Thursday, May 16, 2024
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क्या हमारी थाली में आने वाला भोजन सुरक्षित है?

अगर वर्तमान में भोजन की थाली की बात की जाए तो जितना भी अनाज उत्पन्न हो रहा है वह कीटनाशकों के कारण ही उत्पन्न हो रहा है? तो क्या यह हमारी थाली के लिए उपयुक्त है? यूके कैंसर रिसर्च द्वारा इसी विषय को लेकर किए गए शोध में पाया गया कि फसलों में होने वाले हानिकारक कीटनाशकों और रसायनों के छिड़काव से वैसे तो सीधे तौर पर कैंसर का खतरा नहीं होता है। ऐसी मिट्टी में उपजे फसल में बहुत थोड़ी मात्रा में कीटनाशक हो सकते हैं, इनका स्तर इतना कम होता है कि इसे कैंसर का जोखिम कारक नहीं कहा जा सकता है। हालांकि अगर प्रतिबंधित रसायनों का उपयोग और फसलों की रखरखाव के लिए हानिकारक कीटनाशकों के उपयोग को लेकर सख्ती नहीं बरती गई तो इससे निश्चित ही भविष्य में जोखिम बढ़ सकता है। इस तरह के जोखिमों को कम करने के लिए स्वास्थ्य विशेषज्ञ फलों और सब्जियों को खाने से पहले अच्छी तरह से धोने की सलाह देते हैं।

इस सवाल का दूसरा पहलू भी जरूर आपके लिए विचारणीय है। शोध बताते हैं मांस उत्पादों और सॉसेज में जीवाणुरोधी और केमिकल युक्त रंग का उपयोग किया जाता है।  इस प्रकार के प्रसंस्कृत मांस उत्पादों से आंत के कैंसर का खतरा 21% बढ़ जाता है।  इसके अलावा, मूंगफली, दलहन, तिलहन और अनाज में एफ्लाटॉक्सिन पाए गए हैं और ये हेपैटोसेलुलर कार्सिनोमा के जोखिम को बढ़ाते हैं।

बाजार में फलों-सब्जियों को आकर्षक दिखाकर अच्छे दाम पाने का चलन है पर क्या आपने कभी सोचा कि कुछ वर्षों पहले तक भद्दे और छोटे दिखने वाले ये फल अचानक इतने आकर्षक कैसे हो गए? आपको याद है बचपन में तरबूज आज के मुकाबले छोटे, अधिक लाल और मीठे होते थे? सेब चमकदार कम होते थे, आम जून तक पकते थे और केले-भिंडी देखने में अजीब तरह के टेढ़े होते थे, फिर इसमें अचानक इतना परिवर्तन कैसे आ गया?

 रिपोर्ट्स से पता चलता है कि पके हुए फलों की शेल्फ लाइफ कम होती है, इसलिए कुछ किसान और आपूर्तिकर्ता उन्हें लंबे समय तक ताजा दिखाने के लिए रसायनों को प्रयोग में लाते हैं, कुछ रसायनों को तो फलों में इंजेक्ट भी कर दिया जाता है। फलों के फसल में दवाइयों का प्रयोग करके उन्हें हाइब्रिड बनाया जा रहा है जिससे वह दिखने में खूबसूरत और आकार में बड़े तो लगते हैं, पर उनमें विषाक्तता अधिक और पोषकता कम होती जा रही है।

इसी तरह मांसाहार का भी हाल है। मांस को चमकदार बनाने के लिए लाल रंगों का इंजेक्शन लगाया जाता  हैं। ये रंग जहरीले हो सकते हैं और कई प्रकार की बीमारियों का कारण बनते हैं। सेब को भी मोम में लेपित किया जाता है जिससे वह चमकदार दिखने लगें, पर मोम का पेट में जाना समस्याओं को बढ़ा सकता है।

अध्ययनों से पता चलता है कि फलों को आकर्षक बनाने और समय से पहले पकाने के लिए कैल्शियम कार्बाइड को प्रयोग में लाया जाता है। शोध में पाया गया कि इससे पके फलों के सेवन से हाइपोक्सिया का जोखिम हो सकता है जिसके कारण तंत्रिका तंत्र प्रभावित हो जाता है। इसके कारण सिरदर्द, चक्कर आना, नींद विकार, स्मृति हानि, पैरों और हाथों में सुन्नता और दौरे जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं।

 पर्यावरण के नजरिए से बात करें तो अध्ययन में पाया गया है कि कैल्शियम कार्बाइड जल को गंभीर रूप से दूषित कर देता है। कैल्शियम कार्बाइड जल के साथ अभिक्रिया करके एसिटिलीन बनाता है। एसिटिलीन जिसे एथीन भी कहा जाता है, यह हाइड्रोकार्बन श्रृंखला का सदस्य है। यह अगर पर्यावरण में बढ़ जाए तो तेज घुटन की समस्या हो सकती है। इसके संपर्क में रहने वाले लोगों में चक्कर आने, सिरदर्द, थकान, टेककार्डिया (धड़कन की अनियमितता) मतली और उल्टी की समस्या हो सकती है। इसकी अधिक मात्रा बेहोशी और गंभीर स्थितियों में मृत्यु के जोखिम को भी बढ़ा सकता है।

उपरोक्त बिंदुओं से स्पष्ट हो गया है कि फसलों की उपज, गुणवत्ता, दिखावट को बढ़ाने के लिए जिन रसायनों-कीटनाशकों को प्रयोग में लाया जा रहा है, वह पर्यावरण के साथ हमारी सेहत के लिए भी गंभीर समस्याओं का कारक बनती हैं। अब सवाल है कि आखिर इस जोखिम को कम कैसे किया जाए? इस संबंध में विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे पहले वैश्विक स्तर पर रसायनों-कीटनाशकों के प्रयोग को लेकर बैन लगाने के साथ इसकी देखरेख भी का जानी चाहिए। क्योंकि यह हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों के अस्तित्व के लिए खतरा है।

दूसरा किसी भी फल-सब्जी के सेवन से पहले उसे अच्छी तरह से धोकर साफ कर लें, जिससे उसमें किसी भी प्रकार से विषाक्तता का अंश शेष न रहने पाए। ऐसा करके इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। दीर्घकालिक उपायों के लिए सरकार-नीति निर्माताओं को व्यापक रूप से ‘थाली की बढ़ती विषाक्तता’ के जोखिम को समझते हुए इससे बचाव के लिए व्यापक रूप से काम करने की आवश्यकता है।

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