Tuesday, May 21, 2024
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आखिर कहां से आया था नोटा बटन का आईडिया?

आज हम आपको बताएंगे कि आखिर नोटा बटन का आईडिया कहां से आया था! लोकसभा चुनाव 2024 के पहले फेज के लिए वोटिंग शुरू हो चुकी है। सोशल मीडिया पर मतदान के साथ ही NOTA (इसमें से कोई नहीं) भी ट्रेंड में है। कुछ सोशल मीडिया यूजर्स यह भी कह रहे हैं कि जब से नोटा का ऑप्शन मिला है तब से भाजपा जीत रही है। कहीं विरोध के रूप में नोटा का इस्तेमाल भाजपा को फायदा तो नहीं पहुंचा रहा है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के आंकड़ों के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनाव में 1.06 फीसदी वोट नोटा के पक्ष में पड़े थे। वहीं 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान सबसे ज्यादा 1.98 फीसदी वोट नोटा के पक्ष में पड़े थे। 2019 में लक्षद्वीप में नोटा के तहत सबसे कम यानी 100 वोट डाले गए थे। वहीं, राज्यों में सबसे कम नोटा का प्रतिशत दिल्ली और मिजोरम में रहा। दोनों राज्यों में नोटा के लिए 0.46 प्रतिशत वोट डाले गए। हालांकि, बीते 5 साल लोकसभा और विधानसभा चुनावों में नोटा के तहत 1.29 करोड़ वोट पड़े। कुछ एक्सपर्ट तो इसे बिना दांत और नाखून के बाघ भी बता रहे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ. राजीव रंजन गिरि ने नोटा को ज्यादा प्रभावी नहीं बताया। उन्होंने कहा कि बेहतर तो ये होता कि जिन प्रत्याशियों को वोटर नकार रहे हैं, उन्हें अगले चुनाव में लड़ने से रोका जाना चाहिए। वह कहते हैं कि नोटा का इस्तेमाल इतना मामूली है कि इससे किसी प्रत्याशी के जीत-हार का फैसला नहीं हो सकता है। इतना जरूर है कि जहां कांटे की टक्कर है, वहां पर यह निर्णायक हो सकता है। वहीं, हाल ही में ADR के हेड मेजर जनरल रि. अनिल वर्मा ने एक एजेंसी से बातचीत में कहा था कि नोटा एक तरह से बिना दांत के बाघ जैसा है। यह राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ आक्रोश या असहमति जताने का एक प्लेटफॉर्म भर है।

सुप्रीम कोर्ट के सितंबर, 2013 में आए एक फैसले के बाद इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा का का इस्तेमाल शुरू किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया था कि वह बैलट पेपर्स या ईवीएम में नोटा का प्रावधान करे ताकि वोटर्स को किसी को भी वोट नहीं करने का हक मिल सके। इसके बाद आयोग ने ईवीएम में नोटा का बटन आखिरी विकल्प के रूप में रखा। दरअसल, रूल 49-O के नियम के अनुसार, किसी वोटर को यह हक है कि वह वोट नहीं करे। नोटा से पहले कोई वोटर अगर किसी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहता था तो उसे फॉर्म 490 भरना पड़ता था। हालांकि, पोलिंग स्टेशन पर ऐसे फॉर्म भरना उस वोटर के लिए खतरा भी हो सकता था। यह कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स, 1961 का उल्लंघन भी था। इससे वोटर की गोपनीयता से समझौता करना पड़ता था।

एडीआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, बीते एक दशक में दागदार प्रत्याशियों की संख्या में इजाफा हुआ है। 2009 में लोकसभा चुनाव जीतने वाले कुल 543 उम्मीदवारों में से 162 यानी 30 फीसदी ऐसे थे, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले थे। वहीं, 76 यानी 14 फीसदी प्रत्याशी ऐसे थे, जिनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे थे। 2019 में लोकसभा पहुंचने वाले ऐसे प्रत्याशी 43 फीसदी हो चुके थे, जबकि गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे करीब 29 फीसदी प्रत्याशी लोकसभा पहुंचे थे। नोटा का विचार सबसे पहले अमेरिका के एक नगर निगम से आया था। दरअसल, 1976 में कैलिफोर्निया की सैंटा बारबरा काउंटी में ऑफिशियल इलेक्टोरल बैलट में वहां की म्यूनिसिपल इन्फॉर्मेशन काउंटी ने नोटा के इस्तेमाल का प्रस्ताव पारित किया था। हमारे देश में 2009 में भारत कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट में यह अपील की थी कि नोटा का इस्तेमाल बैलट में करने के लिए सुनिश्चित किया जाए। इससे वोटर को यह आजादी मिलेगी कि वह किसी अयोग्य उम्मीदवार को न चुने। द पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने इस बारे में बाकायदा एक जनहित याचिका दायर की। पहली बार नोटा का इस्तेमाल 2013 में चार राज्यों छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किया गया था।

नोटा का विकल्प अर्जेंटीना, बेलारूस, बेल्जियम और बुल्गारिया में आई डॉन्ट सपोर्ट एनीवन के रूप में मौजूद है। कनाडा, कोलंबिया, फ्रांस, ग्रीस में ब्लैंक वोट तो भारत-अमेरिका में नन ऑफ द अबव के रूप में यह विकल्प है। इंडोनेशिया में एंपटी बॉक्स तो कजाखिस्तान, स्विट्जरलैंड और उरुग्वे में नन ऑफ दीज कैंडिडेट्स कहा जाता है। रूस में नोटा में अगेंस्ट ऑल के रूप में यह मौजूद है।

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