Saturday, April 20, 2024
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सर्दियों में गुड़ खरीदने से पहले जांच लें, असली गुड़ की पहचान करने की गुप्त तकनीक!

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सर्दियों में गुड़ खरीदने से पहले जरूर जांच लें कि यह असली है या नहीं, जानिए असली गुड़ को पहचानने की गुप्त तकनीक मिलावट के बाजार में शुद्ध ताड़ के गुड़ को पहचानना और समझना बहुत मुश्किल है। लेकिन गंध, स्वाद, रंग बता देगा कि गुड़ शुद्ध है या नहीं। ठंडी हवा दक्षिण बंगाल में सर्दी ने दस्तक दे दी है। उसके हाथ नलेन गुड़ का मौसम आया। हालांकि अभी वास्तव में ठंड नहीं है, लेकिन इस सप्ताह हिमालय की बाधा को पार करके और उत्तरी हवा से भरकर सर्दी ने बंगाल में प्रवेश कर लिया है। मौसम विभाग का कहना है कि अगले कुछ दिनों में तेज हवा चलने से पारा और गिरेगा। हालांकि, जब तक ठंड नहीं जाएगी, तब तक अच्छे खजूर का जूस नहीं मिलेगा। अभी के लिए रस का प्रावधान शीरे की मांग के बावजूद व्यापारी आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। इसी मौके का फायदा उठाकर अलग-अलग जगहों पर मिलावटी गुड़ का धंधा शुरू हो गया है। हाइड्रोजनीकृत, फ्यूमिगेंट, कैल्शियम-बाय-कार्बोनेट, नालेन गुड़, स्वाद से भरपूर गुड़ युक्त प्रोपाइलिंग ग्लाइकोल्स नामक सिंथेटिक रसायनों से युक्त मिलावटी शीरे से बाजार भर गया है।

तो आप पिठेपुली के मौसम में असली गुड़ को कैसे पहचान सकते हैं?

कोशिश करो, तुम समझ जाओगे:

खजूर का गुड़ खरीदते समय दुकान से थोड़ा सा गुड़ लेकर जीभ पर लगाएं। यदि गुड़ नमकीन हो तो उस दुकान से गुड़ न ही खरीदें तो अच्छा है। गुड़ में अत्यधिक स्वास्थ्य लाभ होते हैं जो इसे आदर्श स्वीटनर बनाते हैं। इसके सिर्फ 20 ग्राम में 38 कैलोरी होती है और इसमें 9.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 9.7 ग्राम चीनी, 0.01 ग्राम प्रोटीन, कोलीन, बीटाइन, विटामिन बी 12, बी 6, फोलेट, कैल्शियम, आयरन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सेलेनियम और मैंगनीज होता है। शिउली रहमान अली ने बताया कि मिलावट के बाजार में खजूर के शुद्ध शीरे को कैसे पहचाना और समझा जाए। रहमान लंबे समय से शीरे का कारोबारी है। खजूर के रस से बने इस गुड़ का सभी बंगालियों को बहुत इंतजार रहता है और वे अपने सभी मीठे व्यंजनों में चीनी के स्थान पर इसका बड़े पैमाने पर उपयोग करते हैं। यह मिठाइयों को एक बेहतरीन मीठा, धुएँ के रंग का स्वाद देता है और इसका स्वाद चीनी से बिल्कुल बेजोड़ है। गुड़ तोड़ कर मुँह में रखिये स्वाद कैसा लगता है ! स्वाद में नमकीन लगे तो समझ लीजिए कि फैटकिरी में गुड़ मिला हुआ है.

उंगली के स्पर्श से फूट जाएगा शुद्ध गुड़ का डेला:

असली नालेन गुड़ के गुड़ उंगली के हल्के दबाव से टूट जाते हैं. यदि वह टूट जाए, तो तुम जान लोगे कि तुम्हें प्रामाणिक मिल गया है। अगर चट्टान की तरह कठोर? रिफाइंड की जगह गुड़ के किसी भी रूप को चुनना सभी के लिए एक स्वस्थ विकल्प हो सकता है। गुड़ में गुड़ होता है जिसका कुछ पोषण मूल्य होता है। इसके अतिरिक्त, नोलेन गुड़ में मैग्नीशियम, पोटेशियम, मैंगनीज और आयरन होता है। आपको थोड़ा सा बी विटामिन, कैल्शियम और जिंक भी मिलता है

रंग से पहचानें गुड़:

अगर गुड़ क्रिस्टल क्लियर है, तो आपको पता चल जाएगा कि इसमें निश्चित रूप से चीनी है। आमतौर पर गुड़ का रंग गहरा भूरा होता है। इसलिए अगर आपको गहरे लाल या भूरे रंग का गुड़ दिखाई दे तो आपको पता होना चाहिए कि इसमें अत्यधिक केमिकल मिला हुआ है। जो शरीर के लिए हानिकारक भी होता है।

गुड़ की महक के कारण न खरीदें:

क्या आपने अपनी आँखें बंद कर लीं और सुगंधित गंध का आनंद लेने के लिए गुड़ खरीदा? लगता है कि आपको असली चीज़ मिल गई है? यदि ऐसा है, तो आप बेवकूफी भरी बातें कर रहे हैं। क्‍योंकि आजकल गुड़ को फ्लेवर देने के लिए केमिकल का इस्‍तेमाल किया जाता है। खाद्य सुरक्षा अधिकारी सब्यसाची चटर्जी के मुताबिक, ‘हर साल सीजन की शुरुआत में एक विशेष अभियान चलाया जाता है।’ पिछले साल मई-जून के दौरान नलेन गुड़ के कई नमूने एकत्र कर केंद्रीय प्रयोगशाला भेजे गए थे। यदि हमें वह रिपोर्ट मिल जाती है, तो हम पुष्टि कर सकते हैं कि किस प्रकार के रसायनों को मिलाया जा रहा है और कितना या बिल्कुल नहीं। नदिया जिले का एक बड़ा हिस्सा – मुख्य रूप से साहेबनगर, पलाशी, छपरा, करीमपुर, शिकारपुर, किशोरपुर, कुलगाछी, मजदिया – नलेन गुड़ कृष्णानगर सहित जिले के कई बाजारों में पहुंचता है। इसके अलावा कृष्णागंज प्रखंड के मजदिया में गुड़ की मंडी लगती है. नवंबर के अंत से मार्च तक यहां अच्छा गुड़ मिलता है।

दक्षिण सुपरस्टार महेश बाबू ने शादी से पहले रखी थी ये शर्त! जानिए इनकी लव स्टोरीl

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राजकुमार संतोषी द्वारा निर्देशित यह फिल्म 2000 में रिलीज हुई थी। नम्रता शिरोडकर ने अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित के साथ इस फिल्म में अभिनय कर दर्शकों का दिल जीत लिया था।

नम्रता शिरोडकर का शादी से पहले क्या सपना था ?

लेकिन नम्रता ने शुरुआत में अभिनय का पेशा नहीं चुना। उसका सपना एयर होस्टेस बनने का था। उन्होंने संयोग से अभिनय की दुनिया में प्रवेश किया। नम्रता का जन्म 1972 में महाराष्ट्र के एक गोवा परिवार में हुआ था। उनकी दादी मीनाक्षी शिरोडकर अभिनय से जुड़ी हुई थीं। मीनाक्षी ने 1938 में रिलीज हुई ‘ब्रह्मचारी’ नाम की एक मराठी फिल्म में काम किया। नम्रता ने पांच साल की उम्र में शत्रुघ्न सिन्हा के साथ शिरडी के साईं बाबा में एक बाल कलाकार के रूप में अभिनय किया। नम्रता बचपन से ही मेधावी छात्रा थीं। लेकिन उनकी बहन शिल्पा का किरदार उनसे बिल्कुल उलट था. शिल्पा का पढ़ाई में मन नहीं लगता था। उनका झुकाव अभिनय की ओर था। लेकिन नम्रता आसमान पार करना चाहती थी। उसका सपना एयर होस्टेस बनने का था। इसके लिए उन्होंने टेस्ट भी दिए। जब उन्होंने घर पर परीक्षा की खबर पास की तो उनकी मां ने नम्रता को इस पेशे में काम करने की इजाजत दे दी।

क्या आपको फिल्म ‘पुकार’ याद है?

नम्रता और शिल्पा – नम्रता की मां अपनी दोनों बेटियों को लेकर एक मशहूर फोटोग्राफर के पास जाती हैं। उन्होंने जुबानी सुना था कि इस फोटोग्राफर ने बॉलीवुड के मशहूर सितारों की तस्वीरें ली हैं। उनकी मां को यकीन था कि अगर उन्होंने दोनों लड़कियों की तस्वीरें पेश कीं, तो वे भी बाली उद्योग में प्रसिद्धि हासिल करेंगी। तुरंत ही दोनों बहनों के पोर्टफोलियो शूट कर लिए गए। शिल्पा ने एक्टिंग के लिए ऑडिशन देना शुरू किया। विनम्रता पोर्टफोलियो मॉडल के रूप में बनाए जाते हैं। एक मशहूर फैशन डिजाइनर ने नम्रता की तस्वीरों को पसंद किया और नम्रता जल्द ही मॉडलिंग की दुनिया में मशहूर हो गईं। अपने मॉडलिंग करियर के साथ, 1993 तक नम्रता ने एक लोकप्रिय सौंदर्य प्रतियोगिता जीती थी। उनके साथ महीप कपूर और पूजा बत्रा जैसे सितारे शामिल हुए। इसके अलावा नम्रता ने दूसरे ब्यूटी पेजेंट में भी हिस्सा लिया। फिल्म का सारा काम पूरा हो जाने के बाद भी यह फिल्म रिलीज नहीं हो पाई। बाद में इस फिल्म का नाम बदलकर ‘हैलो इंडिया’ कर दिया गया। लेकिन फिल्म अभी तक रिलीज नहीं हुई है।

नम्रता शिरोडकर से क्या शर्त रखी थी महेश ने शादी से पहले?

1998 में फिल्म ‘जब प्यार किसी से होता है’ रिलीज हुई थी। इस फिल्म में सलमान खान और ट्विंकल खन्ना ने मुख्य भूमिका निभाई थी। नम्रता ने एक कैमियो भूमिका निभाई।अगले ही वर्ष उन्होंने संजय दत्त के साथ ‘बस्तव’ और अजय देवगन, मनीषा कोइराला और सैफ अली खान के साथ ‘कच्चे धागे’ में अभिनय किया। एक्ट्रेस ने एक इंटरव्यू में कहा कि वह एक्टिंग के लिए इसलिए राजी हुईं क्योंकि इन फिल्मों में पॉपुलर स्टार्स एक्टिंग कर रहे हैं। इसके अलावा नम्रता ने महेश मांजरेकर की फिल्म ‘अस्तित्व’, ‘हटियार’, ‘तेरा मेरा साथ रहे’ में काम किया। अभिनेत्री निर्देशक को अपने ‘गुरु’ के रूप में देखती थीं। उन्हें विनम्रता भी प्रिय थी। कई लोकप्रिय हिंदी फिल्मों में अभिनय करने के अलावा, वह कन्नड़, मलयालम, तेलुगु, मराठी भाषाओं की विभिन्न दक्षिणी फिल्मों में भी दिखाई दिए हैं। अपने करियर में अपना नाम बनाने के दौरान, नम्रता दीपक शेट्टी नाम के एक रेस्तरां मालिक के साथ रिश्ते में आ जाती हैं। बोलिपारा के एक वर्ग ने दावा किया कि वह दीपक के साथ रहता था। कहा जाता है कि दोनों ने गुपचुप तरीके से शादी भी कर ली है। हालांकि नम्रता ने इस संदर्भ में कुछ नहीं कहा। साल 2000 में नम्रता को ‘भाम्सी’ नाम की एक तेलुगु फिल्म में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म में उन्होंने दक्षिण के लोकप्रिय अभिनेता महेश बाबू के साथ काम किया था। एक्टिंग के दम पर दोनों सितारे दोस्त बने। जल्द ही वह दोस्ती रोमांटिक रिश्ते में बदल गई। उन्होंने पांच साल तक एक-दूसरे को गुपचुप तरीके से डेट किया। अभिनेता नहीं चाहते थे कि उनके रिश्ते का उनके करियर पर कोई असर पड़े। इसलिए दोनों के रिश्ते को किसी ने सार्वजनिक नहीं किया है। नम्रता महेश से चार साल बड़ी थीं। महेश रिश्ते के बारे में किसी को बताना नहीं चाहते थे, यह सोचकर कि कई लोग इस बारे में कठोर बोल सकते हैं। लंबे रिश्ते के बाद महेश और नम्रता ने 2005 में शादी की थी। बलीपारा के एक वर्ग का दावा है कि महेश ने शादी से पहले एक शर्त रखी थी कि अगर वह शादी करते हैं तो उन्हें एक्टिंग की दुनिया को पूरी तरह से छोड़ना होगा। नम्रता ने इस शर्त को मान लिया और महेश से शादी कर ली। कुछ लोग सोचते हैं कि अभिनेत्री बलीपारा से महेश के कारण नहीं, बल्कि उद्योग में रातोंरात बदलाव के कारण दूर चली गई। कई लोगों ने महसूस किया कि जो अभिनेत्रियाँ नृत्य में अच्छी थीं और जिन्हें अंतरंग दृश्य करने में कोई समस्या नहीं थी, उन्हें काम दिया जा रहा था। अभिनेत्री ने स्वेच्छा से अभिनय छोड़ दिया क्योंकि वह इस माहौल के अनुकूल नहीं हो सकीं। हालांकि नम्रता ने इस पर कोई कमेंट नहीं किया। शादी के एक साल बाद नम्रता ने एक बेटे को जन्म दिया। कुछ साल बाद महेश और नम्रता को एक बेटी हुई। फिलहाल नम्रता लाइमलाइट से दूर हैं और अपने परिवार में व्यस्त हैं।

इमरजेंसी से पहले पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को क्यों लगा झटका?

इमरजेंसी से पहले ही पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को एक बड़ा झटका लग चुका था! पीसी सेठी, बंसीलाल, हेमवती नंदन बहुगुणा से पहले भी एक सीएम चेंज हुआ था। तब शायद इमरजेंसी की आहट नहीं थी। इसलिए संजय गांधी के कुनबे की इस हरकत की चर्चा कम होती है। ये हुआ 17 जुलाई 1973 को गुजरात में। 1972 का विधानसभा चुनाव 50 परसेंट वोट शेयर के साथ जीतने वाले गांधीवादी घनश्याम ओझा को अचानक पद से हटने का फरमान इंदिरा गांधी ने सुना दिया। ये हम सब जानते हैं कि गरीबी हटाओ के नारे से 1971 में पीएम बनी इंदिरा गांधी की सरकार दरअसल उनके बेटे संजय गांधी चला रहे थे। आरके धवन, ओम मेहता, बंसीलाल के साथ संजय की चौकड़ी इमरजेंसी के दौरान मिनटों में सीएम निपटाने का काम कर रही थी। लेकिन किसे पता था कि ओझा को गुजरात के सीएम पद से हटाने का फैसला ही देश को इमरजेंसी की आग में झोंकने का पहला पड़ाव साबित होगा। इंदिरा ने ओझा को हटाकर चिमनभाई पटेल को गुजरात की सत्ता सौंप दी। उधर मोरारजी देसाई और बाबू भाई पटेल गुजरात के चर्चित छात्र आंदोलन को हवा दे रहे थे। ये दोनों 1969 में इंदिरा गांधी को पार्टी से निकालने वाले सिंडिकेट में शामिल थे। उन सर्दियों में कांग्रेस बंटी थी तब इंदिरा ने कांग्रेस (आर) बनाई और सिंडिकेट वाले कांग्रेस (ओ) कहलाए। हालांकि 1971 के लोकसभा चुनाव में सिंडिकेट शिकस्त खा चुका था और इंदिरा फिर से प्रधानमंत्री थी। लेकिन गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन बहुत तेज हो रहा था। इसे जय प्रकाश नारायण भी सपोर्ट दे रहे थे। तभी चिमनभाई एक मौका दे दिया।

1972 के विधानसभा चुनाव में इंदिरा के हाथों पस्त हुआ सिंडिकेड छात्रों की मांगों के साथ उग्र हो गया था और चिमनभाई ने इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर दी। नौ फरवरी 1974 के दिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद लगभग 90 विधायकों ने आंदोलन के समर्थन में अपनी विधानसभा सदस्यता त्याग दी। ऐसा न पहले हुआ था और न उसके बाद हुआ है। गुजरात में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। जल्दी ही नए जानदेश की मांग तेज हो गई। मोरारजी देसाई धरने पर बैठ गए। गुजरात में नए जनादेश के लिए जनसंघ भी कूद पड़ा। मोरराजी देसाई और संघ के बीच सुलह का काम किया जेपी ने। अंत में इंदिरा ने चुनाव कराने पर हामी भर दी। इंदिरा गांधी को लग रहा था बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान को जिस तरह हमने हरा दिया उससे पूरे देश में कांग्रेस (आर) के पक्ष में लहर कायम है। 1971 के लोकसभा चुनावों में वो पूर्ण बहुमत हासिल कर ही चुकी थीं। कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सिंडिकेट धूल चाट गया था।

लेकिन गुजरात तो नई कहानी लिखने जा रहा था। छात्र आंदोलन के साथ सौराष्ट्र के पाटीदारों ने किसान आंदोलन शुरू कर दिया। इस बीच चिमनभाई कांग्रेस से बर्खास्त किए जा चुके थे। उन्होंने खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखने के लिए किसान मजदूर लोक पक्ष (KMLP) नाम का संगठन तैयार कर लिया और वो किसानों के पक्ष में बोलने लगे। धीरे-धीरे पटेल ने भी विधानसभा चुनाव जल्दी कराने की मांग कर दी। उधर जेपी लगातार गुजरात में कैंप कर रहे थे। फरवरी, 1975 में लोक संघर्ष समिति (LSS) का गठन हुआ और पूरे देश में इंदिरा गांधी के के खिलाफ आंदोलन तेज करने का आह्वान। अप्रैल में मोरारजी देसाई के आमरण अनशन के बाद चुनाव का ऐलान हो गया था। अब जेपी गैर कम्युनिस्टों का साझा जनता मोर्चा बनाना चाहते थे। लेकिन मोरारजी देसाई कांग्रेस ओ को अकेले मैदान में उतारना चाहते थे। जनता मोर्चा बन गया लेकिन साझा सिंबल पर सहमति नहीं बन पाई। जनसंघ ने तो चिमनभाई पटेल को भी साथ लाने की मांग कर दी पर देसाई ने खबरदार किया।

हालांकि इससे पहले 1957 में अलग गुजरात राज्य बनाने के लिए महा गुजरात जनता परिषद बना था जिसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे। फिर 1967 के चुनाव में जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी साथ आई थी। 1971 के लोकसभा और अगले साल विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन हुआ। लेकिन 1975 का गठबंधन इन सबसे अलग था। इसमें मोर्चा ने सहमति से उम्मीदवार तय किए। जनता मोर्चा का साझा संसदी बोर्ड बना। सभी पार्टियों ने हर सीट के लिए संभावित उम्मीदवारों की लिस्ट सौंपी। 160 सीटों पर आपसी सहमति से उम्मीदवार तय हुए। जिन 22 सीटों पर सहमति नहीं बनी उन पर अंतिम फैसला लेने के लिए मोरारजी देसाई को स्वतंत्र कर दिया गया। उधर चिमनभाई ने अकेले 128 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए।

उधर इंदिरा गांधी प्रचार का कमान खुद संभाल रही थीं। उन्होंने विद्याचरण शुक्ल को हेड बनाया। माधवसिंह सोलंकी, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रतुभाई अडानी, मनुभाई शाह प्रचार के लिए निकल पड़े। इंदिरा गांधी खुद 11 दिनों तक गुजरात में रहीं और 119 जगहों पर उनकी रैलियां हुईं। इस बार गरीबी हटाओ का नारा उन्होंने नहीं दोहराया। वो स्थायी सरकार को मुद्दा बना रहीं थीं। उधर जनता मोर्चा के प्रचार का आगाज किया सर्वोदय आंदोलन के नेता आचार्य कृपलानी ने। अशोक मेहता, राज नारायण, मोरारजी देसाई भी अहमदाबाद की उस रैली में मौजूद थे। मोर्चा ने लोकतंत्र बचाए रखने और भ्रष्टाचारमुक्त सरकार को मुख्य मुद्दा बनाया। आरएसएस काभी आक्रामक मुद्रा में थी। इसके कार्यकर्ताओं की कांग्रेस के साथ झड़प भी हुई। इंदिरा गांधी की एक रैली भी प्रभावित हुई। जगजवीन राम एक हमले में घायल भी हो गए।

जब 10 जून, 1975 को नतीजे आए तो आयरन लेडी इंदिरा गांधी के होश फाख्ता हो गए। कांग्रेस आर को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिली लेकिन बहुमत से बहुत दूर। उधर कांग्रेस ओ ने 56 सीटें हासिल की। जनसंघ ने 18 सीटों पर जीत हासिल की। हालांकि जनता मोर्चा बहुमत से 17 कदम दूर थी। अंत में बाबूभाई पटेल को चिमनभाई से हाथ मिलाना ही पड़ा। 15 जून, 1975 को गैर कांग्रेसी सरकार के अगुआ के तौर पर उन्होंने शपथ ली। ठीक इससे तीन दिन पहले यानी 12 जून को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इंदिरा से ज्यादा संजय गांधी बौखला उठे। जेपी ने और चांप चढ़ा दिया। गुजरात में नई सरकार बनने के ठीक दसवें दिन 24 जून की आधी रात इंदिरा गांधी ने भारत के सबसे काले अध्याय यानी इमरजेंसी की शुरुआत कर दी।

“ये गुजरात, मैंने बनाया है” क्या दिखाएगा चमत्कार?

पीएम मोदी के वो शब्द “ये गुजरात, मैंने बनाया है” क्या गुजरात में चमत्कार दिखा पाएगा? यह आज का सबसे बड़ा सवाल है!गुजरात चुनाव में सभी दलों ने जोर लगा दिया है और इसी बीच पीएम मोदी ने ऐसी बात कही है जिसकी काफी चर्चा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान कहा… आ गुजरात में बनाव्यु छे यह गुजरात मैंने बनाया है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि गुजरात को बदनाम करने की कोशिश कामयाब नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान के बाद विपक्षी दल इस पर सवाल खड़े कर रहे हैं तो वहीं बीजेपी ने इसे चुनावी नारा बना दिया है। गुजरात सीएम पद छोड़ने और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी नरेंद्र मोदी का कनेक्शन गुजरात से बना रहा। गुजरात का चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहां सीधे पीएम मोदी से कनेक्शन रहता है। दूसरे राज्यों में भी बीजेपी को पीएम मोदी के नाम का सहारा रहता है लेकिन गुजरात की कहानी कुछ अलग ही है। मैंने गुजरात बनाया है, इसको समझने के लिए 2014 में जाना होगा जब नरेंद्र मोदी गुजरात की सत्ता छोड़कर देश की बागडोर संभालने जा रहे थे।

अब से कुछ ही दिनों बाद दिसंबर महीने की पहली तारीख को गुजरात में पहले चरण का चुनाव है। चुनाव से पहले बीते रविवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में नया नारा दिया!आ गुजरात में बनाव्यु छे (यह गुजरात मैंने बनाया है)। पीएम मोदी ने गुजरात के वलसाड जिले में करीब आधे घंटे के भाषण में लोगों से कई बार यह नारा लगवाया। गुजराती में बोलते हुए पीएम मोदी ने कहा कि जो विभाजनकारी ताकतें घृणा फैलाने में संलिप्त रही हैं, जिन्होंने गुजरात को बदनाम करने और उसका अपमान करने की कोशिशें की हैं, उन्हें गुजरात से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। किसी का नाम लिए बगैर मोदी ने कहा कि गुजरात के लोगों ने उस गैंग को पहचान लिया है जो गुजरात के खिलाफ काम कर रहा है और हमेशा राज्य को बदनाम करने की कोशिश करता रहता है।

मोदी ने कहा जो लोग गुजरात को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें आश्चर्य हो रहा है कि गुजरात की जनता उनके झूठे प्रचार पर भरोसा क्यों नहीं कर रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस राज्य के लोगों ने कड़ी मेहनत से गुजरात को बनाया है और वे किसी को इसे नुकसान नहीं पहुंचाने देंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं लिया लेकिन जिस तरीके से आम आदमी पार्टी ने गुजरात मॉडल को लेकर निशाना साधा है यह उसका जवाब भी माना जा रहा है।

गुजरात मॉडल इसकी चर्चा 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त भी खूब हुई। इससे पहले गुजरात में इसकी चर्चा होती थी लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात मॉडल का प्रचार किया गया। भारतीय जनता और राज्यों में इस मॉडल को अपनाने की उत्सुकता दिखी। पूरे देश में गुजरात मॉडल की चर्चा अगले कुछ वर्षों तक हुई। अब उसी गुजरात में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल दिल्ली का मॉडल लेकर पहुंचे हैं। इस मॉडल में फ्री बिजली, स्कूल, हॉस्पिटल की बात है। गुजरात में आम आदमी पार्टी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसी मॉडल को लेकर गुजरात में बीजेपी को घेरने में लगे हैं। पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल ने कहा कि गुजरात के स्कूलों की हालत खराब है और यह वैसे ही जैसे आम आदमी पार्टी के आने के पहले दिल्ली के स्कूलों की थी।

स्कूल पर विकास पर सवाल के साथ ही हिंदुत्व वाले मुद्दे पर बीजेपी को आम आदमी पार्टी पीछे छोड़ना चाहती है। चुनाव के बीच नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीर लगाने की मांग सरकार से कर डाली। आम आदमी पार्टी गुजरात चुनाव में पूरा जोर लगा रही है। कांग्रेस की ओर से भी गुजरात मॉडल पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। अब बीजेपी खासकर पीएम मोदी की ओर से सिर्फ इस मॉडल की ही बात नहीं इससे आगे की चर्चा शुरू कर दी है।

2001 से 2014 तक गुजरात की कमान नरेंद्र मोदी के हाथों में रही। पीएम मोदी ने इस दौरान विकास का एक नया मॉडल पेश किया जिसकी चर्चा न केवल देश बल्कि विदेशों में भी हुई। 2014 में लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने के बाद पीएम मोदी दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे। आखिरी वक्त में उन्होंने गुजरात विधानसभा को संबोधित करते हुए कहा कि मेरी सफलता इसमें है कि आप विकास की इस यात्रा को किस तरह आगे ले जाते हैं। मुझे विश्वास है कि मेरे बाद गुजरात आगे बढ़ेगा। नरेंद्र मोदी ने उस वक्त भरोसा दिलाया कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वह गुजरात का ध्यान करेंगे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि स्वाभाविक है कि मुझ पर पहला हक गुजरातियों का है। मुख्यमंत्री रहते उन्होंने गुजरात में विकास के कई ऐसे कार्य किए जिसकी मिशाल दी जाती है।

गुजरात के कच्छ इलाके में 2001 में आए विनाशकारी भूकंप से बहुत कुछ तबाह हो गया। मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने कई ऐसे प्रयोग किए जिसकी वजह से कुछ समय के भीतर कच्छ प्रगति के पथ पर आगे बढ़ चला। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में निवेश लाने के लिए वाइब्रेंट गुजरात की शुरुआत की। जिसका राज्य को काफी फायदा हुआ। दूसरे राज्यों ने भी इससे प्रेरणा लेते हुए इसकी ओर आगे बढ़े। गुजरात मॉडल को मोदी का गुजरात मॉडल बना। राज्यों में गुजरात की रैंकिग सबसे ऊपर रही। नरेंद्र मोदी के गुजरात छोड़ने के बाद कई सीएम बदले और कोई ऐसा मुख्यमंत्री नहीं रहा जो खास पहचान बना सके। वहीं सीटों की संख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी के सामने चुनौती बढ़ी है। पिछले चुनाव में सीटों का आंकड़ा 100 के नीचे आ गया। इस बार मैदान में कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी और ओवैसी की पार्टी भी मैदान में है। प्रधानमंत्री ने चुनाव से पहले कमान संभाल ली है और वह अपने ही तरीके से विरोधियों पर निशाना साध रहे हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान पर विपक्षी दलों ने सवाल खड़े किए हैं। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और ओवैसी ने अपने-अपने तरीके से इस बयान की आलोचना की है। किसी ने अहंकार से इसे जोड़ा तो वहीं किसी ने व्यवस्था कैसी है उसे छिपाने के लिए ऐसा किया जा रहा है… कहा गया। विपक्ष क्या सोच रहा इससे अलग पीएम मोदी के बयान के अगले ही दिन भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने आ गुजरात में बनाव्यु छे (यह गुजरात मैंने बनाया है) को अपना चुनावी नारा बना दिया है। भाजपा की गुजरात इकाई के अध्यक्ष सी.आर. पाटिल ने इसी नारे तर्ज पर कल ही चुनाव अभियान की शुरुआत की और भाजपा के नेतृत्व में गुजरात के विकास पर एक लघु फिल्म जारी की। गुजरात में दो चरणों में मतदान होना है। पहले चरण में एक दिसंबर जबकि दूसरे चरण में पांच दिसंबर को मतदान होगा। वोटों की गिनती आठ दिसंबर को होगी।

क्या गुजरात के लिए कमजोर उम्मीदवार दिए “आप” ने?

“आप” ने गुजरात के लिए कमजोर उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं! गुजरात विधानसभा चुनाव 32 साल बाद किसी तीसरी मजबूत हस्ती की मौजूदगी में हो रहा है। 1990 में जनता दल ने त्रिकोण बनाया था। इस बार आम आदमी पार्टी ने। अरविंद केजरीवाल की पार्टी युवाओं पर फोकस कर रही है। ये पार्टी के अहमदाबाद दफ्तर में घुसते ही पता चल जाता है। एक तरफ फायर ब्रांड यूथ लीडर युवराज सिंह जडेजा कार्यकर्ताओं और प्रेस वालों से मिल रहे हैं तो दूसरी ओर बीस से ज्यादा युवा उत्साही गुजरात के अलग-अलग हिस्सों से को-ऑर्डिनेशन का काम देख रहे हैं। चाय और लस्सी पिलाई जा रही है। इसी बीच माहौल थोड़ा गर्म होने लगता है। दफ्तर के अहाते पर 10-20 की संख्या में लोग अपील करने लगते हैं। हमारी सुनिए। हम दूर से आए हैं। उनके गले में आप की पीली पट्टी भी है। जब बात निकली तो पता चलता है कि ये सारे आम आदमी पार्टी के टिकट बंटवारे से गुस्से में हैं। ये सभी लोग उत्तरी गुजरात के साबरकांठा और अरवल्ली जिले से आए हैं।

हमने जैसे ही माइक निकाला, इस शख्स ने कहा – इडर विधानसभा से हैं और वहां से जो कैंडिडेट दिया है वो जीत नहीं सकता। जयंतीभाई प्रणामी को टिकट दिया है जो किसी हाल में जीत नहीं सकता। लोकल ही वहां जीतेगा। साबरकांठा में हंसमुखभाई कपड़िया, पराग परमार, कमलेशभाई परमार है जो रेस में थे। लेकिन इनके बदले प्रणामी को टिकट दे दिया। हम वहां की सीट गंवा रहे हैं। हमको चिंता है पार्टी के बारे में और पार्टी सोचती नहीं है हमारे बारे में। इसलिए हम मांग करते हैं कि यहां से टिकट बदला जाए।

अरवल्ली की सभी तीन सीटों पर 2017 में यूपीए का कब्जा रहा। वहीं साबरकांठा की चार में से तीन सीटें भाजपा की झोली में गई थी। हिम्मतनगर से भाजपा के रजुभाई चावड़ा ने कांग्रेस के कमलेशकुमार पटेल को लगभग दो हजार मतों से हराया था। इडर से बीजेपी के हितू कनोडिया ने कांग्रेस के मणिभाई वाघेला को 14000 से ज्यादा वोटों से हराया था। खेदब्रह्मा से कांग्रेस के अश्विनभाई लक्ष्मीभाई को जीत हासिल हुई थी। साबरकांठा की चौथी सीट प्रांतिज से भाजपा के गजेंद्र सिंह परमार ने जीत हासिल की थी। वहीं अरवल्ली के भिलोडा से कांग्रेस के अनिल जोशियारा, मोडासा से बीजपे के भीखूसिंह चतुरसिंह जी और बयाड से कांग्रेस के धवल सिंह जाला बाजी मार गए।

कुछ इसी तरह की मांग अरवल्ली जिले से आए कार्यकर्ता कर रहे थे। अरवल्ली जिले में तीन विधानसभा क्षेत्र हैं – भिलोडा, मोडासा और बयाड। वहां से आम आदमी पार्टी के अहमदाबाद दफ्तर पहुंचे एक आप कार्यकर्ता ने कहा – संगठन मंत्री राहुलभाई सोलंकी, महेंद्र भाई ने 15 से 20 लाख रुपया संगठन के लिए दिया।कुछ इसी तरह की मांग अरवल्ली जिले से आए कार्यकर्ता कर रहे थे। अरवल्ली जिले में तीन विधानसभा क्षेत्र हैं – भिलोडा, मोडासा और बयाड। वहां से आम आदमी पार्टी के अहमदाबाद दफ्तर पहुंचे एक आप कार्यकर्ता ने कहा – संगठन मंत्री राहुलभाई सोलंकी, महेंद्र भाई ने 15 से 20 लाख रुपया संगठन के लिए दिया। लेकिन जब टिकट देने की बारी आई तो चार दिन पहले नजर आ रहे दावेदारों को टिकट दे दिया। तीनों सीटों पर संगठन में काम करने वाले को टिकट नहीं दिया।इसी पर बगल में खड़ी एक महिला गुस्से में आ गई – बोलना नहीं चाहिए लेकिन पैसे के दम पर टिकट मिल गया।

भिलोडा में कोई काम नहीं किया है। सबलोग निराश हैं। सबको मन में है कि हमारे बीच काम कर रहे थे वो क्यों नहीं आए।इडर से बीजेपी के हितू कनोडिया ने कांग्रेस के मणिभाई वाघेला को 14000 से ज्यादा वोटों से हराया था। खेदब्रह्मा से कांग्रेस के अश्विनभाई लक्ष्मीभाई को जीत हासिल हुई थी। साबरकांठा की चौथी सीट प्रांतिज से भाजपा के गजेंद्र सिंह परमार ने जीत हासिल की थी। वहीं अरवल्ली के भिलोडा से कांग्रेस के अनिल जोशियारा, मोडासा से बीजपे के भीखूसिंह चतुरसिंह जी और बयाड से कांग्रेस के धवल सिंह जाला बाजी मार गए। लेकिन जब टिकट देने की बारी आई तो चार दिन पहले नजर आ रहे दावेदारों को टिकट दे दिया। तीनों सीटों पर संगठन में काम करने वाले को टिकट नहीं दिया।इसी पर बगल में खड़ी एक महिला गुस्से में आ गई – बोलना नहीं चाहिए लेकिन पैसे के दम पर टिकट मिल गया। भिलोडा में कोई काम नहीं किया है। सबलोग निराश हैं। सबको मन में है कि हमारे बीच काम कर रहे थे वो क्यों नहीं आए।

बिहार उपचुनाव से क्यों दूर रहे नीतीश कुमार?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार के उप चुनावों से दूर रह रहे हैं! बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जो स्वभाव इन दिनों दिख रहा है उसके अनुसार राजनीतिक गलियारों में यह अनुमान किया जा रहा है कि वह अब इस उप चुनाव के आइने में नहीं झाकेंगे। रणनीतिक रूप से जो सक्रियता चाहिए वह न तो मोकामा चुनाव में दिखा और न ही गोपालगंज चुनाव में। इन दोनों उप चुनाव में परोक्ष रूप से रणछोड़ की रही। बतौर सीएम उपचुनाव में नीतीश कुमार की उपचुनावों में उदासीनता चर्चा का विषय बना हुआ है।बीजेपी ने जैसे ही बाहुबली ललन सिंह की पत्नी सोनम देवी को चुनावी जंग में उतारा वैसे ही यह चुनाव पार्टी स्तर से उठ कर व्यक्तिव आधारित हो गया। यहां दलीय नहीं बल्कि जीत के लिए ज्यादा से ज्यादा जातीय समीकरण बनाना था। ऐसे में नीतीश कुमार का मूल आधार वोट जो कुर्मी और धानुक का था उसे महागंठबंधन की तरफ मोड़ देते तो अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी की जीत का मार्जिन कम कर बीजेपी की राजनीति में जान नहीं डालते। आज बीजेपी मोकामा विधान सभा में बीजेपी की चुनावी राजनीति जो 30 हजार से 63 हजार वोट की राजनीति तय नहीं करती। बीजेपी का दावा ही नहीं, बल्कि पंचायत बार मतगणना का भी खुलासा किया कि कहां कहां बीजेपी ने नीतीश कुमार के वोट बैंक में सेंधमारी की। यह उदासीनता उन्होंने तब दिखाई जब उन्हें यह साबित करना था कि महागठबंधन में शामिल होने से गठबंधन के उम्मीदवार को क्या फायदा हुआ।

गोपालगंज विधान सभा चुनाव में भी नीतीश कुमार ने खुद को अलग थलग रखा। यहां नीतीश कुमार का जातीय आधार का नहीं होना एक बहाना नहीं माना जा सकता। लेकिन यहां महागठबंधन के उम्मीदवार मोहन गुप्ता का शराब व्यापारी होना और साथ ही एक मामला झारखंड में दर्ज होने की वजह से नहीं गए। यह उनका इमेज के प्रति कुछ ज्यादा ही आग्रही माना गया। वरिष्ट पत्रकार अरुण पांडे कहते हैं कि यह तो उम्मीदवारी देने के समय आवाज उठाना चाहिए थी। इसके बाद तो नीतीश कुमार के लिए गठबंधन धर्म निभाना चाहिए था। लेकिन गोपालगंज विधान सभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ। वैसे एक तरह से यह धारणा बन गई है कि समय-समय पर यह गठबंधन धर्म उनकी अपनी बनाई नीतियों के आधार पर व्यक्त होते रहे। बीजेपी और आरजेडी के साथ गठबंधन बना कर जब तक चाहे रहे और जब चाहा छोड़ भी दिया। इसलिए भी 2017 में जब वह आरजेडी का साथ छोड़ चुके थे तब भी उन पर गठबंधन धर्म नहीं निभाने का आरोप लगा। यही आरोप 2022 में भी लगा जब वह बीजेपी का साथ छोड़ वापस महागठबंधन में चले गए।

हालांकि कुढ़नी विधान सभा चुनाव के लिए यह तय नहीं हो पाया है कि महागठबंधन की तरफ से चुनाव कौन लड़ेंगे। लेकिन दावेदारी का खेल अभी परवान पर है। वैसे कुढ़नी सीट पर दवा तो आरजेडी का बनता है। साल 2020 के विधान सभा चुनाव में आरजेडी के अनिल सहनी ने जीत दर्ज की थी। इस चुनाव में आरजेडी के अनिल सहनी को 78549 मत और बीजेपी के केदार गुप्ता को 77837 मत मिले थे। यानी हार जीत का फासला लगभग 700 मतों का रहा। ऐसे में अगर यहां से आरजेडी उम्मीदवारी देती है तो महागठबंधन के प्रचार में नीतीश कुमार दो तरह से मदद कर सकते हैं। एक तो कोयरी मतों के साथ अन्य पिछड़ा वोट को आरजेडी के पक्ष में कर वोट बढ़ा सकते हैं। साथ ही चुनाव प्रचार को चले गए तो मतदाता उत्साहित हो जाएगी।

अब तक वह उप चुनाव से दूरी बनाएं हुए हैं तो वह अब इसी मूड में ही रहेंगे। वैसे भी यहां उनका आधार मत नहीं है। लेकिन अगर चुनाव प्रचार के लिए गए और कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया तो बीजेपी के आलोचना का शिकार हो जायेंगे। और नीतीश जी यह भूल इसलिए भी नहीं करेंगे कि अभी से ही यहां तनातनी का खेल शुरू हो गया है। मुकेश सहनी ने कुढ़नी पर अपना दावा ठोक दिया है। जानकारी के लिए बता दूं कि यहां निषाद मत काफी संख्या में है। कोयरी का वोट भी अच्छा खासा है। एनडीए के साथ बने समीकरण में विधान सभा 2010 में मनोज कुशवाहा ने लगभग एक हजार मतों से जीत हासिल की थी।

वहीं 2015 में जब नीतीश कुमार महागठबंधन की राह पकड़ी तो जेडीयू के मनोज कुशवाहा और बीजेपी के केदार गुप्ता आमने सामने हुए। पर जीत यहां बीजेपी के केदार गुप्ता की हुई थी। अब एक चर्चा यह भी है कि मनोज कुशवाहा चुनाव में उतर सकते हैं। उधर AIMIM ने भी कुढ़नी विधान सभा से चुनाव लड़ने का मन बनाया है। इतने सारे फैक्टर के बीच यह उम्मीद है कि नीतीश जी उतना ही करेंगे जो गोपालगंज और मोकामा विधान सभा के लिए किया यानी अपरोक्ष प्रचार।

क्या गुजरात में जीत पाएगी आम आदमी पार्टी?

आम आदमी पार्टी का गुजरात में जीत हासिल करना मुश्किल हो रहा है! गुजरात के पिछले चुनाव में प्रचार अभियान के आखिरी क्षणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्णायक दखल ने कांग्रेस की उम्मीदें धराशायी कर दीं। लेकिन इस बार लगता है कि निर्णायक दखल बहुत पहले ही हो चुका है, चुनावी शोर से भी पहले। पीएम ने मुफ्त की रेवड़ियों का मुद्दा उछाला, अरविंद केजरीवाल उसमें उलझे और अब विपक्ष कुछ ऐसे फंसा है जिससे बीजेपी की आसान जीत का रास्ता साफ होता दिख रहा।बीजेपी बहुमत के करीब दिख रही है! 

कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बमुश्किल 20 प्रतिशत वोटशेयर का आंकड़ा पार करतीं दिख रही, वोटों का इस तरह के बंटवारे का आमतौर पर मतलब होता है एकतरफा जीत, प्रचंड जीत और इस मामले में बीजेपी की जीत कांग्रेस के परंपरागत वोट बेस रहे- पिछड़े समुदायों कोली, दलित, आदिवासी, मुस्लिम के साथ-साथ गरीब तबके में आम आदमी पार्टी जबरदस्त सेंध लगाती दिख रही, उसके ज्यादातर वोटर इन्हीं समुदाय से है।

गुजरात में आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब के मुकाबले कम असरदार दिख रही है। इसकी वजह ये कि वहां AAP का सपोर्ट बेस दोनों स्थापित पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस के परंपरागत वोटरों में था न कि सिर्फ एक पार्टी में।आखिर गुजरात में आम आदमी पार्टी की अगुआई में किसी सशक्त गठबंधन का कोई संकेत क्यों नहीं मिला?

आम आदमी पार्टी अबतक सूबे में बीजेपी के वोट बेस में सेंध लगाने में क्यों नाकाम है? इनमें न सिर्फ अपर कास्ट और पाटीदार हैं बल्कि बड़े पैमाने पर मिडल-क्लास भी शामिल हैं।इसका जवाब बीजेपी और आम आदमी पार्टी की तरफ से अपने-अपने प्रचार अभियान के दौरान पकड़ी गई राजनीतिक राह में छिपा हुआ है। जब मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी डिबेट छेड़ी तब उनका मकसद यही था कि गुजरात के आकांक्षी मध्यम वर्ग को AAP के लोकलुभावन वादों में आने से बचाना। ये नव-मध्यम वर्ग सभी जातियों तक फैला हुआ है।

इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि केजरीवाल ने गुजरात में हाशिए पर पड़े तबकों के बीच पैंठ मजबूत करने के लिए ‘रेवड़ियों’ का मुखर बचाव किया। लेकिन ‘गरीब समर्थक’, ‘विकास विरोधी’ पार्टी के तौर पर प्रचारित होना AAP की संभावनाओं को सीमित करता है। इससे गुजरात में प्रभावशाली फॉरवर्ड कास्ट और मिडल क्लास वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित करने में AAP नाकाम हो सकती है।

ऐतिहासिक रूप से गुजरात वामपंथी-झुकाव वाली लोकलुभावन राजनीति को खारिज करता आया है

राज्य की कारोबारी पहचान और संस्कृति की वजह से समाजवादी और कम्यूनिस्ट पार्टियां यहां कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई हैं, बीजेपी से पहले स्वतंत्र और जनता फ्रंट ने गुजरात में कांग्रेस को चुनौती दी, भारत के तमाम बाकी राज्यों से उलट गुजरात में किसी ऐसी पार्टी का उभार नहीं हुआ जो वंचित तबकों के केंद्र में रखे

आम आदमी पार्टी का गुजरात में पॉपुलिस्ट राजनीति पर जोर देना दिल्ली और पंजाब में उसकी रणनीति से अलग है। बाकी दोनों राज्यों में उसने सबसे पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलकर सामाजिक और आर्थिक तौर पर प्रभावशाली वर्गों को लुभाया। 2013 में दिल्ली में अपने पहले चुनावी अभियान में आम आदमी पार्टी को जिन सीटों पर कामयाबी मिलीं, उनमें 70 प्रतिशत ऐसी थीं जो अमीरों के दबदबे वाली थीं। संरक्षणवादी परंपरागत राजनीति के खिलाफ मिडल-क्लास के विद्रोह से पैदा हुई पार्टी का शुरुआत से ही दिल्ली के मिडल क्लास से शानदार कनेक्ट रहा। फिर उसने लोकलुभावन स्कीम्स के जरिए धीरे-धीरे गरीब तबकें के बीच अपना विस्तार किया।

इसी तरह, पंजाब में आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, ड्रग और आर्थिक बदहाली जैसे मुद्दों को उठाकर सबसे पहले जाट सिख किसानों की प्रभावशाली जाति के साथ-साथ शिक्षित और पेशवर युवाओं को अपनी तरफ खींचा। ‘मुफ्त की रेवड़ियों वाले दिल्ली मॉडल’ की एंट्री बाद में हुई।

दूसरे शब्दों में, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सबसे पहले सामाजिक-आर्थिक तौर पर प्रभावशाली वर्गों में पैंठ बनाई और फिर कमजोर तबकों को साथ लिया यानी टॉप टु बॉटम अप्रोच। लेकिन गुजरात यह अप्रोच इसके उलट है- बॉटम टु टॉप। इसमें कई मुश्किलें भी हैं।गुजरात की बात करें तो यहां के प्रभावशाली तबके सरकार से नीतिगत सपोर्ट को पसंद करते हैं जो उन्हें आर्थिक तौर पर आगे बढ़ने में मददगार हो, न कि सब्सिडी और वेल्फेयर पेमेंट्स जैसा सीधा संरक्षण। उदाहरण के तौर पर, पाटीदार किसान शायद अपने एग्री-बिजनेस के लिए सरकार से समर्थन की ज्यादा उम्मीद करते हैं न कि बिजली बिल माफी की। जबकि पंजाब में जाट किसानों का जोर संभवतः बिजली बिलों को माफ करने पर ज्यादा रहेगा।

आम आदमी पार्टी कोई दूसरा रास्ता अपना सकती थी। लोकनीति सर्वे ने कुछ संकेत दिए हैं। 77 प्रतिशत गुजरातियों को लगता है कि पिछले 5 सालों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसका मतलब कि आम लोगों में यह धारणा सबसे मजबूत है कि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसके बावजूद भी यह वोटरों के लिए 8 शीर्ष प्रमुख मुद्दों में शामिल नहीं है।ऐसे में जब राज्य में भ्रष्टाचार को लेकर इस हद तक हाई परसेप्शन है तब आम आदमी पार्टी का इस मुद्दे पर जोर नहीं देना चौंकाने वाला है। अगर केजरीवाल करप्शन पर फोकस करते तो उन्हें बीजेपी के कमजोर राज्य नेतृत्व से लड़ाई में बढ़त मिलती। गुजरात की रुढ़ीवादी सोच में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाले के बजाय शायद सुधारवादी, टेक्नोक्रैटिक केजरीवाल के लिए ज्यादा जगह होती।

जानिए रूस के “शैतान” की ताकत!

आज हम आपको रूस के नए रॉकेट “शैतान” की ताकत के बारे में बताने जा रहे हैं! अमेरिकी राष्‍ट्रपति व्‍लादिमीर पुतिन की तरफ से लगातार परमाणु हथियारों की बात कही जा रही है। पुतिन की परमाणु धमकी के बाद से दुनिया खतरे में आ गई है। राष्‍ट्रपति पुतिन ने साफ कर दिया है कि अगर उनकी जमीन पर परमाणु हमला हुआ तो फिर एक बड़े हमले का आदेश दिया जायेगा। वहीं दूसरी तरफ रूसी सेना के एक कर्नल की तरफ से बताया गया है कि ब्रिटेन और अमेरिका को नक्‍शे से हटाने के लिये पिछले दिनों एक ड्रिल का आयोजन किया गया है। रूस और अमेरिका दोनों ऐसे देश हैं जिन्‍होंने सबसे पहले परमाणु हथियारों को परखा और आज इन दोनों ही देशों के पास इनका विशाल भंडार है। कभी आपने सोचा है कि अगर ये परमाणु हथियार फट गए तो फिर क्‍या होगा?पिछले दिनों रूस की तरफ से जो मिलिट्री ड्रिल की गई है वह दुनिया को दिया गया वह संदेश है जो यह बताने के लिए काफी है कि उनके पास ऐसे परमाणु हथियार हैं जो एक बड़े युद्ध के आगाज के लिए काफी हैं। रूस की तरफ से हुई इस ड्रिल की प्रतिक्रिया में अमेरिका ने मिसाइलों का टेस्‍ट कर डाला। पेंटागन की तरफ से हुई इस ड्रिल के बाद यह माना गया कि अमेरिका अपग्रेडेड यूरोप में मौजूद अपने बमों के जखीरे को अपग्रेड करना चाहता है।

पुतिन कई बार यह बात कह चुके हैं कि अगर किसी ने यूक्रेन में हस्‍तक्षेप किया तो फिर परमाणु हथियारों का प्रयोग किया जायेगा। अब इस बात का डर सताने लगा है कि यूक्रेन युद्ध जो नौंवे महीने की तरफ है, क्‍या उसमें यह नई घटना भी देखने को मिलेगी। अगर ऐसा हुआ तो फिर दुनिया को तबाही से कोई नहीं बचा पायेगा।विशेषज्ञों के मुताबिक इन बमों के धमाके और इनसे होने वाले रेडियेशन के बाद दुनिया भर में 20 से 30 करोड़ तक लोगों की मौत होगी। सेंटर फॉर द स्‍टीडी ऑफ एग्जिटेंशियल रिस्‍क में डिजास्‍टर एक्‍सपर्ट पॉल इनग्राम जो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है, उन्‍होंने चेताया है कि परमाणु युद्ध के बाद जो झटके आयेंगे उनसे सर्वनाश तय है। उन्‍होंने कहा कि तुरंत लोगों की मौत होने लगी है। पूरी तरह से परमाणु विनिमय से इतना ज्‍यादा रेडिएशन होगा कि सूरज भी कई साल तक नजर नहीं आयेगा।

बात अगर रूस की करें तो उसके पास सबसे ज्‍यादा परमाणु हथियार हैं। रूस के पास 6,000 हथियारों का जखीरा है जबकि अमेरिका के पास 5428, फ्रांस के पास 290 और यूके पास 225 हथियार हैं। हर हथियार अपने आप में मिनी परमाणु बम है। इन हथियारों की विस्‍फोटक क्षमता जापान में गिराये परमाणु बमों से कई हजार गुना ज्‍यादा है।अगर ऐसा हुआ तो फिर दुनिया को तबाही से कोई नहीं बचा पायेगा।विशेषज्ञों के मुताबिक इन बमों के धमाके और इनसे होने वाले रेडियेशन के बाद दुनिया भर में 20 से 30 करोड़ तक लोगों की मौत होगी। सेंटर फॉर द स्‍टीडी ऑफ एग्जिटेंशियल रिस्‍क में डिजास्‍टर एक्‍सपर्ट पॉल इनग्राम जो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है, उन्‍होंने चेताया है कि परमाणु युद्ध के बाद जो झटके आयेंगे उनसे सर्वनाश तय है। उन्‍होंने कहा कि तुरंत लोगों की मौत होने लगी है। पूरी तरह से परमाणु विनिमय से इतना ज्‍यादा रेडिएशन होगा कि सूरज भी कई साल तक नजर नहीं आयेगा। रूस के पास रणनीतिक हथियार भी हैं जिसका नाम शैतान-2 है और इस रॉकेट की ऊंचाई 14 मंजिल वाले टॉवर के जितनी है। 208 टन की यह मिसाइल 16,000 मील प्रति घंटे की रफ्तार से यूके को बस 20 मिनट में निशाना बना सकती है। इसके अलावा उसके पास किंझल जैसी खतरनाक मिसाइल भी है।

अगर बात अमेरिका की करें तो उसके पास एक इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल है जो शीत युद्ध के दौर की है। इस मिसाइल का नाम मिनटमैन III है।अगर ऐसा हुआ तो फिर दुनिया को तबाही से कोई नहीं बचा पायेगा।विशेषज्ञों के मुताबिक इन बमों के धमाके और इनसे होने वाले रेडियेशन के बाद दुनिया भर में 20 से 30 करोड़ तक लोगों की मौत होगी। सेंटर फॉर द स्‍टीडी ऑफ एग्जिटेंशियल रिस्‍क में डिजास्‍टर एक्‍सपर्ट पॉल इनग्राम जो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है, उन्‍होंने चेताया है कि परमाणु युद्ध के बाद जो झटके आयेंगे उनसे सर्वनाश तय है। उन्‍होंने कहा कि तुरंत लोगों की मौत होने लगी है। पूरी तरह से परमाणु विनिमय से इतना ज्‍यादा रेडिएशन होगा कि सूरज भी कई साल तक नजर नहीं आयेगा। अमेरिका के पास 400 ऐसी मिसाइलें हैं जिन्‍हें युद्ध की स्थिति में हवा से ही नियंत्रित किया जा सकता है। इन मिसाइलों को अमेरिकी नौसेना की ओहायो क्‍लास पनडुब्‍बी से भी लॉन्‍च किया जा सकता है। अमेरिका के अलावा यूके भी किसी भी तरह के परमाणु हमले के लिये पूरी तरह से तैयार हो चुका है।

क्या भारत रोक पाएगा रूस यूक्रेन की जंग?

क्या भारत रूस यूक्रेन की जंग रोक पाएगा यह सबसे बड़ा सवाल है! रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत तटस्थ नीति का पालन कर रहा है लेकिन उसकी भूमिका काफी बड़ी है और पूरी दुनिया उसकी ओर देख रही है। लाखों पाउंड के सख्त जरूरत वाले यूक्रेनी अनाज को मुक्त कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र और तुर्की के बीच जुलाई में एक अहम डील हुई थी। इस दौरान भारत पर्दे के पीछे से रूस के साथ खड़ा था जो इन जहाजों का रास्ता रोक रहा था। दो महीने बाद जब रूसी सेना यूक्रेन के जापोरिज्जिया न्यूक्लियर प्लांट पर गोले बरसा रही थी और पूरी दुनिया एक भयानक परमाणु संकट को लेकर चिंता में डूबी हुई थी, भारत एक बार फिर आगे आता है लेकिन इस बार वह रूस के साथ नहीं बल्कि उसके सामने खड़ा था और मॉस्को को पीछे हटने के लिए कह रहा था। करीब नौ महीने से जारी इस युद्ध के दौरान भारत ने कई बार इस तरह के गंभीर परिस्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इस हफ्ते भारत के विदेश मंत्री मॉस्को की यात्रा करने वाले हैं, जहां वह रूसी अधिकारियों के बैठक में आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे। कूटनीतिज्ञ और विदेश नीति विशेषज्ञों की नजरें इस पर हैं कि क्या भारत, दुनिया के सबसे बड़े देशों में से एक के रूप में, अपने शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है और पूर्वी और पश्चिमी देशों के दोस्त के रूप में रूस पर युद्ध को खत्म करने का दबाव डाल सकता है। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक भारत सरकार के अधिकारी इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि सही समय आने पर भारत शांति स्थापित करने के प्रयासों में क्या भूमिका निभा सकता है।

रूस और यूक्रेन एक दूसरे के साथ समझौते से बहुत दूर हैं। यूक्रेन को ऐसा लगता है कि युद्ध के मैदान में उसे बढ़त हासिल है और इसीलिए बातचीत करने का उसका कोई इरादा नहीं है। वहीं रूस भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन यह माना जा रहा है कि अगर लड़ाई गतिरोध तक पहुंच जाती है और ऊर्जा संकट इस सर्दी में यूक्रेन और यूरोप में लोगों का जीना मुश्किल बना देता है तो समझौते या सीजफायर की संभावना पैदा हो सकती है। दो भारतीय अधिकारियों के मुताबिक, कुछ समय पहले फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर शांति वार्ता की मेजबानी करने का प्रस्ताव दिया था।

हालांकि यह संभव नहीं हो सका लेकिन इससे यह पता चलता है कि भारत को दोनों पक्षों तक पहुंच के साथ एक ‘शांतिदूत’ के रूप में देखा जा रहा है। वॉशिंगटन रिसर्च इंस्टीट्यूट द हेरिटेज फाउंडेशन में एशियन स्टडीज सेंटर के डायरेक्टर जेफ एम. स्मिथ का कहना है कि अगर रूस और यूक्रेन ने मध्यस्थता के लिए एक तटस्थ तीसरे पक्ष में रुचि दिखाई तो भारत एक मजबूत उम्मीदवार साबित हो सकता है क्योंकि दोनों ही पक्षों में उसकी विश्वसनीयता है। दशकों से भारत पश्चिमी देशों और रूस के साथ अपने संबंधों को संतुलित करके चल रहा है।

भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है और अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत और अमेरिका के बीच घनिष्ठ संबंध हैं लेकिन रूस उसका एक विश्वसनीय पार्टनर, प्रमुख एनर्जी सप्लायर और भारतीय सेना के ज्यादातर हथियारों का स्रोत है। पीएम मोदी और व्लादिमीर पुतिन के निजी संबंध भी किसी से छिपे नहीं हैं। मोदी उन नेताओं में से हैं जो कभी भी पुतिन से सीधे बात कर सकते हैं और इसीलिए मैक्रों ने उनके साथ मिलकर वार्ता की मेजबानी करने का प्रस्ताव दिया। यह युद्ध भारत के लिए भी एक परीक्ष की घड़ी है क्योंकि रूस से तेल की खरीद पश्चिमी देशों और यूक्रेन को नाराज कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र में रूसी आक्रमण के खिलाफ अमेरिका की ओर से लाए जाने वाले निंदा प्रस्ताव पर वोटिंग से भी भारत ने खुद को अलग रखा है।

हालांकि भारत ने शुरुआत से ही अपना रुख बेहद स्पष्ट और मजबूती से रखा है। भारत तटस्थ नीति का पालन भी कर रहा है और युद्ध के दुष्परिणामों और हिंसा पर चिंता भी व्यक्ति कर रहा है। उज्बेकिस्तान के समरकंद शहर में एससीओ समिट से इतर पीएम मोदी ने पुतिन से कहा था कि ‘आज का युग युद्ध का नहीं हो सकता।’ शांति स्थापना वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में भारत को एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान दे सकती है जिसके संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट का रास्ता आसान हो सकता है। इतना ही नहीं दुनिया के सबसे बड़े संकट का हल, इतिहास में पीएम मोदी का नाम ‘सबसे प्रमुख वैश्विक नेताओं’ की सूची में दर्ज कर सकता है।

भारत ने रूस को क्यों सुनाई खरी-खोटी?

भारत ने रूस को खरी – खोटी सुनाई है! रूस और यूक्रेन में भीषण जंग के बीच भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर रूस पहुंचे हैं। विदेश मंत्री जयशंकर ने रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के साथ मुलाकात में यूक्रेन जंग का मुद्दा उठाया और कहा कि इसकी वजह से ग्‍लोबल साउथ ‘भीषण दर्द से तड़प रहा’ है। भारतीय विदेश मंत्री ने रूस से अपील की कि वह बातचीत की टेबल पर फिर लौट आए। इस बीच भारत अब जी-20 समूह की अध्‍यक्षता संभालने जा रहा है और इस दौरान उसका फोकस ग्‍लोबल साउथ में शांति और समृद्धि पर प्रमुखता से रहेगा। दुनिया में भारी तनाव के बीच भारत लगातार ग्‍लोबल साउथ की आवाज बन रहा है और अपनी बात को मुखरता के साथ वैश्विक मंचों पर रख रहा है। आखिर क्‍या है यह ग्‍लोबल साउथ जिसके दर्द को देखकर भारत की आंखें भर आई हैं और वह अब रूस से शांति की गुहार लगा रहा है।

ग्‍लोबल साउथ का मतलब धरती के दक्षिणी हिस्‍से में पड़ने वाले देशों से नहीं है। ग्‍लोबल साउथ दरअसल, एक ऐसा टर्म है जिसका इस्‍तेमाल विकासशील और कम विकसित लैटिन अमेरिकी, एशियाई, अफ्रीकी और ओसिनिया क्षेत्र के देशों के लिए किया जाता है। इनमें से ज्‍यादातर देश अपने औपनिवेश‍िक शासन से आजाद हुए हैं। ग्‍लोबल साऊथ अंतर क्षेत्रीय और बहुपक्षीय गठबंधन का पक्षधर है जो 1955 के बांडुंग सम्‍मेलन, गुट निरपेक्ष आंदोलन और संयुक्‍त राष्‍ट्र के जी-77 पर आधारित है। यह एक ऐसा मंच है जो राष्‍ट्रों के बीच सहयोग को बढ़ावा देता है। यही नहीं नव उपनिवेशवाद के खिलाफ यह मंच प्रतिरोध का एक मंच प्रदान करता है। साउथ शब्‍द का इस्‍तेमाल संयुक्‍त राष्‍ट्र ने 1960 के दशक में पहली बार किया था। शीतयुद्ध के बाद इसमें ‘ग्‍लोबल’ श‍ब्‍द जुड़ गया।

ग्‍लोबल साउथ में शामिल देशों को तीसरी दुनिया के देश भी कहा जाता है। इसमें ज्‍यादातर देश यूरोप और उत्‍तरी अमेरिका महाद्वीप के बाहर के हैं। ये देश बहुत कम आय वाले हैं और राजनीतिक तथा सांस्‍कृतिक रूप से हाशिए पर हैं। वहीं इसके विपरीत विकसित देशों को बताने वाले टर्म को ग्‍लोबल नॉर्थ कहा जाता है। ग्‍लोबल साउथ के ज्‍यादातर देश अगर भौगोलिक स्‍तर पर देखें तो वे उत्‍तरी गोलार्द्ध में हैं। ग्‍लोबल साउथ के नेता विश्‍व राजनीति में 1990 के दशक में ज्‍यादा मुखर होना शुरू हुए। भारत भी इसी ग्‍लोबल साउथ का हिस्‍सा है और अब इन देशों की आवाज बनता जा रहा है। यूक्रेन युद्ध की मार से सबसे ज्‍यादा असर गरीब और अल्‍पविकसित देशों पर पड़ा है। दुनियाभर में लगातार महंगाई बढ़ रही है और खाद्यान की किल्‍लत हो गई है। वहीं अमीर देश ज्‍यादा दाम देकर सामान खरीद ले रहे हैं, गरीबों को मुश्किल आ रही है। तेल के दाम से पाकिस्‍तान जैसे विकासशील देशों का बहुत ही बुरा हाल है।

ग्‍लोबल साउथ के इसी दर्द को देखकर भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से रहा नहीं गया और उन्‍होंने रूसी विदेश मंत्री लावरोह को मास्‍को में जमकर सुना दिया। जयशंकर ने कहा कि भारत का पूरजोर मानना है कि कूटनीति और बातचीत का दौर फिर से शुरू किया जाए। भारत ने यह भी कहा कि वह शांति, अंतरराष्‍ट्रीय कानून का सम्‍मान, संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर का समर्थन करता है। भारत ने यह भी प्रस्‍ताव दिया कि वह खाद्यान और फर्टिलाइजर के जहाजों को रास्‍ता देने के मामले और वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था को किसी भी खतरे को कम करने के लिए मदद कर सकता है। भारत ने यह प्रस्‍ताव ऐसे समय पर दिया है जब गेहूं और खाद्यान तेल के लिए ग्‍लोबल साउथ के देश परेशान हैं। इन दोनों ही चीजों का रूस और यूक्रेन से बड़े पैमाने पर दुनिया को किया जाता है। गरीब देशों के इसी दर्द को देखकर जयशंकर ने यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस से इस मुद्दे को सीधे तौर पर प्रमुखता से उठाया।

भारत जी-20 की अध्‍यक्षता करने जा रहा है जो एक शक्तिशाली समूह है। भारत ग्‍लोबल साउथ के देशों की समृद्धि और शांति के मुद्दे को पूरे कार्यकाल के दौरान प्रमुखता से उठा सकता है। पीएम मोदी ने इसका संकेत जी-20 का लोगो, वेबसाइट और अजेंडा जारी करते हुए दे दिया है। उन्‍होंने इसकी विषयवस्‍तु वसुधैव कुटुंबकम बताई है। उन्‍होंने संदेश दिया, ‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्‍य।’ जी-20 दुनिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय संगठनों में से एक है। इसमें शामिल देश दुनिया की कुल जीडीपी का 85 फीसदी हिस्‍सा रखते हैं। दुनिया की दो तिहाई जनसंख्‍या जी-20 में शामिल देशों में निवास करती है। जी-20 का उत्‍तरी अमेरिका और यूरोप में काफी प्रभाव है। भारत लगातार साउथ-साउथ सहयोग को बढ़ा रहा है। कोरोना जब अपने चरम पर था तब भारत ने 101 देशों को कोविड वैक्‍सीन की 25 करोड़ डोज भेजी थी। पीएम मोदी ने भी हाल ही में रूसी राष्‍ट्रपति पुतिन से कहा था कि यह दौर युद्ध का नहीं है। कुल मिलाकर कहें तो भारत ग्‍लोबल साउथ की आवाज बनता जा रहा है।