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क्या यूक्रेन के जाल में फंस चुका है यूरोप?

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क्या यूक्रेन के जाल में फंस चुका है यूरोप?

यूरोप अब यूक्रेन के जाल में फंस चुका है! कुछ दिन बाद 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध का एक साल पूरा हो जाएगा। वैसे तो इसे एकतरफा जंग माना जा रहा था, लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगी इसमें कूद पड़े। उन्होंने यूक्रेन को हथियार दिए और रूस पर पाबंदियां भी लगा दीं। रूस के स्वर्ण और विदेशी मुद्रा भंडार के करीब 300 अरब डॉलर इन पाबंदियों के भेंट चढ़ गए। रूस के तेल के आयात पर अमेरिका और इसके सहयोगियों का बैन अब भी लागू है। स्विफ्ट सिस्टम तक रूस की पहुंच भी रोक दी गई है। मैकडॉनल्ड्स, केएफसी, एडिडास, ब्रिटिश अमेरिकन टोबैको जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रूस में अपना कामकाज बंद कर चुकी हैं।

लोगों को लगा होगा कि पश्चिमी जगत की तरफ से थोपी गई इन पाबंदियों से रूस आर्थिक रूप से बर्बाद हो जाएगा और उसकी कमर टूट जाएगी। दरअसल, 2 लाख अरब डॉलर की रूसी इकॉनमी अमेरिका और उसके सहयोगियों की 30 लाख अरब डॉलर की बड़ी इकॉनमी के सामने कहीं नहीं ठहरती। फिर भी ऐसा लगता नहीं है कि रूस की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। उलटे रूस की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर ही दिख रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के आकलनों के अनुसार, रूसी इकॉनमी वर्ष 2024 में 2.1% की दर से वृद्धि कर सकती है जबकि अमेरिका के लिए 1%, यूरोप के 27 देशों के लिए 1.6% और जापान के लिए 0.9% की वृद्धि दर का अनुमान है। रूस से तेल आयात पर बैन नहीं लगाने वाले देश भारत और चीन तो क्रमशः 6.8% और 4.5% की वृद्धि दर हासिल करने जा रहे हैं। इन दो देशों के अलावा अफ्रीका और लैटीन अमेरिका के साथ भी रूस का व्यापार धड़ल्ले से चल रहा है। कुल मिलाकर देखें तो रूस पर पश्चिम की पाबंदियां असर छोड़ती नहीं दिख रही हैं। इसी कारण रूस की मुद्रा रूबल पिछले वर्ष जून महीने में डॉलर के मुकाबले 52.3 की रिकॉर्ड ऊंचाई छू ली थी। रूबल मई 2015 के बाद पहली बार इतना मजबूत हुआ था। पिछले वर्ष नवंबर में 12% की सालाना महंगाई के मुकाबले दिसंबर में इसकी दर घटकर 11.9% हो गई थी। महंगाई दर में लगातार आठ महीने से गिरावट दर्ज की जा रही है और फरवरी 2022 के बाद से यह न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है, जब युद्ध शुरू हुआ था।

उधर, यूरोप के देशों में विकास की रफ्तार सुस्त पड़ रही है, नौकरियों का संकट हो रहा है और महंगाई आसमान छू रही है। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले 40% ऊर्जा खपत, खासकर गैस, यूरोप में हुआ करती थी। लेकिन पाबंदियों के कारण रूस से एनर्जी सप्लाई बाधित हो गई। इसके बदले अमेरिका से महंगी कीमतों पर ऊर्जा आपूर्ति हो रही है। यानी यूरोप पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है। इससे यूरोप की सरकारों का बजट घाटा भी बढ़ रहा है। बढ़ते बजट घाटे को सिर्फ तेज आर्थिक वृद्धि से ही पाटा जा सकता है। लेकिन यूरोजोन में तो आर्थिक वृद्धी की दर घट गई है। इसका सरकारी कर्जों पर पड़ा है जो 2019 में 83.9% के मुकाबले 2022 में बढ़कर 96.4% तक पहुंच गया है। ऊर्जा और खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से सरकारी कर्जों में और 2% की वृद्धि का अनुमान लगाया जा रहा है।

अमेरिका में भी मंहगाई काबू में आने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है। जून 2022 में वहां 40 वर्षों में 9.1% की रिकॉर्ड महंगाई दर दर्ज की गई थी। अभी अमेरिका में महंगाई दर 6.5% के स्तर पर है जो फेड के 2% के टार्गेट से तीन गुना से भी ज्यादा है। यह हाल तब है जब फेड लगातार नीतिगत ब्याज दरें बढ़ा रहा है। युद्ध में यूक्रेन की मदद के लिए अमेरिका को रक्षा क्षेत्र में आवंटन बढ़ाना पड़ा है जबकि आर्थिक उत्पादन बढ़ नहीं रहा। अमेरिका ने वित्त वर्ष 2023 के लिए रक्षा बजट बढ़ाकर 857 अरब डॉलर कर दिया है जो कुल जीडीपी का एक तिहाई से भी ज्यादा है।

अमेरिका, यूरोप में ब्याज दरों और महंगाई में वृद्धि के कारण वेतन मूल्यों में कमी आई है। इससे श्रमिक वर्ग में आक्रोश बढ़ रहा है। फ्रांस और यूके में रेलवे, नॉर्वे में एनर्जी सेक्टर जबकि अमेरिका में एविशन सेक्टर के कर्मचारियों में काफी रोष देखा जा रहा है। मौद्रिक नीति में कड़ाई और युद्ध जारी रहने का असर ऐसे ही और श्रमिक आंदोलनों के रूप में देखा जा सकता है। भारत और चीन के दम पर रूस तो युद्ध के बावजूद बमबम है। कुल मिलाकर कहें तो अमेरिका और यूरोप के लिए जो घातक साबित हो रहा है, वही रूस, चीन और भारत के लिए लाभदायक जान पड़ता है। अंत में कहा जा सकता है कि पश्चिमी जगत को लोकतंत्र बनाम तानाशाही का यह वैचारिक युद्ध काफी महंगा पड़ रहा है।