Tuesday, April 30, 2024
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क्या विकल्प हीन हो गए हैं वरुण गांधी?

वरुण गांधी अब विकल्प हीन हो गए हैं! वरुण गांधी सबको चौंका रहे हैं। शायद ही कोई समझ पा रहा हो कि आखिर वो ‘कालिदास’ क्यों बन गए? बीजेपी की छांव में उन्होंने सियासत का ककहरा सीखा, फायरब्रैंड नेता की छवि बनाई, दिग्गजों का दुलार पाया, लेकिन अब राजनीति के इसी वटवृक्ष की डाल काटने लगे। भला दूसरी डाल पर पांव टिकाए बिना जिस डाल पर बैठे हों, उसे ही काट डालना कहां की होशियारी है! संभवतः कालिदास ने भी ऐसा नहीं किया होगा। बहुत संभव है कि दंतकथाओं की श्रृंखला चली तो एक कड़ी कालिदास की भी जुड़ गई होगी। ये भी संभव है कि कालिदास पेड़ की वो टहनी सच में काट रहे होंगे, जिन पर वो बैठे थे। तो भी हम कालिदास की गलती से सीख तो सकते ही हैं। वैसे भी वरुण गांधी एक तेज-तर्रार मास लीडर हैं। ओजस्वी भाषणों से जनता के दिलों में गहरे पैठने की कला है उनमें। यही वजह है कि बीजेपी में आते ही वो फर्राटे भरने लगे। मां मेनका गांधी के साथ वरुण 2004 में भाजपा में शामिल हुए और 2009 के अगले लोकसभा चुनाव में ही उन्हें पार्टी का टिकट मिल गया। वो उत्तर प्रदेश की पीलीभीत लोकसभा सीट से चुनकर संसद पहुंच गए। बस तीन साल बाद वर्ष 2013 में पार्टी ने उन्हें अपना सबसे युवा महासचिव बनाया और पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख राज्य का प्रभार भी सौंप दिया। कुल मिलाकर बीजेपी ने वरुण गांधी को सियासत की संकरी गली नहीं, लंबे-चौड़े एक्सप्रेसवे का फ्री पास दे दिया। वरुण गांधी भी तेज रफ्तार से ड्राइविंग करते हुए लगातार नई-नई मंजिल पा रहे थे। उधर, मां मेनका गांधी को 1998 और 1999 में बीजेपी ने तब संसद पहुंचने में मदद की जब वो पार्टी में थी भी नहीं। दोनों ही बार भाजपा हाथ पकड़कर निर्दलीय मेनका को लोकसभा लाई। इतना ही नहीं, मेनका को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री पद भी दिया गया। कहते हैं तब प्रमोद महाजन ने वरुण को ‘बीजेपी का गांधी’ के तौर पर प्रॉजेक्ट किया। उन्हें लाल कृष्ण आडवाणी का भी साथ मिला था।

फिर वर्ष 2014 में जब बीजेपी फिर से केंद्र की सत्ता में लौटी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब भी बीजेपी में मां-बेटे की हनक कायम रही। मेनका गांधी को फिर मंत्री पद से नवाजा गया। उन्हें बेटे वरुण गांधी के साथ संगठन में भी जगह दी गई। फिर ऐसा क्या हुआ कि वरुण ने रास्ता ही बदल लिया? दरअसल, कई बार एक्सप्रेसवे पर सनसनाती रफ्तार में कुछ लोग ऐसे आनंदमग्न हो जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता, उन्होंने कब गाड़ी से नियंत्रण खो दिया। कंट्रोल छूटने पर तो सबकुछ भाग्य पर निर्भर हो जाता है। किस्मत अच्छी रही तो गाड़ी पलटने के बाद भी आप बिल्कुल सुरक्षित बच जाते हैं या फिर हल्की-फुल्की चोटें आती हैं। लेकिन भाग्य का साथ नहीं मिला तो जान भी जा भी सकती है। कई बार जान बच तो जाती है, लेकिन चोट इतनी गंभीर होती है कि उबरने में सालों लग जाते हैं।

लगता है वरुण भी एक्सप्रेसवे पर तेज रफ्तार की सनक के शिकार हो गए। ऐसा भी लगता है कि वरुण एक्सप्रेसवे को नियमों को समझ ही नहीं पाए। उन्हें समझना चाहिए था कि एक्सप्रेसवे बहुत लंबा होता है। आपने इस पर गाड़ी चढ़ा दी तो फिर बहुत देर तक ड्राइविंग करनी पड़ती है। बहुत लंबी दूरी तय करने पर कहीं गाड़ी पार्किंग का मौका मिलता है। वहां आप आराम फरमाते हैं, फ्रेश होते हैं, कुछ खाते-पीते हैं और फिर नई ताजगी से मंजिल की तरफ बढ़ जाते हैं। एक्सप्रेसवे का आनंद है तो लंबी दूरी तक धैर्य से गाड़ी चलाते रहने की चुनौती भी। लेकिन वरुण हड़बड़ी करने लगे। उन्हें लगा कि बहुत दूर ड्राइविंग कर ली है, अब तो पार्किंग होनी ही चाहिए। धैर्य खोते ही उन्होंने यह समझ खो दी कि एक्सप्रेसवे पर नियम तोड़ना कितना महंगा पड़ सकता है।

वो वर्ष 2015 था जब उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव हुआ। प्रदेश में वरुण गांधी को अगले मुख्यमंत्री बताते हुए पोस्टर लगाए गए। मेनका गांधी तो 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान ही जनसभाओं में वरुण को खुलकर बीजेपी का सीएम कैंडिडेट बताने लगीं। यूपी चुनाव तक केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बन चुकी थी। अमित शाह बीजेपी के अध्यक्ष बन चुके थे। वरुण और मेनका को मोदी-शाह की बीजेपी का बदला मिजाज समझ नहीं आया। वो समझ नहीं पाए कि बीजेपी एक्सप्रेसवे है, हाइवे नहीं। यहां धैर्य का सिक्का चलता है, दबाव को अक्सर दुत्कार मिलती है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो वरुण और मेनका ने बीजेपी नेतृत्व पर दबाव डालने का रास्ता अपनाकर भूल कर दी। लेकिन उससे भी बड़ी भूल यह हुई कि वो न सिर्फ पुरानी भूल दोहराते रहे बल्कि नई-नई भूल करने लगे। परिणाम सबके सामने है। मोदी मंत्रिमंडल से मेनका की छुट्टी हो गई।

वैसे भी कहा गया है, किसी को सारा जहां नहीं मिलता। फिर भी उम्मीद टूटने पर मायूसी तो होती ही है। वरुण की आस पूरी नहीं हुई तो बीजेपी से खफा होना कोई गुनाह तो नहीं। लेकिन महत्व वक्त का होता है, बात वक्त के तकाजे की होती है। वरुण ने हड़बड़ी में गड़बड़ी कर दी। पिछले कुछ सालों से वरुण के व्यक्तित्व का विरोधाभास साफ-साफ दिखने लगा है। एक तरफ उनकी तेज-तर्रार नेता की छवि तो दूसरी तरफ बिना किसी नए ठौर के बीजेपी पर वज्रपात करने की आत्मघाती रणनीति! वरुण जैसे बहुमुखी प्रतिभा का धनी युवा जब बिना नई राह बनाए, पुराने रास्ते को बंद कर देता है तो सबको हैरत होती है। आखिर वो कैसे भूल गए कि उन्होंने खुद 10 जनपथ जाकर अपनी शादी का न्योता दिया था, फिर भी सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी में कोई भी नहीं आए। आज राहुल भले ही कह रहे हों कि वरुण को वो गले लगा सकते हैं लेकिन पार्टी में नहीं ले सकते, उन्होंने तो मौके पर हाथ भी नही मिलाया था, गले लगाने की तो बात ही दूर। आखिर वरुण कैसे नहीं समझ पाए कि शादी का न्योता ठुकराने वाले पार्टी में मिलाने की गुजारिश स्वीकार कर लेंगे?

 कांग्रेस ने वरुण को साथ ले भी लिया होता या आगे चलकर वो कांग्रेसी बन भी जाएं तो उन्हें वहां बीजेपी से ज्यादा क्या मिल जाएगा? क्या राहुल-प्रियंका के बरख्स उन्हें खुलकर खेलने की अनुमति होगी वहां? कहा जाता है कि प्रियंका गांधी चाहती हैं कि वरुण कांग्रेस में आ जाएं। लेकिन अब राहुल के साफ इन्कार के बाद शायद प्रियंका ने भी अपने प्लान को ठंडे बस्ते में डाल दिया हो। फिर वरुण के पास और क्या रास्ता बच जाता है? कांग्रेस समेत हर पार्टी किसी ना किसी परिवार संचालित है। भला कौन सा क्षेत्रीय क्षत्रप उन्हें खुलकर खेलने का खुला मैदान देगा? उत्तर प्रदेश में ही समाजवादी पार्टी (SP) से वरुण गांधी कितनी उम्मीद कर सकते हैं और अखिलेश यादव उनकी कौन सी आस पूरी कर सकते हैं? तो क्या वरुण गांधी नई पार्टी बनाएंगे? क्या वो निर्दलीय रहकर ‘एकला चलो रे’ की राह पकड़ेंगे? इनमें से कोई भी विकल्प बीजेपी के मुकाबले बेहतर है, यह फिलहाल तो नहीं लग रहा। भविष्य में किसने झांका है? बहुत संभव है कि वरुण गांधी बीजेपी के बिना और बेहतर कर पाएं। फिर भी इतना तो जरूर है कि वो किस्मत से ही संभव है, वरुण ने भविष्य संवारने की कोई प्लानिंग की है, कम-से-कम अभी ऐसा तो नहीं दिख रहा।

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