आजकल खेती बाड़ी में किसानों के द्वारा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, जो हानिकारक साबित हो सकता है! स्वच्छ पर्यावरण और बेहतर स्वास्थ्य पैरेलल हैं, पूरक भी कहे जा सकते हैं। यानी कि एक के बिना दूसरे की कल्पना करना थोड़ी बेमानी सी होगी। हालांकि आधुनिकता, औद्योगिक क्रांति और असीम आवश्यकताओं ने हमारे अस्तित्व के एक पैर को लकवा ग्रस्त कर दिया है। तेजी से विकास की ललक ने हमें इतना आतुर बना दिया है कि आज के चक्कर में स्वयं के ही भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। पर्यावरण के साथ पिछले कुछ दशकों से जो अत्याचार हो रहा है, वह इसी खिलवाड़ का आईना है। नतीजा, भोजन से लेकर सांस तक, सब जगह बस प्रदूषण और विषाक्तता ही दिख रही है। ऐसी विषाक्तता जो संभवत: अभी नजर न आ रही हो, पर उसके दुष्प्रभाव जरूर देखे जाते रहे हैं।
5 जून, विश्व पर्यावरण दिवस है। ऐसा खास दिन जब हम पर्यावरण संरक्षण को लेकर विचार-मंथन करते हैं, लोगों को इसके बारे में सचेत किया जाता है, ताकि हम, हमारी आंखों के सामने ही गड़बड़ा रहे भविष्य को सुधार सकें। पर क्या इस वैश्विक संकट के लिए एक दिन चर्चा कर लेना ही काफी है? क्योंकि पर्यावरण के साथ जो दोहन पिछले कुछ दशकों में हुआ है, उसने दुष्प्रभावों की ऐसी बड़ी खाई बना दी है, जिसे भरना इतना आसान नहीं होने वाला है।
सेहत के नजरिए से देखें तो पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण और रसायनों ने कई तरह से हमें नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है। अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि पर्यावरण में बढ़ती विषाक्तता कैंसर जैसे गंभीर रोगों के जोखिम को कई गुना तक बढ़ा देती है। हवा, पानी, मिट्टी और हमारे भोजन में बढ़ते रसायनों की मात्रा कैंसर का कारण बनने वाले पर्यावरणीय कारकों में से प्रमुख हैं।
कैंसर के कारकों को लेकर हुए अध्ययन में पाया गया है कि दुनियाभर में हर साल सामने आ रहे कैंसर के मामलों में से 70-90 फीसदी के लिए पर्यावरण और जीवनशैली के कारकों को जिम्मेदार माना जा सकता है। जॉन्स हॉपकिन्स के शोधकर्ताओं का कहना है कि 65% कैंसर के मामले रैंडम डीएनए उत्परिवर्तन का परिणाम हैं, जबकि शेष 35 फीसदी कैंसर के मामलों के लिए पर्यावरणीय और वंशानुगत कारकों के संयोजन को कारक के रूप में देखा जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि तंबाकू का धुआं और सूरज की किरणों के कारण होने वाले कैंसर से तो आप बच सकते हैं, पर जिस प्रदूषित हवा में हम सांस ले रहे हैं, जो प्रदूषित पानी और भोजन हम खा-पी रहे हैं, उससे होने वाले खतरे को कैसे कम किया जा सकेगा?
यहां यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमारी थाली में जो भोजन रोजाना आ रहा है, उसमें भी विषाक्तता हो सकती है, इतनी विषाक्तता जो आपको कैंसर का शिकार बना सकती है।
पर्यावरण प्रदूषण और विषाक्तता की बात करते समय हमेशा ख्याल वायु प्रदूषण की तरफ ही जाता है, पर क्या आप जानते हैं कि मृदा प्रदूषण भी कैंसर के जोखिम को बढ़ाने वाला कारक है। चीनी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि तेजी से हो रहे शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ पर्यावरण और मिट्टी में बढ़ती धातुओं की मात्रा पेट के कैंसर के जोखिम को कई गुना तक बढ़ा देती है।
इस तरह की मिट्टी में पैदा होने वाले फसलों में भी इस विषाक्तता का अंश शेष रह जाता है जिससे कई तरह की स्वास्थ्य जोखिम बढ़ जाता है। पश्चिमी देशों के आंकड़े उठाकर देखें तो स्पष्ट होता है कि यहां कैंसर के निदान के 30 फीसदी मामले आहार संबंधी कारकों से जुड़े हुए हैं।
इसे सरल भाषा में ऐसे समझा जा सकता है कि फसल की पैदावार को बढ़ाने के लिए हम तमाम तरह के रसायनों-उर्वरकों को प्रयोग में लाते हैं। इनमें से कई तो प्रतिबंधित भी हैं। इनके प्रयोग से मिट्टी और फसल दोनों में विषाक्तता बढ़ती है। ऐसे में उस भूमि से होने वाली पैदावार और उन फसलों का सेवन जाने-अनजाने हमें जानलेवा कैंसर के करीब लाता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण और फसलों में रसायनों के बढ़ते प्रयोग ने न सिर्फ कैंसर, साथ ही कई अन्य रोगों के जोखिम को कई गुना तक बढ़ा दिया है। रिपोर्ट्स बताते हैं कि जिन अनाजों को स्वस्थ मानकर हम सेवन करते आ रहे हैं, असल में उसकी पैदावार को बढ़ाने और फसल को बीमारियों से बचाने के लिए कई ऐसे रसायनों का छिड़काव किया जाता रहा है, जिसे बेहद हानिकारक मानते हुए कई देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने बाकायदा प्रतिबंधित रसायनों की सूची भी साझा की है।
फेडरल इंसेक्टिसाइड फंगीसाइड एंड रोडेंटिसाइड एक्ट (एफआईएफआरए) संघीय कानून है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में कीटनाशकों के पंजीकरण, वितरण, बिक्री और उपयोग को नियंत्रित करता है। इस संस्था ने कई रसायनों और कीटनाशकों के प्रयोग को बैन किया हुआ है, फिर भी कई देशों में इनका प्रयोग किया जा रहा है।