेस पार्टी की अकेली लोकसभा सांसद थीं। यहां तक कि परंपरागत अमेठी सीट पर राहुल गांधी को बीजेपी नेता स्मृति इरानी से हार का मुंह देखना पड़ा। अब सोनिया के राज्यसभा का रुख करने के बाद बड़ा सवाल पैदा हो गया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में क्या कांग्रेस पार्टी का उत्तर प्रदेश में खाता भी खुल पाएगा?

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